दयानंद पांडेय
दो दशक में सिर्फ़ चार फ़ीचर फ़िल्म बना कर प्रसिद्धि का शिखर छूने वाले फ़िल्म निर्देशक मुज़फ़्फ़र अली से जब १९९७ में मैं मिला था तब वह अपने गांव कोटवारा में मेला लगाने में जुटे हुए थे। फ़िल्मों की व्यावसायिकता से ऊबे मुज़फ़्फ़र अली के दो विवाह टूट चुके थे और वह बंबई बिसार कर लगभग लखनऊ में तीसरी पत्नी के साथ रह रहे थे। अपने गांव के विकास के लिए वह इन दिनों काम करने की बात भी बताते रहे थे। हालां कि बावजूद इस के वह कहते रहे कि मैं तो फ़िल्म ही बनाने का ख्वाब देखता हूं। कहीं न कहीं कोई न कोई आ ही जाता है। उस में भी दिक्कतें आती हैं। यह भी मेरा एक ख्वाब है कि यूपी में भी फ़िल्म इंडस्ट्री हो। उन की महत्वाकांक्षी फ़िल्म जूनी कोई ढाई दशक से कश्मीर सरकार की हीलाहवाली के नाते रूकी पड़ी है। अब भी। पर तब वह अक्टूबर-नवंबर से दामन की शूटिंग शुरू करने की तैयारी में थे। नौ गाने रिकार्ड हो गए थे। पार्टीशन पर आधारित दामन की नायिका मनीषा कोइराला को बनाया था उन्हों ने। पर वह फ़िल्म भी अभी तक नहीं बन पाई। हालां कि उन की फ़िल्मोग्राफ़ी में अभी भी बीस से अधिक फ़िल्मों की फ़ेहरिस्त मिलती है। फ़ीचर फ़िल्म और डाक्यूमेंट्री आदि ले कर। पर जाने वह आज भी गमन और उमराव जान के नाते ही हैं। यही दो फ़िल्में उन्हें लीजेंड्री बनाए हुई हैं। पद्मश्री और यश भारती जैसे सम्मान से नवाज़े जा चुके मुज़फ़्फ़र अली अब बाकायदा लखनऊ ही के हो कर रह गए हैं। उन की सांस्कृतिक सक्रियता खास कर सूफ़ी संगीत तथा कला जगत के आयोजनों में देखते बनती है। चुनाव के समय उन की राजनीतिक सक्रियता भी हर बार सामने आ ही जाती है। हालां कि वह अटल बिहारी वाजपेयी से भी चुनाव लड कर अपनी जमानत ज़ब्त करवा चुके हैं। फिर भी मानते नहीं और हर बार वह चुनाव में सक्रिय हो जाते हैं। इस बीच गोमती नदी में बहुत पानी बह चुका है, गोमती खतरे में आ चुकी है। उन की दूसरी पत्नी सुभाषिनी अली के बेटे शाद अली भी साथिया, बंटी और बबली जैसी कामयाब और झूम बराबर झूम जैसी सुपर फ़्लाप फ़िल्म बना चुके हैं, शादी भी कर चुके हैं। पर मुज़फ़्फ़र अली की रुकी फ़िल्में अभी भी रुकी पडी हैं। जानना दिलचस्प है कि मुज़फ़्फ़र अली एक समय गमन में फ़ारुख शेख की जगह अमिताभ को लेना चाहते थे पर अमिताभ ने मना कर दिया था। दिलचस्प यह भी है कि विष्णु भगवान के भक्त मुज़फ़्फ़र अली अपनी फ़िल्में नायिका प्रधान भले बनाने के हामीदार हैं पर पहले की दो पत्नियों से उन की निभी नहीं। वह कहते हैं कि उन के साथ वह सेकेंडरी बन कर रह गए थे। बहरहाल लखनऊ के कैसरबाग स्थित उन की बडी सी हवेली में मेरी जब यह बात हुई थी मुज़फ़्फ़र अली से तब उन की तीसरी पत्नी मीरा अली भी साथ ही थीं। तो भी मुजफ्फर अली अपनी तीनों पत्नियों के बाबत पहली बार खुल कर तब बोले थे। 1997 में राष्ट्रीय सहारा के लिए दयानंद पांडेय ने यह बातचीत की थी। पेश है मुज़फ़्फ़र अली से बेबाक बातचीत :गमन और उमराव जान सरीखी फ़िल्मों का संवेदनशील निर्देशक अब कहां खो गया है?
- दो चीज़ें होती हैं। एक तो माहौल, दूसरा व्यक्ति और उस की सोच। तो मेरी सोच में फ़र्क नहीं आया है, लेकिन फ़िल्म कोई कलम का माध्यम नहीं है कि जब चाहा कलम उठा कर लिख दिया। फ़िल्म बहुत महंगा माध्यम है। अब गमन मैं ने चार लाख रुपए में बनाई थी 78-79 में। अब सस्ती से सस्ती बनाऊं तो 60-70 लाख लग जाएंगे। उमराव जान 30 लाख रुपए में बनाई थी 81 में। आज कम से कम सात-आठ करोड़ में बनेगी। तो माहौल में फ़र्क आ गया है। माहौल बिगड़ता ही जा रहा है। आज बड़े से बड़ा फ़िल्म मेकर, श्याम बेनेगल जैसा निर्देशक भी बिलकुल चुप और सीमित हो गया है, क्यों कि कला की कोई कदर नहीं है। आजकल जो पैसे वाले हैं, पिक्चर बनाते हैं तो कला को दो तरह से देखते हैं कि कितने में वह खरीद सकते हैं और कितने में बेच सकते हैं।
तो व्यावसायिकता की मार की वज़ह से?
- बहुत ज़्यादा है मार। जिस में हमारे जैसे लोग खो गए हैं। अभी जो आप गांव वाला मामला कह रहे थे, मुज़फ़्फ़र अली के साथ भी वही है। वह तो कहिए कि एक मौका मिल गया था तो अपने को साबित कर लिया।
सुनते हैं गमन में फारुख की जगह आप पहले अमिताभ बच्चन को लेना चाहते थे?
- हां, अमिताभ तब स्टार हो गए थे। तो मैं ने कहा कि मेरे साथ काम करो गमन में। तो अमिताभ कहने लगे हमारी इमेज फाइटर की हो गई है तो काहे बिगाड़ना चाहते हैं।
खैर, बात व्यावसायिकता की मार की हो रही थी। अगर फ़िल्मों में व्यावसायिकता की मार है तो आजकल दूरदर्शन पर बड़े-बड़े लोग धावा बोले हुए हैं। आप क्यों चुप हैं?
- दूरदर्शन में लाइन में तो लगेंगे नहीं। अच्छा चलिए जो कोई आफर करे और मैं प्रोजेक्ट ले कर जाऊं तो अगला कहे कि अच्छा हमने कहा था। तो हम तो हो गए ज़ीरो।
लेकिन जो आज आप व्यावसायिकता के दबाव या मार की बात कर रहे हैं तो यह तो जब आप गमन या उमराव जान बना रहे थे तब भी था। तब भी मनमोहन देसाई, रमेश सिप्पी, प्रकाश मेहरा थे।
- हां, पर तब इतनी मारकाट नहीं थी। इतना दबाव नहीं था। फिर अब बंबई का माहौल हमे रास नहीं आता। साफ कहूं कि बंबई में रह कर मछली का शिकार नहीं कर सकता। मैं कहता हूं कि हम बंबई में जा कर क्यों फ़िल्म बनाएं। हम अपने देश से सवाल पूछते हैं?
तो गमन या उमराव जान बनाने भी आप बंबई क्यों गए?
जब गमन बनाई थी तो एयर इंडिया में पब्लिसिटी इंचार्ज की नौकरी करता था। बंबई में रह कर उस समस्या को गहराई से समझा। वह नौकरी बहुत अच्छी थी। दुनिया को समझने का मौका मिला उस नौकरी में। पर अब धीरे-धीरे मेरा रुख लखनऊ की तरफ, यूपी की तरफ हुआ है। मेरी तरह और भी होंगे कि लखनऊ में फ़िल्म इंडस्ट्री बने। एक सोसायटी भी इस बाबत बनाई है। अगर यहां फ़िल्म बनने लगेगी तो बंबई की अपेक्षा आधे से भी कम दाम में लोग बना सकते हैं।
पर चलचित्र निगम तक तो यहां फेल हो गया है। फ़िल्म इंडस्ट्री कैसे सफल होगी भला!
- अब एक बार कोई प्रयोग सफल नहीं हो सका तो फिर क्या दूसरा काम नहीं हो सकता? यहां ताजमहल भी तो बन चुका है तो कुछ भी बन सकता है। यूपी सब से बड़ी मार्केट है कि नहीं?
हां, सब से बड़ी टेरीटरी है।
- तो यूपी की सरकार क्यों इगनोर करती है? बंबई फ़िल्म इंडस्ट्री की बैक बोन भी यूपी है। अवधी, भोजपुरी, ब्रज भाषाएं लिखने वाले, गाने वाले, संगीतकार ज़्यादातर यूपी के ही हैं।
अच्छा मान लीजिए खुदा न खास्ता यूपी में फ़िल्म इंडस्ट्री बन गई पर जो यहां भी व्यावसायिकता की मार आ गई? आ गई क्या आनी ही है, तो...?
- इस में टाइम लगेगा। व्यावसायिकता तो फैलेगी। पर यहां बात दूसरी भी है। अगर बंबई के लोगों को लगता है कि आधे दाम पर यूपी में काम हो सकता है तो क्यों नहीं आएंगे। जैसे रेखा को ले आया, मनीषा को ले आएंगे।
यश चोपड़ा जैसे निर्देशकों का कहना है कि विदेशों में शूटिंग करना ज़्यादा सुविधाजनक और सस्ता पड़ता है।
- चोपड़ा अपनी जानें। मैं अपनी जानता हूं। मैं यहीं लाऊंगा। क्यों कि हमारे सब्जेक्ट तो होते ही हैं यूपी के। यह ज़रूर है कि एक बार जब काम शुरू होगा तो बहुतों को रोजी मिलेगी।
पर बंबई इतनी बड़ी फ़िल्म इंडस्ट्री है। वहीं अक्सर लोगों के बेरोजगार रहने की खबरें आती रहती हैं। एक्स्ट्रा तकनीशियन, करेक्टर, आर्टिस्ट सभी के बारे में।
- अब यह तो हर हलके में है। कंप्यूटर में भी बेरोजगारी है। पर मैं प्रोडक्शन से ज़्यादा मार्केटिंग की बात कर रहा हूं।
पर फ़िल्म में पैसा लगाने वाले तो बंबई में ही हैं। यूपी में कौन लगाएगा?
- जो भी हो, मैं तो फ़िल्म ही बनाने का ख्वाब देखता हूं। कहीं न कहीं, कोई न कोई आ ही जाता है। उस में दिक्कतें भी बहुत आती हैं। यह भी मेरा एक ख्वाब है कि यूपी में भी फ़िल्म इंडस्ट्री हो।
आप के आइडियल डायरेक्टर्स?
- बटुकी, ईरामा बर्मन, कुरसावा। ये लोग जो हैं इनकी बड़ी क्लासिकल सोच है। जिस तरह से फ़िल्म में उतारते हैं, पूरे माहौल को ज़िंदा कर देते हैं। सत्यजीत रे हैं, डेविड ग्रीन हैं।
समकालीन?
- श्याम बेनेगल थोड़ा सा सीनीयर हैं। केतन मेहता हैं। गमन में मेरे असिस्टेंट थे।
पर अब तो केतन मेहता आर-पार जैसी फ़िल्मों में उलझ गए हैं?
- क्रिएटिव हैं केतन मेहता। पर अपने ढंग से समझौते करते हैं। अपना मिजाज है उन का।
अपनी फ़िल्मों के बारे में आप की क्या टिप्पणी हैं?
- ज़्यादातर फ़िल्मों में सामाजिक, सांस्कृतिक गहराई को पेश करने का प्रयास रहा है। रचनात्मक दृष्टि में। महिला की दृष्टि में। क्यों कि महिला हर पोज को बड़ी गहराई से देखती है। बच्चों की तरह से। मर्द नहीं देखता। इंसेसिटिव हो जाता है। दस जगह डांट खाते-खाते। माहौल को सही तरह से समझ नहीं पाता है। तो मेरा प्रयास रहा है कि सेंट्रल करेक्टर महिला हो। समाज को पेश करने की सोच भी। अगर हीरो ओरिएंटेड फ़िल्म बनाता तो अमिताभ भी मेरी फ़िल्म करते। मैं भी स्टार होता। पर अब मैं महिला के भरोसे बैठा हूं। जब महिला जागेगी, तब तक। खास महिला तक तो हम पहुंच चुके हैं। आम महिला तक पहुंचना बाकी है।
आप अपनी महिलाओं के बारे में भी बताएंगे?
-हमारी फिल्में ही हमारी महिलाएं हैं।
नहीं, मैं आप की ज़िंदगी की महिलाओं के बारे में पूछ रहा हूं?
-हमारी क्या महिलाएं हैं?
आप के बिखरे दांपत्य के बारे में पूछ रहा हूं?
-वो तो हमारी निजी ज़िंदगी है। जिस से बनी, नहीं बनी। पर जो हमारी ज़िंदगी में आई उसे पूरी आज़ादी दी। उसे हमने दबा कर नहीं रखा।
मीरा सलूजा आप की तीसरी पत्नी है कि चौथी?
- सुभाषिनी जी भी दूसरी पत्नी थीं। पहली पत्नी थी डॉ.गीति सेन।
क्या इन दोनों से बकायदा डायवोर्स हो गया है?
- हां, यही समझिए।
इन में किसी ने दूसरी शादी की?
- नहीं।
बच्चे?
- इन दोनों से एक-एक बेटे हैं और तीसरी से एक बेटी।
बच्चे मिलते हैं?
- बच्चे मिलते हैं। यही सब से बड़ी चीज़ है। आपस में सगे भाई से भी ज़्यादा। गीति सेन से बड़ा बेटा मुरा अली 26 वर्ष का है। एक्टिंग करना चाह रहा है। सुधीर मिश्रा की फ़िल्म इस रात की सुबह नहीं में काम किया है। सुभाषिनी से दूसरा बेटा शाद अली भी डाइरेक्शन में आजमा रहा है।
गीति सेन या सुभाषिनी जी से भी भेंट होती है?
- भेंट होती है।
कैसी?
- कुछ तो तकलीफ होती होगी उन्हें भी। पर बच्चा हमारा एक है तो मिलना हो जाता है।
फाइनेंसियली सपोर्ट करते हैं बच्चों को?
- जब होता है तो कर देते हैं। हमारे साथ तो यह है कि जब पैसा होता है तो बहुत होता है, नहीं होता है तो नहीं होता है।
बीते दांपत्य और वर्तमान दांपत्य के बारे में? आखिर रेशा कहां टूटा?
- जो हमारी पहली मैरिजेज थीं, वह अपनी जगह स्ट्रांग पर्सनिलिटी थीं, पर प्रेजेंट वाइफ़ ने पूरी दिलचस्पी मुझ में दिखाई है। पहले की बीवियों के साथ मैं सेकेंड्री हो कर रह गया था। पर अब ऐसा नहीं है। हमारा गांव का संघर्ष है, शहर का संघर्ष है। हम जिस के बारे में सोचते हैं, उस की डिटेलिंग वाइफ़ करती है तो एक टीम बन जाती है। तो बड़े-बड़े ख्वाब देखते हैं। पर सुभाषिनी जी के साथ होते तो उन के ख्वाब हमें डुबो देते। वह क्रांति के बारे में सोचतीं। हम मेले के बारे में सोचते। फ़िल्म के बारे में सोचते। तो हमें यह भी देखना होता कि उन्हें तकलीफ न हो, फिर टोटल फाइनेंस कंट्रोल भी उन के हाथ में होता तो हम खर्च नहीं कर सकते थे अपनी मर्जी से। पैसे वैसे भी अपने हाथ से हम नहीं छूते।
पर सुभाषिनी जी से तो आपने प्रेम विवाह ही किया था?
- हां, सुभाषिनी जी से भी प्रेम विवाह किया था और गीति सेन से भी।
फिर?
- हो सकता है कि एक औरत बहुत सुंदर हो, बहुत होशियार हो पर आप को समझे नहीं तो बेकार है। हमारे साथ एक साधारण औरत भी होती जो हमें नहीं समझती तो भी हम खत्म हो गए होते। मैं देखता हूं लोग पत्नियों से आजिज आ कर घर से बाहर भागे रहते हैं। पर हम तो अब घर से बाहर निकलते ही नहीं।
तो अब मीरा सलूजा सूटेबिल वाइफ है?
- हां। देखिए, हम तो पब्लिक प्रापर्टी हैं। तो कोई तो हमें मैनेज करने वाला हो। पर सब से बड़ी दिक्कत है कि लखनऊ में लोग पब्लिक प्रापर्टी को कुछ समझते नहीं, उस पर पेशाब कर देते हैं।
मीरा जी से शादी हुए कितने दिन हुए?
- छह साल पहले। दिल्ली में मिली थीं। आर्किटेक्ट हैं।
सुभाषिनी जी से अलग हुए तब कितना समय हुआ था?
- सुभाषिनी जी से अलग हुए तब तीन-चार साल हुए थे।
पर अलग क्यों हुए?
- या तो मैं अपने पर ज़ुल्म करता रहता। अगर आप एक-दूसरे का टेंपर न समझ सकें तो अलग रहना ही ठीक। सुभाषिनी जी के लिए पहली शादी कम्युनिज्म थी। हमारी नार्मल लाइफ नहीं रह गई थी। रात दो-दो बजे वह पालिटिकल मिटिंग्स से आतीं। पालिटिक्स एक बार खाने लगती है तो खा जाती है। अगर हम भी फुल टाइम पालिटिशियन हों तो सौ से मिलना ही पड़ेगा। वाइफ से नहीं मिल पाऊंगा। तो सुभाषिनी के साथ भी यही था। उन की पालिटिक्स उन्हें कानपुर खींच लाई। हम तो कानपुर आ नहीं सकते थे। लखनऊ तक तो ठीक था, पर वह लखनऊ भी नहीं आ सकती थीं।
और डॉ. गीति सेन?
- उन का अपना मिजाज था। इंटेलेक्चुअल थीं। अकबरनामा पर उन की पी.एच.डी. है। उन का टेंपरामेंट भी मुझे नहीं सूट कर पाया।
इन दोनों में सब से ज़्यादा किस के साथ रहे?
- सब से ज़्यादा सुभाषिनी जी के साथ 10-12 साल। गीति जी के साथ चार साल। पर ज़्यादा मत पूछिए। प्रेजेंट लाइफ मत खराब कीजिए।
आप की लगभग सभी फ़िल्मों में शहरयार के लिखे गीत हैं।
- क्यों कि उन की शायरी के साथ हमारी चेतना जागी। हम तब अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में पढ़ते थे। उन की शायरी में इतनी ताकत थी कि हम पर असर करती थी। हमारे लिए तो उन्हों ने फ़िल्मों में लिखना शुरू किया।
उमराव जान में कहा जाता है कि पहले जयदेव जी संगीत दे रहे थे और मधुरानी जी गा रहीं थीं? पर बाद में आप ने आशा भोंसले के क्रेज़ में जयदेव जी को किक कर दिया?
- मधुरानी को गाना था, जयदेव का म्यूज़िक था। सही बात है, पर फ़ाइनेंसर ने कहा कि आशा जी ही गाएंगी तो जयदेव जी आड़े आ गए। फिर मजबूरन जयदेव जी को छोड़ना पड़ा।
पर जयदेव के संगीत पर ही आशा जी का गाना भर दिया?
- यह बात गलत है कि जयदेव के म्यूज़िक पर खय्याम ने आशा भोंसले का गाना भर दिया।
पर उमराव जान के गाने में महक जयदेव के संगीत की ही है?
- हो सकता है। यह हो सकता है।
गमन और उमराव जान में तकनीकी फ़र्क साफ दिखता है। मानते हैं आप?
- बिलकुल। एक तो साफ बात यह कि गमन मेरी पहली फ़िल्म थी। दूसरे उमराव जान में कल्चर की रिचनेस और गु्ज़रे वक्त का भराव दिखता था। गमन में ज़िंदगी का मैप दिखाना था। तो बुनियादी फ़र्क भी था।
पिछले दिनों जब यश भारती पुरस्कारों की बहार चली तो आप ने मुलायम सिंह को चिट्ठी लिख कर अपने जन्म-दिन पर यश भारती मांगा?
- वह मेरा सम्मान करना चाहते थे। मेरा नाम उन की लिस्ट में पहले से था। तो मैं ने लिख दिया कि जन्म-दिन पर करें। वरना वह तो थोक में एक साथ कई का कर रहे थे। मैं अकेले चाहता था, इस लिए लिख दिया।
अपनी राजनीति के बारे में?
- हम तो सब के हैं। किसी एक पार्टी के नहीं। यह पालिटिक्स में जाने के बाद पता चला। सपा के बाद बसपा में गया, पर एक्टिव नहीं। पालिटिक्स में अगर दिल के साथ हो सकता है मेरे जैसा आदमी तो पब्लिक के साथ।
आप ज़मींदार न होते तो?
- अब कोई पैदा कैसे होता है? हम तो राजा मोरध्वज के वंशज हैं। विष्णु जी के आशीर्वाद से। ज़मींदार नहीं। हमारा कोई कुछ बिगाड़ थोड़े ही सकता है। विष्णु जी का आशीर्वाद है।
फ़िल्मकार न होते तो?
- विष्णु भगवान का आशीर्वाद है। हम तो कुछ भी कर सकते थे। हमारे अंदर एक कलाकार है। कोई न कोई रास्ता ढूंढ लेता। जिस तरह की परीक्षा से हम गुज़रे हैं, हमारा परिवार गुज़रा है, हमारी तो परीक्षा हर वक्त होती रहती है। हो सकता है पेंटिंग करता रहता। मैं आज़ाद तबीयत आदमी। पर मजबूरी थी 15 साल नौकरी की। मजबूरी थी। रियासत चली गई थी। पर मैं बंदिशों में नहीं रह सकता, नौकरी छोड़ दी।
आप खुद नौकरी नहीं कर सकते, पर दूसरों को नौकरी पर रखते हैं?
- मैं जिस मिजाज से नौकरी कराता हूं, बंदिशों में नहीं रखता किसी को।
जूनी का क्या हो रहा है?
- जूनी कश्मीर प्राब्लम की वजह से रूकी पड़ी है। 10-15 रोज में रास्ता निकलने की उम्मीद है। कहीं और से उसे कंपलीट नहीं कर सकता, ऐसा काश्मीर गवर्नमेंट से अनुबंध है। दूरदर्शन पर ज़रूर इस के बारे में आधे घंटे की फ़िल्म बनाने जा रहा हूं। जो इसे प्रमोट करेगी। वैसे हिंदी-अंग्रेजी में इसकी नौ-नौ रीलें बन गई हैं। इतनी ही और बनेंगी।
अगर अभी मौका मिल जाए जूनी फिर से बनाने को तो कितना समय लगेगा, इसे पूरी करने में?
- साल भर लग जाएंगे।
लोग तो तीन महीने में पूरी फ़िल्म कर डालते हैं?
- इस में थोड़ा अलग है। जूनी को ले कर हमने तो बहुत बड़ा ख्वाब देखा था। अलग-अलग मूड, अलग-अलग शेड। जूनी को ले कर हमने जो ख्वाब देख लिया था, उसे दुनिया को भी दिखा दें तो बड़ी चीज़ होगी।
और दामन?
- दामन पार्टीशन की कथा है कि संघर्ष का मुआवज़ा नहीं मिला। गाने रिकार्ड कर लिए हैं। शहरयार ने लिखे हैं। मनीषा कोइराला को साइन किया है। अक्टूबर-नवंबर में शूट करेंगे।
पाकिस्तान में भी जाएंगे शूटिंग के लिए?
- हमारे लिए तो पाकिस्तान मायने नहीं रखता। हम तो यहीं लखनऊ और कोटवारा में शूट करेंगे। मनीषा कोइराला को यहीं लखनऊ लाएंगे।
Mujafar ali ji ke bare me kai jankari mili es lekh me . Mere BABA Vishnu Bhagat the unki yaad bhi aayi ek achche lekh ke liye Dayanand ji ko badhai
ReplyDeleteयह साक्षात्कार बहुत ही अच्छा और सधा हुआ लगा .
ReplyDeleteलखनऊ के साहित्य समारोह ( जिसे लिटरेरी फैस्टीवेल कहना आप ने ज़रूरी समझा ) की रपट दिलचस्प है । मुज़फ़्फ़र अली की बातें अनुभव आधारित
ReplyDeleteऔर मौलिक हैं । उन से लिया गया आप का साक्षात्कार बड़ा सूचनाप़द है । आप के ब्लाग की जानकारी पहली बार मिली जो सुखद है ।
sir aapki bhi kya ray hai cinema ke nayepan ke bare me jarur bataye...
ReplyDeleteati sundar
ReplyDeleteबढ़िया ।
ReplyDeleteMgvral
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