लाभ (सम्मान) जब थूकता है तो उसे हथेली पर लेना पड़ता है।
-परसाई
तोड़ने ही होंगे मठ और गढ़ सब !
रुढ़ियां तोड़ने का दावा ठोंकने वाले लोग खुद क्यों इतने रुढ़िग्रस्त होते हैं? कि कोई उन की दुखती रग पर हाथ भी रख दे तो उसे डस बैठते हैं। फ़ासिज़्म का विरोध करते-करते फ़ासिस्टों का मठ बना लेते हैं? यह मठ धीरे-धीरे उन की दुकान में बदल जाते हैं। बाज़ार का विरोध करते-करते खुद एक बाज़ार में कैद हो जाते हैं। बाज़ार के एजेंट बन जाते हैं। सत्ता को गाली देते-देते सत्ता के रिश्तेदार बन जाते हैं। दामाद बन जाते हैं। यहां उन के विरोध की कीमत उफ़ान पर होती है, मूल्य और आदर्श दफ़न हो्ते मि्लते है। हां, मुलम्मा लेकिन वही क्रांतिकारी का होता है। पर इन की दुकान और मठ बड़े से और बड़े होते जाते हैं। एक सामंत इन के भीतर गश्त करता मिलता है। एक दुर्ग में तब्दील होता जाता है। मुक्तिबोध शायद इसी लिए कह गए हैं कि तोड़ने ही होंगे मठ और गढ़ सब !
'वे' अब सारा साहित्य मांगेंगे !
आफ़्टरआल अब 'वे' लोग जाग गए हैं। सो आप को क्या हक है कि आप भी जगे रहें? सो जाइए। आंख मूंद कर चुपचाप। नहीं आप को 'वे' लोग लाठी मार-मार कर सुला देंगे। फ़ैज़ को सुना ही होगा, पढ़ा ही होगा। अच्छा नहीं? तो उसी मिसरे पर जावेद अख्तर का लिखा मज़दूर फ़िल्म का वह गाना तो सुना ही होगा। कि, 'मेहनतकश इस दुनिया से जब अपना हिस्सा मांगेंगे/ एक बाग नहीं, एक खेत नहीं/ हम सारी दुनिया मांगेंगे !' तो अब इसी तर्ज़ पर 'वे' लोग एक कविता नहीं, एक कहानी, एक उपन्यास, एक आलोचना नहीं, अब सारा साहित्य मांगेंगे। ज़रा भी ना नुकुर आप करेंगे तो वह आप को जातियों की लाठी से मारेंगे। 'वे' लोग लाठियों में तेल मल रहे हैं लगातार। सो, सो जाइए, सो जाइए ! कहां हैं आदरणीय कबीर दास ! कि आप भी डर गए हैं? हम तो भाई सचमुच अब डर से गए हैं।
आचार्य रामचंद्र शुक्ल को शत-शत प्रणाम !
उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान ने आज एक निमंत्रण-पत्र भेजा है। इस में बताया गया है कि आचार्य रामचंद्र शुक्ल जयंती के अवसर पर ९ अक्टूबर, २०१३ को सूर्य प्रसाद दीक्षित के साथ चौथीराम यादव भी हिंदी समीक्षा और आचार्य रामचंद्र शुक्ल विषय पर बोलेंगे। उदय प्रताप सिंह अध्यक्षता करेंगे इस कार्यक्रम की। मित्र लोग इस सूचना को भी मात्र सूचना के ही अर्थ में पढ़ें, किसी और या अन्यथा अर्थ में नहीं। हां, यह देखना और सुनना ज़रुर दिलचस्प हो सकता है कि लोहिया विशिष्ट सम्मान से सम्मानित चौथीराम यादव जी अपने तमाम 'शुभचिंतकों' की तरह आचार्य रामचंद्र शुक्ल को द्विज समझ कर उन की बखिया उधेड़ते हैं कि सर्वश्रेष्ठ आलोचक समझ कर उन की यश-गाथा का गान गाते हैं। अब आप मित्रों को क्या करना है, यह आप जानें। पर मैं तो आचार्य रामचंद्र शुक्ल को शत-शत प्रणाम कर रहा हूं।
राष्ट्रभाषा तो है नहीं, राष्ट्र कवि की फ़रियाद !
एक हैं मोहम्मद अनस। आजकल फ़ेसबुक पर राष्ट्र कवि कौन हो की एक नकली बहस के बहाने अपने को सुखी करने में डटे पड़े हैं। हिंदी-उर्दू का खांचा भी खींच बैठे हैं। मैथिली शरण गुप्त, दिनकर और सोहन लाल द्विवेदी को लानत भेजते हुए अपना दुख भी जता रहे हैं कि हाय फ़िराक को क्यों नहीं राष्ट्र कवि बनाया गया? हमारे मित्र हैं शंभूनाथ शुक्ल। वह भी मोहम्मद अनस के सुर में सुर मिला गए हैं पर वह शहरयार को राष्ट्र कवि बनाने की पैरवी कर रहे हैं। अभी यह लोग हिंदी को छोड़ कर उर्दू के कवियों को राष्ट्र कवि बना कर अपनी धर्मनिरपेक्षता कहिए या भावना कहिए व्यक्त कर रहे हैं। हो सकता है कि कल को किसी और भाषा के लोग भी सामने आएं। पर दिक्कत यह है कि एक राष्ट्र गान है जन गण मन जिसे बांगला के रवींद्रनाथ टैगोर ने लिखा है। इस को ले कर तो कई सारे विवाद हैं ही, एक राष्ट्रीय गीत भी है वंदे मातरम ! इस को भी बांगला के बंकिम बाबू ने लिखा है। और इस को ले कर भी मुस्लिम वर्ग के लोगों में ऐतराज है। पर हमारे मित्र लोग इन बातों से भी कतरा कर फ़िराक, शहरयार की कुर्सी दौड़ में उलझ गए हैं। इन मित्रों को कोई जीवित कवि भी नहीं मिल रहा जिसे यह लोग राष्ट्र कवि के सिंहासन पर बिठा सकें। इन मित्रों को इस बात की कतई परवाह नहीं है कि अपने देश में हर चीज़ राष्ट्रीय है। फूल से ले कर झंडा तक। पर देश में आज़ादी के इतने बरस बाद भी जो एक चीज़ राष्ट्रीय नहीं है अपने देश के पास वह है राष्ट्रीय भाषा। और मित्र लोग हैं कि राष्ट्र कवि के झमेले में जूझ रहे हैं। शायद इसी को कहते हैं कि सूत न कपास, जुलाहों में लट्ठमलट्ठ ! मित्रों बौद्धिक ही सही, फ़रियाद ही जो करनी है, बहस ही जो करनी है तो पहले एक राष्ट्रभाषा के लिए कीजिए। फिर राष्ट्र कवि का एजेंडा लाइएगा। लेकिन यह उर्दू और हिंदी का झमेला बंद कीजिए। फ़िलहाल तो मुनव्वर राना का एक शेर सुनिए और खुश हो जाइए :
लिपट जाता हूं मां से और मौसी मुसकुराती है
मैं उर्दू में गज़ल कहता हूं हिंदी मुसकुराती है।
मैं उर्दू में गज़ल कहता हूं हिंदी मुसकुराती है।
अब रचना नहीं जाति देख कर पुरस्कार !
कभी लिखा था धर्मवीर भारती ने अंधा युग। अब हिंदी में जातिवादी लेखकों का अंधा युग शुरु हुआ है जो अब रचना देख कर नहीं जाति देख कर पुरस्कार देंगे। सारे विमर्श का केंद्र अब रचना नहीं जाति होगी। यह फ़तवा कुछ लेखकों ने जारी कर दिया है। न सिर्फ़ जारी कर दिया है बल्कि धक्का-मुक्की भी शुरु कर दी है। जय हो ! इस अंधा युग की जय हो !
कहाँ चिराग़ मयस्सर नहीं शहर के लिए
भारतीय संविधान में आरक्षण का प्राविधान तो तमाम निर्बल लोगों को बल देने के लिए किया गया था। संविधान सभा और खुद अंबेडकर ने भी नहीं सोचा रहा होगा तब कि यह आरक्षण तमाम निर्बलों को लूट कर सिर्फ़ कुछ मुलायम, कुछ मायावती, कुछ जयललिता, कुछ ए. राजा या कुछ लालू-आलू टाइप लोगों को राज करने और देश को लूटने का लाइसेंस बन जाएगा। दलित, पिछड़े, धर्मनिरपेक्षता जैसे शब्द इन के हथियार बन जाएंगे। हरिचरना तो आज भी हरिचरन नहीं बन पाया। हां, भैया , दीदी लोग ज़रुर अरबपति-खरबपति बन गए। और इन की पसंद भी देखिए कि कभी अंबानी, तो कभी जयंत मल्होत्रा तो कभी राजा भैया टाइप लोग ही होते हैं। कोई निर्बल नहीं मिलता इन्हें राज्य सभा या मंत्रिमंडल आदि में भरने के लिए। दुष्यंत कुमार पता नहीं क्यों और किस के लिए लिख गए हैं :
कहाँ तो तय था चिराग़ाँ हर एक घर के लिए
कहाँ चिराग़ मयस्सर नहीं शहर के लिए
कहाँ चिराग़ मयस्सर नहीं शहर के लिए
न हो कमीज़ तो पाँओं से पेट ढँक लेंगे
ये लोग कितने मुनासिब हैं इस सफ़र के लिए
अब असल में दुष्यंत भी मुलायम, मायावती आदि जैसों की तरक्की देख नहीं पा रहे थे सो खुंदक में लिख गए होंगे। क्या करें दुष्यंत भी द्विज थे न ! सो कर गए नालायकी। सब गलत-सलत लिख गए। लोगों को भड़काने के लिए। ओह दुष्यंत !
कामरेड लोग कठुआ गए हैं
उत्तर प्रदेश की अखिलेश सरकार में राजा भैया की भागीदारी पर विरोध के मसले पर कामरेड लोग कठुआ गए हैं। तो यह मुलायम के हल्लाबोल के पुराने रिकार्ड का असर है कि राजा भैया की गुंडई का डर? या रामपुर में कंवल भारती का आज़म खान से डर कर कांग्रेस शरणं गच्छामि का दुष्प्रभाव है यह। कि कोई छींक भी नहीं रहा।
राजा भैया पर कामरेड की चुप्पी !
उत्तर प्रदेश में मुस्लिमों और दलितों पर अत्याचार करने वाले, कहर बरपाने वाले, बस्तियां जलाने वाले, राजा भैया ने आज फिर मंत्री पद की शोभा बढ़ा दी है अखिलेश यादव मंत्रिमंडल की। लेकिन पता नहीं कामरेड लोग क्यों खामोश हैं? डेढ़ दशक पहले बिहार में रणवीर सेना द्वारा ५८ दलितों के कत्ले आम पर न्यायालय के फ़ैसले पर मातम मनाना तो ठीक है, निंदा और गुस्सा भी जायज है। रेड कारीडोर बना देने की धमकी ज़रुर थोड़ी ज़्यादा है। लेकिन गुस्से के तौर पर चलिए मंज़ूर कर लेते हैं यह शाब्दिक हिंसा एक बार फिर भी। लेकिन कामरेड यह कौन सी पालिटिक्स है कि राजा भैया के मामले पर आप सब के सब लोग सिरे से खामोश हैं? कामरेड कुछ तो सांस लीजिए और धिक्कारिए अखबारों में, फ़ेसबुक पर इसे भी। लेकिन इस पर लफ़्फ़ाज़ी पर विराम क्यों है? लफ़्फ़ाज़ी पर भी विराम कामरेड? कंवल भारती प्रसंग से ही सही कुछ सीख ले लीजिए।
जो कामरेड के साथ नहीं, वह उन का दुश्मन !
अमेरिकी सरकार का मनोविज्ञान यह है कि जो हमारे साथ नहीं है, वह हमारा दुश्मन है। यह बात राजकिशोर ने अपने एक लेख फेसबुक पर फेस को नहीं, बुक को प्राथमिकता मिलनी चाहिए में कही है। फ़ेसबुक पर उपस्थित स्त्रीयों के लिए कही है। काश कि राजकिशोर जी ठीक इसी तरह अपने कुछ कामरेड दोस्तों के लिए भी विचार करते। क्यों कि हमारे कामरेड दोस्तों ने भी अमेरिकी सरकार के उसी मनोविज्ञान को स्वीकार कर लिया है। कि जो हमारे साथ नहीं है, वह हमारा दुश्मन है। मतलब जो उन की हां में हां न मिलाए, कोर्निश न बजाए वह उन का दुश्मन। तिस पर जातिवाद का मुलम्मा भी कस कर चांप लिया है। सो अलग। खाने के अलग, दिखाने का अलग का चलन तो खैर पुरानी रवायत है। पर यह अमेरिकी मनोविज्ञान? वर्ग शत्रु वाली अवधारणा जाने कहां बिला गई। तिस पर इस अमेरिकी मनोविज्ञान ने उन्हें डस लिया सो अलग। तो चित्त भी कामरेड की और पट्ट भी कामरेड की। दुनिया जाए भाड़ में। राजकिशोर जी, आखिर इस कुतर्क के बरक्स कोई तर्क खोजेंगे क्या आप? आखिर फ़ासिज़्म की यह कौन सी धारा है?
कामरेड की जय हो !
हमारे एक मित्र थे क्या, हैं अभी भी। हां फ़ेसबुक पर अब नहीं हैं। यह उन की अपनी सुविधा और उन का अपना चयन है। लेकिन आज उन्हों ने साबित कर दिया कि वे फ़ासिस्ट थे, फ़ासिस्ट ही रहेंगे। लेकिन साथ ही यह भी बता दिया कि वह पलायनवादी भी हैं। सच से और तर्क से आंख छुपाने में भी खूब माहिर हैं। कामरेड की जय हो !
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शानदार संकलन। एक बात पूछूँ?
ReplyDeleteआप कामरेड हैं कि संघी?
मतलब, उत्तर देना जरूरी नहीं है। एंवेइ जिज्ञासा हुई तो पूछ लिया :P