Sunday, 31 December 2023

राम मंदिर के लिए मोदी की कृष्ण नीति

दयानंद पांडेय 

अयोध्या एयरपोर्ट का नाम महर्षि वाल्मीकि के नाम पर कर देने से कुछ व्याकुल भारत घायल हो गए हैं। बहुत ज़्यादा घायल। इन सब का कहना है कि एयरपोर्ट का नाम अगर राम के नाम से बदल कर कुछ करना ही था तो तुलसीदास करना था। महर्षि वाल्मीकि के नाम क्यों किया ? महर्षि वाल्मीकि क्या तुलसीदास से बड़े हैं ? महर्षि वाल्मीकि का अयोध्या से क्या संबंध है? इन घायलों का बड़ा दुःख यह है कि यह निर्णय राजनीतिक है। वोट के लिए किया गया है। दलित वोट के लिए किया गया है। 

यह बात भी निर्विवाद रुप  से सही है। इस से बिलकुल ऐतराज नहीं है। लेकिन इन व्याकुल भारत टाइप घायलों को कोई बताने वाला नहीं है कि अगर महर्षि वाल्मीकि न होते तो तुलसीदास कहां होते ? कहां होते रामायण के अन्य रचनाकार भी। महर्षि वाल्मीकि रामायण के बीज हैं। बाक़ी सब वृक्ष। बीज है तो वृक्ष है। निर्मम सच यह भी है कि राम मंदिर सिर्फ़ पूजा-पाठ के लिए नहीं बन रहा। राजनीति और इस से जुड़ा वोट भी एक बड़ा फैक्टर है। तो क्या इस बिना पर राम मंदिर बनना ही नहीं चाहिए ? 

तो क्या राम मंदिर बनना ही नहीं चाहिए , यह भी राजनीति नहीं है ? 

सब से ज़्यादा खलबली तो कुछ कुंठित लेखकों , कवियों में मची हुई है। उन्हें लगता है कि उन के प्रतिरोध की रोजी-रोटी , मोदी ने उन से छीन ली है। अब वह कैसे जिएंगे , प्रतिरोध के बिना। अयोध्या में रहने वाले एक कवि तो अपनी एक टिप्पणी में अपनी व्यथा कहते हुए अपना दुःख लिख गए हैं : हमारा हौसला देखिए कि हम अयोध्या में हैं। गोया अयोध्या में नहीं , नरक में रह रहे हों। सोचिए कि विकसित अयोध्या में रहने में अगर तकलीफ है तो भारत में भी रहने की तकलीफ कल होगी ही। यह तो कुछ वैसे ही है जैसे एक लेखक ने 2014 में चुनाव के पहले कह गए कि मोदी अगर प्रधान मंत्री बन गया तो मैं देश छोड़ दूंगा। अलग बात है , मोदी प्रधान मंत्री बने और वह देश में रहे। पूरी बेशर्मी से। 

सच तो यह है कि राम को जब वनवास हुआ था , त्रेता में तो वह भी राजनीति थी। बाबर ने मंदिर ढहा कर मस्जिद बनवाई , वह भी आक्रमणकारी राजनीति थी। बाबरी ढांचा गिराया गया , वह भी राजनीति थी। राम मंदिर बन रहा है , यह भी राजनीति है। राम मंदिर का विरोध भी राजनीति है। दूषित राजनीति। दिक़्क़त यह है कि मोदी विरोध अब राम मंदिर का विरोध के रुप में उपस्थित है। मोदी की यही बड़ी ताकत है। मोदी विरोध , कभी भारत विरोध , कभी राम मंदिर विरोध में उपस्थित कर मोदी को ताक़तवर बनाने का सबब बना गया है। इन घायल मूर्खों को यह अभी तक समझ ही नहीं आ रहा। तब जब कि मोदी ने राम मंदिर के लिए राम की नीति का नहीं , कृष्ण की नीति का उपयोग किया है। क्यों कि मोदी को मालूम था कि राम राज के लिए कृष्ण नीति के बिना कुछ होने वाला नहीं। इतना कि कुछ साल बाद जब मोदी भारत की सत्ता से हटेगा तब तक भारत की जनता की आदत कृष्ण नीति में तब्दील हो चुकी होगी। आंखें , पूरी तरह खुल चुकी होगी। फिर इन घायल व्याकुल भारत लोगों का क्या होगा ? एयरपोर्ट का नाम महर्षि वाल्मीकि और उज्ज्वला गैस की दस करोड़वीं लाभार्थी अयोध्या की मीरा माझी के घर पहुंचना भी राजनीति का ही हिस्सा है। वोटबैंक की बाजीगरी का ही हिस्सा है। मोटर साइकिल बनाने , बढ़ई का काम करने , धान रोपने जैसी प्रायोजित फ़ोटोग्राफ़ी से यह राजनीति नहीं होती। मोहब्बत की दुकान का साइन बोर्ड लगा कर , नफ़रत का सामान बेचने की क़वायद से राजनीति नहीं होती। 

राजनीति तो अब राम या कृष्ण नीति से ही होगी भारत में। ज़्यादा से ज़्यादा चाणक्य नीति से। बाबर या औरंगज़ेब की नीति से हरगिज़ नहीं। मुंह में राम , बगल में छुरी से नहीं। महर्षि वाल्मीकि और मीरा माझी राजनीति की पुरानी सीढ़ी है। प्राथमिकता देखिए और प्रयाग के कुंभ मेले में कभी स्वछ्कारों के चरण धोने का दृश्य याद कीजिए। ग़रीब सुदामा के चरण धो कर ही , कृष्ण , कृष्ण होते हैं। कृष्ण ऐसे ही जीतते हैं। और राम वाया केवट और शबरी। केवट नदी पार करवाता है , शबरी जूठे लेकिन मीठे बेर खिलाती है। इस बेर को उज्ज्वला की लाभार्थी मीरा की मीठी चाय में अगर नहीं देख पाए तो आप बहुत अभागे हैं। 

जैसे कैकेयी राम का पुन: वनवास मांग रही हो !

दयानंद पांडेय 

मस्जिदों और मजारों पर जाना शुरु कीजिए। क्यों कि आप की राय में वह अतिक्रमण कर के नहीं बनाए गए हैं। नाम भले अल्ला है , आख़िर वहां भी तो ईश्वर का ही वास है।


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अयोध्या में राम की जगह गिद्ध देखना , तो अमृत वर्षा करना है l है , न ? कौन विद्वान किस तरह सिद्ध करेगा , यह गिद्ध अयोध्या भूमि पर ही उपस्थित हैं ? विष वमन करने वाले लोग , एकतरफ़ा बात करने वाले लोग , बहुत ऊंचा , बहुत ज़ोर से बोलते हैं l गिद्ध देखने वाले इन गिद्धों को मेरी बात कैसे सुहा सकती है भला , यह तो हम भी जानते हैं l और यह सो काल्ड ज्योतिषी तो घोषित पिट्ठू है , कांग्रेस का l अभी बीते विधान सभा चुनावों में हर जगह कांग्रेस की सरकार बनवाने की घोषणा , अपनी वाल पर किए बैठा है। 


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कहते हैं , नया मुल्ला , प्याज़ ज़्यादा खाने लगता है l जाइए कभी लखनऊ के चारबाग़ में बड़ी लाइन वाले स्टेशन पर l बीच रेल लाइन खम्मन पीर बाबा की मज़ार पर मत्था टेकिए l मैं तो टेक आया हूं कई बार l राणा प्रताप मार्ग पर दैनिक जागरण के सामने मज़ार पर चादर चढ़ाता रहता हूं l सड़क संकरी हो गई है तो क्या ? गोमती नगर , मिठाई वाले चौराहे से गुज़रते हुए फ़्लाई ओवर , के नीचे भी मज़ार के नीचे की मजार को सिर झुकाता हुआ निकलता हूं l अजमेर शरीफ़ में भी चादर चढ़ा आया हूं l दिल्ली में निज़ामुद्दीन औलिया की मज़ार पर भी चादर चढ़ा कर सिर झुका आया हूं l दिल्ली में ही कई जगह नए-नए फ़्लाई ओवर पर मज़ार देख आया हूं l कोयंबतूर में तो फ़्लाई ओवर का चौराहा और उस पर मज़ार देखा है। 


आप ने नहीं देखा होगा , मैं ने अयोध्या में राम परिवार के परिसर में ही बाबरी ढांचा देखा है l सीता रसोई , कनक भवन के बीच बाबरी ढांचा ? यह अतिक्रमण नहीं , श्रद्धा थी ? वह तो विराजमान राम लला , सुप्रीम कोर्ट से मुक़दमा जीत कर आए हैं l फिर भी संविधान का बारंबार नगाड़ा बजाने वाले कुछ बुद्धि पिशाच हज़म नहीं कर पा रहे इसे l कभी गिद्ध दिखा रहे , कभी अतिक्रमण वाले मंदिर l

काशी में ज्ञानवापी अतिक्रमण नहीं , श्रद्धा है ? मथुरा में श्रीकृष्ण जन्म-भूमि और मस्जिद की दीवार एक है l यह अतिक्रमण नहीं , श्रद्धा है ? अनेक उदाहरण हैं l लेकिन वैचारिक हठ इन तथ्यों को देखने नहीं देता l सत्य , तथ्य और तर्क दिखाने वाले लोग विष-वमन करने वाले बता दिए जाते हैं l विष के कुएं में बैठे हुए लोग अमृत वर्षा करने के ठेकेदार l अजब तमाशा है l ग़ज़ब दोगलापन है। 


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वही ईश्वर , जो कण-कण में है l नाम आप चाहे जो ले लीजिए l न भी लीजिए तो भी कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता l केदार नाथ सिंह ने लिखा ही है -


तुम ने जहां लिखा है प्यार

वहां लिख दो सड़क

कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता

यहां कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता। 


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हर पुलिस लाइन में , क्या आज श्रीकृष्ण मंदिर बने हैं ? लखनऊ में पुराने हाईकोर्ट परिसर में ब्रिटिश पीरियड से बड़ा सा मंदिर है। उत्तर प्रदेश विधान सभा , सचिवालय और राजभवन के बीच वाली सड़क पर दोनों तरफ मस्जिद ही है न ! वह भी बड़ी-बड़ी। जिन में दुकानें खुली हुई हैं। मंदिर क्यों नहीं है ? पुराना सही , क्या यह अतिक्रमण नहीं है ? मैं कोई बात तोड़-मरोड़ कर नहीं , तथ्य और तर्क के आलोक में कहता हूं। काशी , अयोध्या , मथुरा की बात बता कर बताया है कि आक्रमणकारी सर्वदा अतिक्रमण करते हैं। रही बात इन दस बरसों की तो योगी राज के उत्तर प्रदेश में तो मेरी जानकारी में धार्मिक अतिक्रमण नहीं हुए हैं। धार्मिक ? अरे बड़े-बड़े माफियाओं के अतिक्रमण ध्वस्त किए गए हैं। यथा अतीक़ अहमद , मुख़्तार अंसारी , विजय मिश्रा , कानपुर का वह दुबे आदि तमाम के अवैध कब्जे , ध्वस्त हो गए हैं। पुराने अतिक्रमण ध्वस्त किए गए हैं। मजारों के भी , मंदिरों के भी। गोरखपुर में भी सड़कों पर कई मंदिर तोड़े गए। और तो और सड़क चौड़ी करने के लिए योगी ने गोरखनाथ मंदिर परिसर की बाउंड्री तक तोड़ कर ज़मीन दे दी है। यह तथ्य है। लफ्फाजी नहीं। प्रायोजित फ़ोटो वाले गिद्ध नहीं। इन गिद्धों को भी प्रणाम करता हूं। क्यों कि त्रेता में इन्हों ने जटायु नाम से मनुष्यता के पक्ष में अपनी उपस्थिति दर्ज की थी , अत्याचारी और अपहरणकर्ता रावण के ख़िलाफ़।


आप की कालोनी बहुत पुरानी है। कम से कम चालीस बरस पुरानी। फिर भी आप को जहां कहीं भी अतिक्रमण लगता है , प्रामाणिक रुप से तथ्य पेश करें। मैं ज़िम्मेदारी लेता हूं , पक्का ध्वस्त हो जाएंगे। मंदिर भी। अगर सरकारी भूमि पर बने हैं। क़ानून अब ऐसा ही है। बस प्रमाण , पुष्ट होने चाहिए। आरोप नहीं , प्रमाण। नहीं रामपुर में जौहर विश्वविद्यालय के नाम पर भी आज़म खान ने सपा कार्यकाल में जाने कितने किसानों , गरीबों की ज़मीनों पर ज़बरदस्ती कब्ज़ा किया , सारे दोगले सेक्यूलर , आज भी ख़ामोश हैं। जब उस जबरिया कब्ज़े को छुड़ाया गया , ध्वस्त किया गया तो इन दोगले सेक्यूलरों ने दबी जुबान , अत्याचार बताना शुरू कर दिया है। अतिक्रमण , अतिक्रमण होता है , अत्याचारी , अत्यचारी। नया-पुराना नहीं। लेकिन अब तो ऐसे-ऐसे कवि हो गए हैं , जो आक्रमणकारी , बर्बर बाबर में अपना आदर्श खोजते हैं। बाबर जैसा पिता बनना चाहते हैं। ऐसी दोगली लालसा भरी कविता लिखते हैं।


आप के मूल प्रश्न से या किसी के मूल प्रश्न से क्यों कतराऊंगा ? आप कतरा रहे हैं। मैं तो सवालों से टकराने वाला आदमी हूं। भागने वाला नहीं। फिर कहा न , नया मुल्ला प्याज़ बहुत खाता है। आप वही नए मुल्ले हैं। तथ्य और तर्क की रोशनी में बात करने का हामीदार हूं। वैचारिक हठ और पूर्वाग्रह के तहत कोई बात नहीं करता। दिन को दिन कहने का अभ्यस्त हूं। रात को रात। हठ और पूर्वाग्रह के तहत दिन को रात कहने की कुलत नहीं है। बाक़ी दिन को रात कहने के अभ्यस्त हो चले स्वप्निल जी ने आप को मशविरा दे ही दिया है , लुत्फ उठाइए। तो लुत्फ उठाइए। मैं तो भरपूर उठा रहा हूं। मौज में रहिए , टेंशन में नहीं। निजी तौर पर ज्योतिष में शायद यक़ीन न करने वाले स्वप्निल जी ने इस पोस्ट में एक साथ दो काज किए हैं। एक तो इन गिद्धों के मार्फ़त अपने दुःख का इजहार किया है। दूसरे , अपने समानधर्मा दोस्तों का ईगो मसाज भी। कि मुट्ठी ताने , कांख छुपाए सही हम भी अभियान में हैं। पर हम जैसों को लुत्फ उठाने का बहाना भी अनजाने ही दे गए हैं। यह भी गुड है !


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आलम यह है कि कुछ तो अपनी अतिशय बौद्धिकता प्रमाणित करने के फेर में साइकेट्रिक वार्ड में भर्ती होने लगे हैं। यह मूर्ख नहीं जानते कि यह सारे गिद्ध असल में अयोध्या के राम मंदिर पर बुरी नज़र लगाने वाले कलयुगी रावणों को चोंच मार-मार कर नष्ट करने के लिए इकट्ठा हो रहे हैं।


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चौदह बरस वनवास के बावजूद राम आजिज नहीं हुए इस अयोध्या से। जिस अयोध्या ने वनवास दिया , लौट कर आए , उस अयोध्या ही। कवि कुंवर नारायण भी इसी अयोध्या के हैं। यतींद्र मिश्र भी यहीं रहते हैं। और भी तमाम लोग। इतना कुछ बदल गया पर स्वप्निल जी की यातना नहीं बदली। हमारा हौसला देखिए कि हम अयोध्या में हैं , ऐसे कह रहे हैं , गोया नरक भोग रहे हों। ध्वनि ऐसी , जैसे कैकेयी राम का पुन: वनवास मांग रही हो। राम का भव्य मंदिर में लौटना , भा नहीं रहा , स्वप्निल जी को। अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डा , रेलवे स्टेशन , भव्य बस स्टेशन , दुनिया भर से अयोध्या का कनेक्ट होना , अयोध्या का चतुर्दिक विकास सब स्वाहा है , स्वप्निल जी के इस दुःख के आगे। भगवान ऐसा दुःख भी किसी को न दें। किसी कवि को तो हरगिज़ नहीं।


[ एक मित्र की पोस्ट पर विभिन्न मित्रों से वाद-विवाद-संवाद का लुत्फ़।  ]


राम मंदिर और चंपत राय के बहाने कुछ सयाने लोग और उन के निशाने

दयानंद पांडेय 

मोदी वार्ड के मुट्ठी भर मरीज अयोध्या में राम मंदिर के निर्माण से डायरिया के शिकार हो चले हैं। हजम नहीं हो रहा मंदिर। बस मां-बहन की गाली सीधे-सीध नहीं उच्चार पा रहे हैं क्यों कि राम की आस्था से तो वह भी संलग्न हैं। राम उन के भी भगवान हैं। लेकिन उन की भाव-भंगिमा और शब्दों का भाव बिलकुल यही है। एक मित्र की वाल पर उन की पोस्ट पर मेरा प्रतिवाद और प्रतिवाद में आए अन्य प्रतिवाद पर भी मेरे कुछ प्रतिवाद दर्ज हैं। आप अवलोकन कर सकते हैं और आनंद का भान कर सकते हैं :


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चंपत का अर्थ हम सभी जानते हैं , आप भी। लेकिन आप की मंशा जानते हुए , चंपत का शाब्दिक अर्थ भी प्रस्तुत है , रेख्ता के मुताबिक़। फिर जिस चंपत राय की आप ताज़पोशी करते हुए करवाना चाहते हैं , चंद लोग चाह कर भी कर नहीं पा रहे हैं। रामसागर शुक्ल जी भी क्षणिक आनंद ले कर ख़ुश हो गए हैं और फिर खामोश ! इसी से अपने प्रश्न की पावनता की पहचान कर लीजिए। फिर भी उस चंपत राय के जीवन के बारे में कुछ सूचनाएं प्रस्तुत हैं , जो कहीं अन्य से साभार प्रस्तुत है। हालां कि यही सब करते-करवाते कांग्रेस और वामपंथी पार्टियां दफ़्न हो चुकी हैं। आज की तारीख़ में कांग्रेस और वामपंथी पार्टियां अपनी यह बीमारी छुपाती फिर रही हैं। न्यौता मांग रही हैं। गिड़गिड़ा रही हैं। फिर भी शुभकामनाओं सहित , सूचना ग्रहण करें और अपने आनंद का भी आनंद लें। जानें कि बड़े नसीब से चंपत राय , राम काज के लिए उपस्थित होते हैं। जटायु , शबरी और गिलहरी को याद करते हुए इस चंपत राय को भी याद करेंगे तो और आनंद आएगा। जान लेंगे कि चंपत राय हास्य-व्यंग्य का विषय नहीं हैं। कोलकाता के कोठारी बंधु को लोग इतने बरस बाद भी कैसे याद कर रहे हैं , यह जान लेने में भी नुक़सान नहीं है। [ क्रमशः ]


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कौन है ये चम्पतराय.?? 🌷⛳

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1975 इँदिरा गाँधी द्वारा थोपे आपातकाल के समय बिजनौर के धामपुर स्थित आर एस एम डिग्री कॉलेज में एक युवा प्रोफेसर चंपत राय, बच्चों को फिजिक्स पढ़ा रहे थे, तभी उन्हें गिरफ्तार करने वहां पुलिस पहुंची क्योंकि वह संघ से जुड़े थे।

अपने छात्रों के बीच बेहद लोकप्रिय चंपत राय जानते थे कि उनके वहाँ गिरफ्तार होने पर क्या हो सकता है।

पुलिस को भी अनुमान था कि छात्रों का कितना अधिक प्रतिरोध हो सकता है।

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प्रोफ़ेसर चंपत राय ने पुलिस अधिकारियों से कहा, आप जाइये में बच्चों की क्लास खत्म कर थाने आ जाऊँगा।

पुलिस वाले इस व्यक्ति के शब्दों के वजन को जानते थे अतः वे लौट गए।

क्लास खत्म कर बच्चों को शांति से घर जाने के लिए कह कर प्रोफेसर चंपत राय घर पहुँचे, माता पिता के चरण छू आशीर्वाद लिया और लंबी जेल यात्रा के लिए थाने पहुंच गए।

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18 महीने उत्तर प्रदेश की विभिन्न जेलों में बेहद कष्टकारी जीवन व्यतीत कर जब बाहर निकले तो इस दृढ़प्रतिज्ञ युवा के आत्मबल को संघ के सरसंघचालक श्री रज्जू भैया ने पहचाना और श्री राममंदिर की लड़ाई के लिए अयोध्या जी को तैयार करने का जिम्मा उनके कंधों पर डाल दिया।

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चंपत राय ने अपनी सरकारी नौकरी को लात मार दी और राम काज में जुट गए।

वे अवध के गाँव गाँव गये हर द्वार खटखटाया।

स्थानीय स्तर पर ऐसी युवा फौज खड़ी की जो हर स्थिति से लड़ने को तत्पर थी।

अयोध्या के हर गली कूँचे ने चंपत राय को पहचान लिया और हर गली कूंचे को उन्होंने भी पहचान लिया।

उन्हें अवध का इतिहास, वर्तमान, भूगोल की ऐसी जानकारी हो गई कि उनके साथी उन्हें "अयोध्या की इनसाइक्लोपीडिया" उपनाम से बुलाने लगे।

बाबरी ध्वंस से पूर्व से ही चंपत राय जी ने राम मंदिर पर "डॉक्यूमेंटल एविडेंस" जुटाने प्रारम्भ किये।

लाखों पेज के डॉक्यूमेंट पढ़े और सहेजे, एक एक ग्रंथ पढ़ा और संभाला उनका घर इन कागजातों से भर गया, साथ ही हर जानकारी उंन्हे कंठस्थ भी हो गई।

के. परासरण जी और अन्य साथी वकील जब जन्मभूमि की कानूनी लड़ाई लड़ने के लिए मैदान में उतरे तो उन्हें अकाट्य सबूत देने वाले यही व्यक्ति थे।

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6 दिसंबर 1992 को मंच से बड़े बड़े दिग्गज नेता कारसेवकों को अनुशासन का पाठ पढ़ा रहे थे।

तमाम निर्देश दिए जा रहे थे।

बाबरी ढांचे को नुकसान न पहुचाने की कसमें दी जा रहीं थीं, उस समय चंपत राय जी मंच से कुछ दूर स्थानीय युवाओं के साथ थे।

एक पत्रकार ने चंपत राय से पूछा?

"अब क्या होगा?"

उन्होंने हँस कर उत्तर दिया

"ये राम की वानर सेना है, सीटी की आवाज पर पी टी करने यहां नहीं आयी...

ये जो करने आयी है करके ही जाएगी"

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इतना कह उन्होंने एक बेलचा अपने हाथ में लिया और बाबरी ढांचे की ओर बढ़ गये, फिर सिर्फ जय श्री राम का नारा गूंजा और... इतिहास रचा गया।

आदरणीय चंपत राय को यूं ही राम मंदिर ट्रस्ट का सचिव नहीं बना दिया गया है।

उन्होंने रामलला के श्रीचरणों में अपना सम्पूर्ण जीवन अर्पित किया है। प्यार से उन्हें लोग "रामलला का पटवारी" भी कहते हैं। यह व्यक्ति सनातन का योद्धा है। कोई मुंह फाड़ बकवास करता कायर नहीं... [ क्रमश : ]

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बाबरी ध्वंस के मुकदमों में कल्याण सिंह जी के बाद चंपत राय ने ही अदालत और जनसामान्य दोनों के सामने सदैव खुल कर उस घटना का दायित्व अपने ऊपर लिया है। चम्पत राय जी कह चुके हैं, जैसे ही राममंदिर का शिखर देख लेंगे युवा पीढ़ी को मथुरा की ज़िमेदारी निभाने को प्रेरित करने में जुट जाएंगे"।

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चंपत राय जी धर्म की छोटी से छोटी चीजों का ध्यान रखने वाले तपस्वी और विद्वान हैं।

एक बार वे किसी काम से काशी में किन्हीं के यहां रुके, तब रात्रि में देखा तो पाया कि बैड का डायरेक्शन कुछ ऐसा था कि सोते हुए पैर दक्षिण की तरफ हो जा रहे थे, उन्हें एक रात को भी यह स्वीकार नहीं था, रात में ही उन्होंने बैड का डायरेक्शन ठीक करवाया, तभी सोए।

जो धोती कुर्ता पहनकर भारत का गाँव गाँव नापने वाला व्यक्ति अपने निजी जीवन में हिन्दू जीवनचर्या की छोटी छोटी बातों का हठ के साथ पालन करता है वह श्रीराममंदिर के संदर्भ में किस हद तक विचारशील और जुझारू होगा, समझा जा सकता है।

वास्तव में इनपर उंगली उठाने वाले इनकी पाँव की धूल समान भी नहीं....।


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उम्मीद है कि चंपत का अर्थ कुछ समझ आ गया होगा। कुछ कसर रह गई हो तो कृपया बताएं , शंका समाधान आगे भी करने का प्रयास करुंगा।


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आप शायद इन्हीं चंपत राय का आनंद लेने में संलग्न हैं। है न ?


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आडवाणी या जोशी नहीं बुलाए गए हैं , इस बात को कहने का कोई आधार भी है या मोदी वार्ड की सर्वकालिक बीमारी का प्रदर्शन मात्र है। राम तो सब के हैं पर ख़बरों के मुताबिक़ बुलाया तो ऐसे-ऐसे लोगों को भी गया है जो घोषित रुप से राम के नहीं हैं। राम से दिली नफ़रत है , जिन्हें , उन्हें भी बुला लिया गया है। फिर आडवाणी और जोशी तो राम के लिए सर्वस्व लुटा देने वालों में हैं। अधिकृत ख़बरों के मुताबिक़ आडवाणी , जोशी भी बुलाएं गए हैं। ख़बरें बताती हैं कि आठ हज़ार लोगों को बुलाया गया है। सोनिया गांधी को भी। उस सोनिया , जिन से संसद भवन परिसर में रिपोर्टरों ने पूछा , बुलाया गया है , अयोध्या जाएंगी ? सवाल की नोटिस लिए बिना तेज़ी से निकल गईं। ऐसे जैसे पांव नाबदान में पड़ गया हो। ईश्वर , अल्ला तेरो नाम , सब को सन्मति दे भगवान ! सहिष्णुता की इस से बढ़िया मिसाल सोनिया दे भी नहीं सकती थीं। बाक़ी मोदी वार्ड के मरीजों को क्या कहना , क्या सुनना ! हक़ीम लुकमान के पास भी नो इलाज ! एक से एक सीताराम हैं। 2024 ? अरे बीमारी इसी तरह बढ़ती रही तो 2029 में भी कोई वैक्सीन मिलने के आसार नहीं दिखते। बड़ा मासूम सा यह सवाल भी है कि कौन वाले राय हैं ? जाहिर है , बंगाली नहीं हैं तो भूमिहार भी हो सकते हैं और कायस्थ भी। मोदी वार्ड के मरीजों से आर्थिक मदद ले कर एक शोध पीठ बनवाइए , शोध करवा लीजिए। कुछ तो आराम मिलेगा ही। काम भी।

आमीन !


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तथ्य और मोदियापा का फ़र्क़ समझ में आता भी है ? चुनौती दे कर कह रहा हूं , एक भी तथ्य ग़लत साबित कर दीजिए। लिखना और सार्वजनिक जीवन छोड़ दूंगा।


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अपनी बात कहने का अधिकार हर किसी को है। बात तथ्य की , की है। हुज्जत की नहीं। मोदी ने क्या कहा , किस ने क्या सुना , मेरा उस से कोई सरोकार फिलहाल यहां बिलकुल नहीं है। और मैं न मोदी हूं , न मोदी का प्रवक्ता। अपनी बात से मतलब है। मोदियापा के आपत्तिजनक आरोप पर प्रतिवाद किया है। तथ्य से बात करने का हामीदार हूं।


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फ़िलहाल वाद-विवाद-संवाद जारी है !

Friday, 8 December 2023

विश्वास के प्यास की परवाज़ में डूबी सम्मान और समानता का एकांश ढूंढती कविताएं

दयानंद पांडेय 



एक ख़त तुम्हारे नाम में कुछ ख़त हैं। इन ख़तों में तहरीरें हैं। तहरीरें अलग-अलग हैं। पर ख़ता एक ही है : मुहब्बत। ख़त जैसे किसी रेगिस्तान में भटकते हुए जल-जल जाते हैं। पर ख़त की तहरीर नहीं जलती। कभी नहीं जलती। लेकिन मुहब्बत का कोई मुहूर्त फिर भी नहीं है। न इब्तिदा है , न अंजाम। बस प्यार का जाम है। प्यार के पैमाने में छलकते टेढ़े-मेढ़े रास्ते और उलझे हालात हैं। रिश्तों के फ़ैसलों से उपजे फ़ासले हैं। कम से ज़्यादा , ज़्यादा से कम की शरारत और शराफ़त के कंट्रास्ट में डूबा नेह है। नेह की सिलवट में सनी सांस के उच्छवास में लथपथ खिड़की पर चाय की दो प्याली बीच में रख कर मौन की भाषा की पतवार है। कैक्टस को कुचल-कुचल कर कागज़ की सतह पर रातरानी उगाती हुई। हर्फ़-हर्फ़ में महबूब की मुहब्बत को महकाती हुई। आध्यात्मिकता की हद तक जाती प्यार की पुरवाई में बहती माशूक़ा राधा और मीरा का रूपक रचती हुई पहचान लिए जाने की अकुलाहट में अफनाई हुई इन तहरीरों की कोई तरतीब नहीं है। बेतरतीबी की अजीब सी शिनाख़्त है। उबाल है। बदहवासी है। इसी लिए एक ख़त तुम्हारे नाम में सत्या सिंह की यह कविताएं विश्वास के प्यास की परवाज़ में डूबी सम्मान और समानता का एकांश ढूंढती कविताएं हैं। प्रेम की ऊष्मा में आत्मीयता की तलाश करती कविताएं हैं। इन कविताओं में ऊष्मा भी बहुत है। ऊर्जा भी बहुत। बिजली जैसी चमक लिए। सागर जैसी तड़प लिए। बारिश की प्रतीक्षा में विकल ऐसे जैसे कोई धरती हो। 

ख़तनुमा इन कविताओं में समाई प्यास दरअसल चातक की प्यास नहीं है। एक ठगी और लुटी हुई स्त्री की प्यास है। रेगिस्तान में जल की तलाश में भटकती हुई स्त्री की प्यास। रेत पर मचलती सूखी लहरों  को देख यह कविताएं जल तलाशती हुई अहसास कराती हैं कि जल यहीं कहीं हैं। भूल जाती हैं यह कविताएं कि रेत पर लहरें सिर्फ़ जल की ही नहीं , वायु की भी होती हैं। हवाएं भी रेत पर लहरें बनाती-मिटाती रहती हैं। हालां कि हवाएं भी जल लिए हुए होती हैं। पर प्यार है कि मानता ही नहीं। मानता है कि रेत है तो ज़रुर कहीं आस-पास जल भी है। मृगतृष्णा इसे ही तो कहते हैं। प्यार इसे ही तो कहते हैं। सत्या सिंह लिखती हैं :

तुम अभी अपनी 

छत पर आओ ना....

मैं भी अपनी छत पर हूं 

आज शायद पूर्णिमा है 

पूरा चांद नज़र आ रहा है 

चलो साथ में 

चांद देखते हैं 

तुम अपने शहर से 

मैं अपने शहर से 

एक ख़त तुम्हारे नाम की कविताओं में प्रेम की पूर्णमासी ऐसे ही उतरती मिलती रहती है। भरीपुरी। शहर भले अलग-अलग हों पर प्रेम की छत का संयोग बनता रहता है। यह कहती हुई :

मैं तुम्हारे साथ 

दौड़ तो नहीं सकती 

हां 

मगर 

तुम्हारी यादों के सहारे 

ज़रूर चलूंगी 

इश्क़ का नाम एहसास रखती आभास की बारिश में डूबी सत्या की कविताएं बेपरवाही की डोर में सम्मान की सुई से माला गूंथती हुई संतोष के सागर में जैसे डूबने के लिए अभिशप्त हैं। यादों की गुफ़्तगू में मिलने की आरजू में दिल खोल कर बात करने को आतुर मिलती हैं। मृगतृष्णा की मारी हिरनी सी उछाल मारती यह कविताएं बिना किसी वादे , बिना किसी कसम के सिर उठा कर स्वाभिमान से चलने की तहरीर लिखती चलती हैं। 

कविता में ख़त है कि ख़त में कविता। ठीक वैसे ही जैसे भूषण ने लिखा है : "सारी बीच नारी है कि नारी बीच सारी है। नारी ही की सारी है कि सारी ही कि नारी है।" भूषण के यहां यह संदेह अलंकार है पर सत्या सिंह के यहां अगर कहूं कि प्रेम अलंकार है तो अतिश्योक्ति न होगी। प्रेम पाग में पगी कविताएं ख़त में ऐसे खनकती मिलती चलती हैं गोया किसी स्त्री के हाथ में कांच की चूड़ियां हों। किसी स्त्री के दबे पांव में सहसा बज गई पायल हों। अलग बात है कि पायल के गुम होने और चूड़ियों के टूटते रहने का पता भी देती चलती हैं सत्या सिंह की यह कविताएं। ताबीज़ के मानिंद आयतों से बंधी और ज़मीर के ज़ेवर पहने मिलन और विरह से परे एक नया ही वातायन बुनती हैं। 

ऐसे जैसे कोई स्त्री किसी सपने में स्वेटर बुने किसी दुधमुंहे के लिए। और जागने पर न स्वेटर मिले , न दुधमुंहा। अजीब कश्मकश है। अजीब गरमाहट है। अजीब आस और अजीब प्यास है यह। मछली की तरह नहीं , मन की तरह छटपटाती सत्या सिंह की यह कविताएं ख़त की ख़ैरियत में भले हैं पर किसी ख़ैरियत का बयान नहीं बांचतीं।  बल्कि बेकली का गान गाती आंसुओं की आह में काजल बहाती किसी की प्रतीक्षा का आख्यान रचती हैं। प्रतीक्षा इन कविताओं में बहुत प्रबल है। गो कि इस प्रतीक्षा का हासिल फिर भी सिफर है। इसी लिए स्त्री अपने नदी होने की यातना बांचती है कि सागर नहीं थी , सारा दर्द समेटती कैसे ? अमलताश जैसी रंगीन ज़िंदगी की आस में यादों की गुल्लक फोड़ती सत्या सिंह की यह कविताएं प्रेम के इस अंतिम सत्य पर आ कर ठहर जाती हैं : 

बस एक तुम मिले 

और ज़िंदगी 

मुहब्बत बन गईं 

ऐसे जैसे ख़त के जल जाने के बावजूद , न जलने वाली तहरीर की यही इंतिहा है। ख़त के तहरीर की तहरीक़ यही है। सम्मान और समानता का एकांश यही है। एक ख़त तुम्हारे नाम की कविताओं का पैग़ाम यही है। सत्या सिंह की कविताओं का कुलनाम और अंजाम यही है। प्रेम , प्रेम , सिर्फ़ प्रेम। दौड़ नहीं सकने की लाचारी के बावजूद प्रेम। अथाह प्रेम में डूबी यह कविताएं ख़त नहीं , ख़िताब हैं मनुष्यता का।

  

[ सौभाग्य प्रकाशन , दिल्ली द्वारा प्रकाशित सत्या सिंह के कविता-संग्रह एक ख़त तुम्हारे नाम की भूमिका। ]

Thursday, 7 December 2023

तो भाजपा में मोदी के बाद का बा ?

 दयानंद पांडेय 

कौन कहां का मुख्यमंत्री बनेगा , यह कहना अभी कठिन है। पर शिवराज सिंह चौहान , रमन सिंह और वसुंधरा राजे सिंधिया 2024 में मोदी के आगामी मंत्रिमंडल का हिस्सा ज़रुर होंगे , यह मेरा स्पष्ट आकलन है। राजनीति और रणनीति अपनी जगह है पर सवाल है कि चुनाव हार कर भी धामी उत्तराखंड के मुख्यमंत्री बन सकते हैं तो मध्य प्रदेश में शिवराज सिंह चौहान को भी मुख्यमंत्री क्यों नहीं बनाना चाहिए ? 

लेकिन समय रहते शिवराज मोदी के मन की बात को समझ गए। सो बड़ी विनम्रता से लोकसभा चुनाव में मध्य प्रदेश के 29 कमल मोदी के गले में डालने का मंत्र पढ़ने लगे हैं। यह वही शिवराज सिंह चौहान हैं जिन्हें कभी लालकृष्ण आडवाणी ने 2014 में नरेंद्र मोदी के समांनांतर रखा था बतौर प्रस्तावित प्रधानमंत्री। शिवराज भी आडवाणी के इस कहे में ज़रा फिसले तो लेकिन तब भी बहुत जल्दी ही अपने को संभाल ले गए थे। 

फ्रस्ट्रेटेड रवीश कुमार के विश्लेषण में भी इस बार वह नहीं फंसे कि मध्य प्रदेश में मोदी नहीं , शिवराज सिंह चौहान की लहर थी। लाडली बहना की लहर थी। शिवराज जानते हैं 17 साल लगातार कम नहीं होते किसी मुख्यमंत्री के लिए। वह भी मोदी राज में। वहीं वसुंधरा राजे सिंधिया मोदी के मन की बात पढ़ने में चूक गईं। भूल गईं पुराना नारा : मोदी तुझ से बैर नहीं , रानी तेरी ख़ैर नहीं। विधायक बटोरने लगीं। विधायकों की बाड़ेबंदी करने लगीं। पर जल्दी ही भाग कर दिल्ली आ गईं , मोदी शरणम गच्छामि के लिए ! 

राजनीति और रणनीति से भी ऊपर भाजपा ही नहीं , भारत में इन दिनों मोदी नीति का जलवा है। मोदी नीति कोई लिखित नीति नहीं , मन की बात वाली नीति है। जो जीता वही मोदी है , वाली बात है। फ़िलहाल तो चुनाव में , ख़ास कर मध्य प्रदेश के चुनाव में मुस्लिम वोटों का रुझान बताता है कि 2024 में लोकसभा चुनाव एकतरफा होने जा रहा है। मध्य प्रदेश से मिले आंकड़े बताते हैं कि कांग्रेस को मुस्लिम वोट एकमुश्त मिले हैं। बंटे नहीं हैं। 

मुस्लिम वोट का ध्रुवीकरण जब होता है , बंटता नहीं है , स्वाभाविक रुप से हिंदू वोट का भी ध्रुवीकरण हो जाता है। मोदी और भाजपा के पक्ष में हो जाता है। बिना किसी प्रचार के। बिना कुछ कहे। बिना किसी ऐलान के। मुस्लिम वोटर बीच में अपनी रणनीति के तहत जो भाजपा को जहां हराता दिखे , उसे वोट दे रहा था। लेकिन अब उसे कांग्रेस यह समझा देने में सफल हो गई है कि भाजपा को सिर्फ कांग्रेस ही हरा सकती है। मुसलमानों की इसी समझ के चक्कर में कांग्रेस की जातीय जनगणना वाली रणनीति फुस्स हो गई। और वह खेत रही। 

मोदी और अमित शाह ने बहुत मेहनत कर के मंडल और कमंडल के वोटर को एक साथ खड़ा किया है। एकजुट किया है। कांग्रेस और उस के साथी दल इसी लिए जातीय जनगणना के मार्फ़त मंडल और कमंडल वोट अलग-अलग करने की नीति पर चले। लेकिन मध्य प्रदेश , छत्तीसगढ़ और राजस्थान में यह चाल नहीं चल पाई। मुंह की खा गई कांग्रेस। और जो सिलसिला इसी तरह चला तो तय मानिए कि उत्तर प्रदेश में आगामी लोकसभा चुनाव में सपा और बसपा पूरी तरह साफ़ हो जाएंगे। 

क्यों कि भाजपा के पास मंडल , कमंडल दोनों वोट होंगे। जब कि मुट्ठी भर यादव वोट सपा के साथ और मुट्ठी भर ही दलित वोट बसपा के साथ होंगे। जेनरल वोट के साथ सारे के सारे मुस्लिम वोट कांग्रेस के साथ। ऐसे में भाजपा और मोदी को तो वाकओवर मिलना ही है। कैसे और कौन रोक सकता है भला भाजपा और मोदी को। ई वी एम का तराना ? हरगिज नहीं। अगर कोई राजनीतिक पंडित कुछ और बता सकता हो तो ज़रुर बताए। 

हालां कि भाजपा जिस तरह मोदी नाम केवलम के जाल में फंसी है , भाजपा ही नहीं देश के लोकतंत्र के लिए भी बहुत शुभ नहीं है। यह ठीक है कि देश के अस्सी करोड़ लोगों को मुफ़्त राशन , मुफ़्त चिकित्सा बड़ी बात है। देश में चौतरफा तरक़्क़ी मन मोहती है। सड़कों का संजाल , एयरपोर्ट की बहार , बढ़िया रेलवे स्टेशन। कश्मीर में शांति। दुनिया में मोदी और भारत का डंका। विदेश नीति की चमक। सब कुछ सुंदर-सुंदर। चकाचक। यह भी तय है कि 2024 के लोकसभा चुनाव में 350 से ज़्यादा सीटें भी आएंगी। मोदी की लोकप्रियता के सुरुर में कोई कमी नहीं है। वामपंथियों और कांग्रेसियों को पागल बना कर कुर्ता फाड़ कर सड़क पर घूमने के लिए विवश कर देना भी दीखता है।

पर मोदी राजनीति की जिस राह पर चले पड़े हैं , यह वामपंथियों की राह है। स्टालिन , और माओ की राह है। तानाशाह और फासिस्ट की राह है। कि उन के आगे कोई नहीं। कांग्रेस की राह है। कि कोई गांधी परिवार के ख़िलाफ़ खड़ा नहीं हो सकता। तो भाजपा में भी कोई खुल कर अब मुख्यमंत्री पद की दावेदारी भी करने में लोग भयभीत है। सवाल यह भी है कि अभी तो नरेंद्र मोदी के सहारे भाजपा के दिन , सोने के दिन हैं , चांदी के दिन हैं। कोई दो मत नहीं। 

पर नरेंद्र मोदी के बाद भाजपा का क्या ? भाजपा में क्या ? जो उस एक गाने के बोल में पूछूं तो भाजपा में मोदी के बाद का बा ? 

कोई कह सकता है कि योगी। पर जानने वाले जानते हैं कि किसी बया की तरह योगी ने कांटों में अपना घोसला बना रखा है। आधा समय वह इन कांटों को अपने लिए सुगम बनाने में व्यस्त रहते हैं , आधा समय प्रशासन को साधने में। अपनी पसंद का एक मुख्य सचिव तक नहीं बना सके हैं योगी। कभी पी एम ओ में रहे सेवा विस्तार पाए नौकरशाह को , मुख्य सचिव बना रखा है , मोदी ने। योगी पर नकेल के लिए। 

उत्तर प्रदेश में एक समय का मुलायम राज याद आता है। मुलायम जब बसपा के समर्थन से उत्तर प्रदेश के दूसरी बार मुख्य मंत्री बने तो मुलायम के सचिव बने पी एल पुनिया। पुनिया मुलायम के सचिव ज़रूर थे पर कांशीराम के प्रतिनिधि पहले थे। कांशीराम ने मुलायम पर अंकुश रखने के लिए पुनिया को सचिव बनवाया था। अलग बात है यह पुनिया फिर मायावती के भी सचिव बने और फिर मायावती के गले की फांस भी। अंबेडकर पार्क सहित तमाम घोटाले में फंसा कर मायावती को ध्वस्त कर दिया। अब यही पुनिया , कांग्रेस में हैं। 

खैर , सवाल फिर-फिर वही तो भाजपा में मोदी के बाद का बा ? 


Friday, 24 November 2023

गहरे संवेदनशील उच्छ्वास से चंदन का लेप और मालकौंस राग में सनी तीर्थ सी समुज्जवल विपश्यना

 डा० रंजना गुप्ता 

‘विपश्यना’ का चरम यथार्थ’

देह, प्रेम में एक आवश्यक वस्तु है अनिवार्य नहीं, ये मेरा मानना है,पर देह के बिना तो कुछ भी संभव नहीं ! ‘शरीरमाद्यम खलु धर्म साधनम् '

देह हमारी वायवीय चुनौतियों के मध्य भी सदा से आ ही जाता है। संपूर्ण समर्पण प्रेम की एक थाती है। पर सृष्टि के संचालन के लिए संपूर्ण समर्पण बिलकुल आवश्यक नहीं है। स्त्री पुरुष की दैहिक संरचना इतनी गहन और परिपूर्ण है, इतनी दाहक और चुंबकीय है, इतनी मारक और विस्फोटक है, कि स्त्री पुरुष जहाँ भी एकांत में होते हैं, उन का प्राकृतिक आकर्षण अपना कार्य करने लगता है। इसी लिए स्त्री देह को अग्नि के समक्ष कहा गया है। प्रख्यात लेखक दयानंद पांडेय जी का वाणी प्रकाशन से अभी शीघ्र ही प्रकाशित हुआ उपन्यास ‘विपश्यना में प्रेम ’ अपनी ख्याति की ऊंचाइयों को आजकल छू रहा है। इस का तात्पर्य है, कि उन की यह कृति अपनी संपूर्णता में, कथात्मकता के अनिवार्य तत्वों के कारण, प्रस्तुतीकरण के लालित्य और शैली की विरलता आदि सभी समवेत औपन्यासिक गुणों से संपन्न होने से स्वयं में अद्भुत अवश्य है।

विनय और दारिया मुख्य दो पात्रों के मध्य घटित होने वाले इस कथा प्रसंग में बाक़ी पात्र लगभग गौण हैं। दैहिक आकर्षण को और दैहिक संबंधों को वर्णनात्मक शैली में रचते हुए प्रथम दृष्टि में यह उपन्यास कहीं कहीं वल्गर लगा मुझे, पर शीघ्र ही इसके साध्य या मंतव्य का बोध होते ही मन की भावना और धारणा दोनों पूर्णतः बदल गई।

संतानोत्पत्ति, ईश्वरीय विधान में स्त्री पुरुष संबंधों का लक्ष्य भी है और कारण भी ! प्राचीन काल में विवाह व्यवस्था ही इस हेतु निर्मित की गई, ताकि संयमित समाज, दैहिक आवश्यकताओं की नैतिक परिधि में रह कर पूर्ति भी कर सके और संतानोत्पत्ति द्वारा सृष्टि को आगे भी बढ़ा सके। प्रकृति का कार्य मनुष्य और सभी प्राणियों को संपादित करना ही है, ऐसी बाध्यता भी देह के कारण ही है। कोई विरला ही होगा, जो इस घाट न आया हो, या संन्यासी या फिर कोई महा मनस्वी ब्रह्मचारी !

प्राचीन काल में नि:स्संतान दंपति या राजाओं के लिए संतानोत्पत्ति के लिए एक प्रथा प्रचलित थी, जिसे नियोग कहते थे, महाभारत काल में इस विधि द्वारा ही पांडु, धृतराष्ट्र और विदुर जी का जन्म भी हुआ था। नियोग का सुंदर वृतांत इस विपश्यना उपन्यास में मिलता है। दयानंद जी ने इस विधि को आश्चर्य जनक रूप से विपश्यना के शिविर में क्रियान्वित किया। वास्तव में नियोग की व्यवस्था उन दंपत्तियों के लिए थी, जो किन्हीं कारणवश संतानोत्पत्ति में असमर्थ हैं, और कुल वंश चलाने के लिए संतान प्राप्ति के इच्छुक भी हैं। नियोग का नियम यह भी था, कि इसे आनंद हेतु न किया जाए , बल्कि संतानोत्पत्ति ही प्रथम और अंतिम लक्ष्य हो। पर यहां तो दारिया ने कुछ स्पष्ट ही नहीं किया। और नायक को अपने रूप यौवन के जाल में फंसा कर,अपनी देह के अनंतिम आनंद में ऊभ चूभ करने दिया। लेकिन उस का स्त्री मन अवश्य संयमित और पवित्र रहा, जो कार्य-कारण संबंध की पूर्ति के बाद दैहिक स्तर पर निष्प्रयोज्य हो गया। संयमित और निस्पृह भी ! 

विपश्यना शिविर जहां लोग मन को साधने का, सांसों को बांचने का लक्ष्य ले कर आते हैं, वहां पर यह साधना शिविर किसी की मौन कामना किंबहुना किसी की याचना शिविर में परिवर्तित सा हो जाता है। ये सब कुछ मात्र आनंद हेतु न हो कर किसी निर्भ्रांत प्रयोज्य हेतु जब होता है, तो विपश्यना की निर्विकार निष्काम साधना भी अकस्मात् पुष्पित और पल्लवित हो जाती है। धन्य होती है, दारिया भी ! जो गर्भ धारण की कामना से आ कर विपश्यना शिविर को कोई उज्ज्वल सा अर्थ दे जाती है। उपन्यास का अंत इतना मर्मभेदी, रोमांचक और पवित्र है, कि मन आनंद से विभोर हो उठता है। उपन्यास पढ़ते समय जो दैहिक मांसलता मन पर आरोपित हो कर सात्विक भावों पर थोड़ी प्रत्यंचा खींचती सी दिखी थी ,वह फिर अपने हव्य अर्थात् उपन्यास के परिपुष्ट ध्येय को पा कर परितृप्त हो जाती है। अंत में गंगा की धार सा पावन, उपन्यासकार का मंतव्य थोड़ा सा हिचकते नाक भौं सिकोड़ते मन के अनमनेपन पर भी, एक गहरे संवेदनशील उच्छ्वास से चंदन का लेप सा लगा जाता है !

विपश्यना शिविर के अविरल मौन की राजधानी में रची गई यह रचना मन को अंत में अभिभूत कर ही जाती है। घंटियां , चेतनाएं , सावधानियां  ,वर्जनाएं , निषेधाज्ञाओं के सारे पुल उस देह गंध की मदिर बाढ़ में बह जाते हैं। वास्तव में उस सागर मंथन से जो नवनीत निकला, वह तो शुद्ध बुद्ध प्रज्ञा ही था न ! सृजन साधना के कारण ही यह वासना भी मालकौंस राग बन जाती है, और तीर्थ सी समुज्जवल बन जाती है सारी कामुकता !

विनय एक माध्यम है इस उपन्यास में, उपन्यास की नायिका की लक्ष्य पूर्ति का ! संतान कामना का !

यही सहज भाव बोध का सत्य ही वास्तव में उपन्यास की सार्थकता है,और उपन्यास की आत्मा भी वही है, जिस बिंदु को दयानंद पांडेय जी ने उभारा है दैहिक संवादों में। मौन की मुखरता में। वासना के चरम आनंद में। यदि उस की परिणति और लक्ष्य दोनों इतने सत्य और शिव न होते, तो ये उपन्यास सुंदरम् भी कदाचित् नहीं होता !

दयानंद पांडेय अपने औत्सुक्य पूर्ण औपन्यासिक कथानक रचने के लिए और अपनी बेबाक़ पत्रकारिता के लिए जाने जाते हैं। उनकी कृतियां , ब्लॉग और फ़ेसबुक वाल उन का व्यक्तिगत चरित्र सब कुछ एक अनोखे तालमेल के साथ हमारे समक्ष उपस्थित होता है। वे दोहरी ज़िंदगी नहीं जी पाते। उन का जीवन दर्शन अपनी संपूर्ण मौलिकता के साथ समाज और परिवार में एक विराट सोच के साथ उपस्थित भी है।

मुझे उन के इस कृतित्व में कहीं प्रेम दृष्टिगत नहीं होता ! वास्तव में है भी नहीं। क्यों कि दारिया बहुत योजनाब्द्ध तरीक़े से अपनी मंशा को अपने ध्येय को पूर्ण करती है। उसे विनय से संतान के सिवा कुछ नहीं चाहिए। वह संतान के लिए ही विनय से रमण करती है ! संपूर्ण समर्पण और दैहिक प्रेम का लक्ष्य यहां महज़ दैहिक संतृप्ति नहीं, संतानोत्पत्ति है। इसी कारण उस का कार्य या मंतव्य सफल होते ही, वह अपने देश रुस अपने पति के साथ वापस चली जाती है। और हक़बकाये से विनय को सूचित करती है, पुत्र होने के बाद ! यदि प्रेम होता, तो वह अपने पति को छोड़ कर यहीं कहीं भारत में विनय के आसपास रहना चाहती। सो प्रेम तो नहीं है। हां , उस के प्रचंड पौरुष की लालसा में दारिया अवश्य उस के पास आई थी। और जहां तक विनय का प्रश्न है, वह अवश्य भटकता हुआ लगता है। गफ़लत उसे ही हुई। देहाकर्षण उसे ही था। धोखे में भी वही था। इसी लिए कहते हैं, न स्त्री को समझना बहुत कठिन है ! विनय पूर्ण रूप से सांसारिक व्यक्ति भी है। थोड़ा झटका लगता है उसे, जब दारिया जाने लगती है, पर शीघ्र ही वह संभल जाता है। अपने दैनिक जीवन में व्यस्त भी हो जाता है। यहां पर विपश्यना के मूल लक्ष्य से भी लोगों की भटकन रेखांकित हुई है। साधु-साधु कहना अलग बात है, साधु बनना बिलकुल अलग ! लोग शिविर में मन की शांति हेतु आते अवश्य हैं, पर विपश्यना के वास्तविक लक्ष्य को कितने ही लोग प्राप्त कर पाते हैं, या आज तक कर पाए हैं  ?

जीवन बहुत अद्वितीय है,अद्भुत है ! इस की नाना संभावनाओं, क्रियाकलापों, घटनाओं, दुर्घटनाओं, संयोगों, वियोगों को समझना समझाना असंभव है,और गुत्थियों को सुलझाना विकट असंभव ! 

वास्तव में चंचल मन सहज ही विकृतियों के दबाव में आ जाता है। स्थान, समय, नीति और अनीति देखने का उस के पास ह्रदय नहीं होता है। न समय होता है। उतावला सा मन अपनी बुनावट में वह सृष्टि के आदि से ही बैचेन सा है। मन ऐसा ही है। इसे साधने की अनेकों विधियां खोजी गईं। अनेक वर्जनाएं लादी गईं। और अनेक प्रतिबंध थोपे गए। पर मन तो मन है। टस से मस न हुआ, आज तक ! इसी मन की दुर्निवार शक्ति के कारण ही अनेक राजा भोगी बन गए , अनेक भोगी योगी ! 

ये मन का ही हठयोग है,कि तनिक सी देर में कभी धूप, कभी छाया बन कर हमें रिझाता है, तो कभी खिजाता भी है !

इसी मन की करतूत से विवश हुआ था विनय भी। वरना अपने परिवार में लगभग सुखी और समर्थ ही तो था वह। थोड़ी विसंगतियां , थोड़ी असहजता, और थोड़ी अन्मस्यकता से ऊबा हुआ विनय, इस मौन की राजधानी में आया तो। पर जब तक ध्यान की अवधारणा, सांसों का व्यतिक्रम समझता, तब तक देह धर्म ने मन के अनुशासन को मानने से इंकार कर दिया। और वह रूसी बाला के देह में विपश्यना की खोज में रम गया। तल्लीन हो गया। उसे अंदाज़ा भी नहीं था, कि उस का उपयोग किया जा रहा है। सदा पुरुष ने स्त्री का उपभोग किया, पर यहां स्थिति दूसरी है। एक स्त्री भरसक उस को , उस के ईमान और चरित्र से अपदस्थ कर रही थी। और उसे अपना उपभोग्य बना रही थी। पर विनय मात्र देहगंध में डूबा हुआ सत्यता की थाह नहीं पा सका। हालां कि उस ने किंचित् सफलतापूर्वक विपश्यना की साधना भी की थी !

अंत में उपन्यास कथ्य के विस्तार के साथ ही अत्यंत रोचक होता हुआ अपने चरम को प्राप्त होता है। कथावस्तु की बुनावट और शैली की मोहकता, ऐतिहासिक पृष्ठभूमि के मनोहारी संदर्भ के साथ प्रस्तुत होती है। लेखक अपनी लोकप्रिय लेखन शैली से चमत्कृत करता हुआ अपने दायित्व के निर्वहन के साथ ही उपन्यास को उस की संपूर्णता में जीते हुए जय का शंखनाद करते हुए आगे बढ़ता ही है, पर  तभी दारिया के एक फ़ोन से उस के एक वाक्यांश से, कथा की सारी परतें अचानक ही तात्कालिक विस्फोट के साथ ही उधड़ जाती हैं,और उपन्यास अपने औचक लेकिन स्तब्धकारी चरम को छू लेता है।

कहना नहीं होगा,कि दयानंद पांडेय जी का यह उपन्यास एक लघु उपन्यास होते हुए भी, इन की तमाम विराट रचनाधर्मिता पर भारी पड़ा है। सृजन का सुख भी लेखक के लिए यही है। बहुत कम ही कृतियां अमरत्व को प्राप्त होती हैं, और दयानंद पांडेय जी की ‘विपश्यना में प्रेम ’ इस अमरत्व की पूर्ण अधिकारी है।


विपश्यना में प्रेम उपन्यास पढ़ने के लिए इस लिंक को क्लिक कीजिए 


विपश्यना में विलाप 


समीक्ष्य पुस्तक :



विपश्यना में प्रेम 

लेखक : दयानंद पांडेय 

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन 

4695 , 21 - ए , दरियागंज , नई दिल्ली - 110002 

आवरण पेंटिंग : अवधेश मिश्र 

हार्ड बाऊंड : 499 रुपए 

पेपरबैक : 299 रुपए 

पृष्ठ : 106 

अमेज़न (भारत)
हार्डकवर : https://amzn.eu/d/g20hNDl


     

     

               





Tuesday, 21 November 2023

प्रेम जब देह की लिपि से लिखा जाता है

डॉक्टर सुरभि सिंह

विपश्यना में प्रेम पर स्त्री मनोविज्ञान के मद्दे नज़र  एक ज़रुरी नोट 

साहित्य के क्षेत्र में दयानंद जी का नाम किसी परिचय का मोहताज नहीं है। उन्होंने अनेक रचनाएं लिखी हैं। जिन्हें मैं  कृतियां कहना चाहती हूं।  पहले मैं ने उन की कम रचनाएं पढ़ी थीं लेकिन धीरे-धीरे उन की विभिन्न रचनाओं से और रचना शैली से परिचित होती चली गई। आज उन की रचना शैली और लेखन शैली के विषय में कुछ कहना चाहती हूं ।

उन के उपन्यास “विपश्यना में प्रेम” को पढ़ने के बाद मैं ने बहुत गहराई के साथ अनुभव किया कि दयानंद जी एक ऐसे लेखक हैं जिन्हें नारी  मन की बहुत गहरी समझ है। मेरे विचार से आज के पहले बहुत कम लोगों ने नारी मन को संवेदनात्मक अनुभूतियों के तहत समझने का प्रयास किया है। लेखक ही नहीं बल्कि लेखिकाओं ने भी बहुत कम समझा है। उन्हों ने उसके व्यक्तित्व के जिन बिंदुओं  का स्पर्श किया है उस तक  बहुत कम लोग  पहुंच पाएंगे । मेरी साहित्य यात्रा अभी इतनी समृद्ध नहीं है कि मैं दयानंद जी जैसे  लेखक की किसी रचना की समीक्षा कर पाऊं। इस लिए  इसे  समीक्षा नाम न दे कर बस  अपने विचारों की  अभिव्यक्ति कहना चाहती हूं ।

जब मैंने दयानंद जी की रचनाओं को पढ़ा तो उस में एक बात बहुत अधिक उभर कर सामने आई और वह थी नारी मन की शाश्वत कामनाएं और आदिम अनुभूतियां।

उन्हों ने उन बिंदुओं की बात की उन स्वाभाविक इच्छाओं और कामनाओं की बात की जिस की बात वह स्वयं करना चाहती थी और सदियों से वह दबा दी गई ।चाहे हम “विपश्यना में प्रेम” की नायिका दारिया की बातें करें चाहे किसी अन्य रचना की नायिका का जिक्र हो।

प्रेम सदियों से गंगा की पावन धारा के समान बहता रहा है। यह पावन धारा बहुत बार उच्छृंखल भी हुई है और जब वह उच्छृंखल हुई है तो उस ने पहाड़ों और चट्टानों को भी तोड़ दिया है । ईश्वर ने जब नारी और पुरुष दो शक्तियों को बनाया तो उनके मिलन की व्यवस्था भी की और उन का यह मिलन  किसी भी रूप में अनैतिक नहीं कहा जा सकता ।

जब दो लोग एक दूसरे से प्रेम करते हैं तो फिर उस प्रेम में कोई दूरी नहीं रह जाती है यदि कोई किसी का किसी  अनुचित फायदा नहीं उठा रहा है शोषण नहीं कर रहा है और उनके बीच मौन अनुबंधन हो चुका है तो फिर किसी तीसरे को बोलने का कोई अर्थ नहीं है। 

आज तक स्त्रियों को विभिन्न प्रकार की मान मर्यादाओं के पाठ लेखन की हर विधा में  सिखाए गए हैं।कभी उन की तुलना धरती से की गई है, कभी उन को देवी का रूप माना गया है और कभी उन को अन्नपूर्णा माना गया है । उसे गृह लक्ष्मी कहा गया है लेकिन कभी भी किसी ने यह देखने का प्रयास नहीं किया कि उस का मन भी  जीव वैज्ञानिक तरीके से निर्मित है। जो रासायनिक प्रक्रियाएं पुरुष के मन में घटित होती हैं, और जिन्हें समाज “स्वाभाविक” कह कर छुट्टी कर लेता है , वही उस के मन में भी सिर उठाती हैं।

हारमोंस की स्वाभाविक प्रक्रियाओं से वह भी गुजरती है । अपने मन में दबी  इच्छाओं के उद्दाम आवेग से वह भी जूझती है। उस के पास उस की अभिव्यक्ति का माध्यम नहीं है। ऐसी उद्याम कामनाओं को स्वर देने का कार्य दयानंद जी ने अपनी रचनाओं के माध्यम से  किया । 

जब आप उन की रचनाओं को पढ़ाना शुरू करेंगे और उस में प्रेम के खुलेपन को देखेंगे तो एक बार के लिए आप को झटका लगेगा। आप को लगेगा कि आप क्या पढ़ रहे हैं लेकिन जब आप समझना शुरू करेंगे तब आप को लगेगा इतना निर्दोष और इतना मासूम लेखन कभी किसी ने नहीं किया । सच बात तो यह है कि नारी मन  की स्वाभाविक इच्छाओं को एक पुरुष के द्वारा संवेदना के धरातल पर देखा जाना एक बहुत बड़ी पहल है ।

बहुत दिनों से सोच रही थी कि मैं लिखूं तो कैसे लिखूं? क्या लिखूं? कई सारी बातें मन में उठ रही थीं, फिर लगा कि जब लिखना है तो बिल्कुल लिखना है।

मैं बहुत से लोगों से मिलती रहती हूं अनेक महिलाओं से उन की दिल की  बातें सुनी हैं। मैं ने उन का अकेलापन देखा है। उन का अकेलापन सुना है। उन का अवसाद और तकलीफ़ महसूस की है। और ऐसे में जब मैं दयानंद जी के लेखन का स्मरण करती हूं या उन के पात्रों का स्मरण करती हूं तो लगता है कि शायद ये वही पात्र हैं जो      अविकसित रह गए हैं। अनकहे रह गए हैं। उन को विकास का अवसर मिलना चाहिए था। उन्हें कहने का अवसर मिलना चाहिए था। जब आप “विपश्यना में प्रेम “ पढ़ेंगे तब आप को समझ में आएगा कि प्रेम जब देह की लिपि से लिखा जाता है तब भी वह बहुत सुंदर होता है और  एकाग्रता की सीमा तक पहुंच जाता है ।

प्रेम इस संसार की सब से प्यारी और शाश्वत अनुभूति है। और यह भी सत्य है कि जब दो विपरीत लिंगीय लोग  एक दूसरे से प्रेम करते हैं तो वह प्रेम केवल मानसिक या भावनात्मक नहीं रह जाता वह शरीर के बिना अधूरा है । यह एक ऐसा सत्य है जिस को स्वीकारना ही पड़ेगा क्यों कि बिना शारीरिक अनुभूति के प्रेम अपनी पूर्णता को नहीं प्राप्त हो सकता इस लिए इस रचना को जब आप पढ़ेंगे तब आप को एहसास होगा कि नारी मनोविज्ञान साथ-साथ प्रेम की सच्ची संवेदना भी इस उपन्यास में रची गई है। इस में एक अलौकिकता है।  एक मदमस्त अल्हड़पन है। एक बेलगाम भाव है। और एक ऐसी भाषा है जो सिर्फ़ सुनना जानती है। कहना जानती है। और अपनी बात बेबाक हो कर कह देती है ।

यह जन्म सिर्फ़ एक बार मिला है। पुनर्जन्म की अवधारणा निश्चय ही होती होगी। किंतु अपने स्वाभाविक कर्म करते हुए बिना किसी पाप कर्म में प्रवृत्त हुए यदि अपने मन और अपने तन को खुश रखा जा सकता है तो इस से बड़ी कोई बात नहीं है। ऐसा ही मुझे दयानंद पांडेय जी के लेखन में अनुभव होता है। आप से अनुरोध है आप इस उपन्यास को अवश्य पढ़ें । इस को पढ़ने के बाद आप को अनुभव होगा कि आपने बहुत कुछ समझा है ।


विपश्यना में प्रेम उपन्यास पढ़ने के लिए इस लिंक को क्लिक कीजिए 


विपश्यना में विलाप 


समीक्ष्य पुस्तक :



विपश्यना में प्रेम 

लेखक : दयानंद पांडेय 

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन 

4695 , 21 - ए , दरियागंज , नई दिल्ली - 110002 

आवरण पेंटिंग : अवधेश मिश्र 

हार्ड बाऊंड : 499 रुपए 

पेपरबैक : 299 रुपए 

पृष्ठ : 106 

अमेज़न (भारत)
हार्डकवर : https://amzn.eu/d/g20hNDl


     

     

               






Saturday, 18 November 2023

विपश्यना में प्रेम : गद्य में पद्य की छांव

 आशीष कुलश्रेष्ठ 


               'चुप चुप सी है ज़िंदगी, चुप चुप से हैं लोग।

               विपश्यना में प्रेम का,  छिप कर होता रोग।।'                                                 

विपश्यना का अर्थ होता है ' शांत चित्त से अपने अंतर्मन में झांकना '। अवध नगरी से प्रेम नगरी रेलगाड़ी से आते हुए मैंने 'विपश्यना में प्रेम' उपन्यास को पढ़ना प्रारम्भ किया। उपन्यास पढ़ते हुए रेलगाड़ी मेरे लिये विपश्यना का केंद्र बन चुकी थी, नितांत कोलाहल से दूर। हां , यही माद्दा रखती है श्री दयानंद पांडेय जी की लेखनी। निर्भीक  पत्रकारिता, साहित्य का पर्याय बन चुके श्री पांडेय जी किसी परिचय के मोहताज़ नहीं हैं। 75 से अधिक कृतियों के सृजनकर्ता, अपने ब्लॉग 'सरोकारनामा' के  माध्यम से लाखों पाठकों तक अपनी पहुंच रखने वाले लेखन के सशक्त हस्ताक्षर श्री पांडेय जी झूठ के अंधेरे में सच की लौ जलाये रखते हैं। भले ही इस आहुति में स्वयं को जला बैठें, पर झूठ को झूठ और सच को सच लिखने वाला ही निर्भीक पत्रकार अपना विशिष्ट स्थान बना पाता है और यह स्थान श्री दयानंद पांडेय जी को प्राप्त है।

श्री पांडेय जी की लेखनी का मैं प्रशंसक रहा हूं। जब इस उपन्यास की समीक्षा लिखने की बात आई तो मैं संभ्रम में था कि एक कवि भला कैसे सुचिंतित समीक्षा लिख पाएगा , लेकिन यह दुष्कर कार्य मेरे पाठक मन की दृष्टि से बन पड़ा है।

वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली से प्रकाशित श्री पांडेय जी का उपन्यास 'विपश्यना में प्रेम' का प्रारंभ बहुत ही शांत वातावरण से होता है, जैसे कि, "वह जैसे कोई चुप की राजधानी थी। आदमी तो आदमी पेड़ , पौधे, फूल, पत्ते, प्रकृति, वनस्पति सब चुप थे। जाने क्यों कोई चिड़िया भी नहीं चहकती थी। न भीतर की आवाज़ बाहर जाती थी, न बाहर की आवाज़ भीतर। अगर कोई आवाज़ कभी-कभार सुनाई देती थी तो आचार्य की। या टेप पर आचार्य के निर्देश। निर्देशों की झड़ी सी। या फिर घंटे या घंटी की। जो भी कुछ कहना-सुनना था, आचार्य कहें, आचार्य सुनें। या फिर घंटा कहें या रुनझुन बजती घंटी। या फिर लिखित निर्देश थे, जिन को पढ़ कर मान लेना और जान लेना था। लेकिन उस का इज़हार नहीं करना था। संकेतों में भी नहीं। आंखों-आंखों या संकेतों में भी किसी से कुछ कहना या सुनना  नियमों की अवहेलना थी। आप शिविर से बाहर हो सकते थे, किए जा सकते थे। मन के भीतर का शोर था कि थमता ही नहीं था। लेकिन आचार्य कहते थे कि मन को नियंत्रित करना ही हमारा ध्येय है। मन को नियंत्रित करना था और मन में बसा शोर था कि थमता ही नहीं था। लगता था गोया शोर का ही निवास हो मन में। इस शोर का क्या करें आचार्य ? वह कई बार यह पूछने की सोचता था। पर जाने कोई भीतर एक और बैठा था इस शोर के सिवाय भी जो पूछने ही नहीं देता था।" 

उपन्यास के ये प्रारंभिक अंश ही कथानक का ताना बाना बुन देते हैं। यह अंश पाठक को एकाग्रता प्रदान करने में सहायक होता है। जैसे जैसे कथानक आगे बढ़ता है, पाठक स्वयं समाधिस्थ हो जाना चाहता है। कोलाहल से दूर किसी शिविर का लगना और अनुशासन, मन पर नियंत्रित करना अंतर्मन को आनंदित व शांत चित्त करता है।

उपन्यास की केंद्र भूमि एक विपश्यना शिविर है, जहां विनय मन की शांति की तलाश में घर की कुछ समस्याओं से दुखी होकर घर से भाग आता है। यहां पर उसे शांति के नाम पर घोर कोलाहल से दूर नितांत चुप्पी मिलती है। वाणी के नाम पर मात्र टेप पर आचार्य के निर्देश अथवा कभी-कभी उनके निर्देशों की झड़ी या फिर घंटे/घंटी की आवाज़। सांकेतिक वाणी की भी मनाही है, यानि कुल मिला कर चुप की राजधानी। 

विनय ने अनुभव किया है कि,"अब मौन में ही सोना था, मौन में ही जगना था। मौन में ही नहाना था, मौन में ही खाना था। मौन क्या था मन के शोर में और-और जलना था। तो क्या मौन मन को जला डालता है? पता नहीं, पर अभी तो यह मौन मन को सुलगा रहा था। बिना धुएं और बिना आंच के। धीमी आंच पर जैसे सांस दहक रही थी। मौन की मीठी आंच एक अजीब सी दुनिया में ले जा रही थी। आंखें बंद थीं और जैसे मदहोशी सी छा रही थी। यह कौन सी दुनिया थी ? दुनिया थी कि सपना थी ? सपना कि कोई और लोक ? मदहोशी की यह खुमारी भीतर-भीतर जैसे गा रही थी, 'आज मदहोश हुआ जाए रे मेरा मन, मेरा मन,....मुसकुराए रे मेरा मन !' शाम होते न होते यह मदहोशी भी टूटने लगी थी। ध्यान कक्ष में ध्यान , अब देह की थकान में तब्दील हो रही थी यह मदहोशी। कमर टूट रही थी। शाम के नाश्ते ने कुछ थकान मद्धिम तो की पर प्रवचन में यह बिलकुल ही उतर गई। प्रवचन में विचारों की खिड़की थी , जो भावों की शुद्धता थी और तर्किकता की जो कड़ी दर कड़ी थी।" 

लेखक ने विनय के माध्यम से एक सामान्य व्यक्ति के किसी शांत वातावरण में मन में चल रहे नाना प्रकार के झंझावतों को उकेरा है। लेखक की लेखनी से शिविर में व्याप्त शांति और मन में चल रहा द्वंद्व बच नहीं पाया है। सामान्य मनुष्य का यही स्वभाव है पर विनय तो बुद्ध की शरण में बुद्ध को जानने समझने आया है और महात्मा बुद्ध के नाम पर यहां उसे कुछ नहीं मिलता है। मिलती है तो बस बुद्ध की तपस्या। बुद्ध को समझने के लिये विनय स्वयं ही चिंतन करने लगता है। वह वहां उपस्थित वातावरण पर मनन करता है। वह बुद्ध, उन की पत्नी यशोधरा और पुत्र राहुल की मनोस्थिति पर चिंतन करता है कि जब बुद्ध ने घर छोड़ा तो बुद्ध की, यशोधरा की और राहुल की तत्कालीन मन:स्थिति व स्वयं की इस वातावरण की स्थिति की तुलना करने लगता है क्यों कि इस कड़े अनुशासन, मौन वातावरण और ध्यानावस्था में उसे अपनी पत्नी, बेटे-बेटी,अम्मा-पिता की याद आने लगती है। वह आचार्य से मिल कर जाने की अनुमति चाहता है पर विवश है क्योंकि शिविर में प्रवेश करते समय भरे गये बॉन्ड और अनुशासन के नियम उसे बांधे रखते हैं। वह सोचता है,"क्या जब बुद्ध ने घर छोड़ा रहा होगा तो क्या उन्हें भी अपने बेटे और पत्नी की सुधि नहीं आई होगी ? माता-पिता, कुटुंब याद नहीं आए होंगे। वह महल, वह ऐश्वर्य, वह सुविधा-साधन और भोग नहीं याद आए होंगे? 

ज़रुर याद आए होंगे। 

तब फिर क्यों नहीं लौटे बुद्ध ? अपने घर क्यों नहीं लौटे बुद्ध ? बुद्ध नहीं लौटे और कि वह दो चार दिनों में ही लौट जाना चाहता है ? क्या यह मौन रहने की, अनुशासन में रहने का नतीज़ा है।" 

और फिर खो जाता है विनय बुद्ध के चिंतन में। उसे बुद्ध का त्याग, यशोधरा का दुःख और राहुल के बाल मन स्थिति याद आते हैं। वह इसी संदर्भ में निरंतर चिंतन मनन करता रहता है।

कथानक में एक ऐसा भी पड़ाव आता है जहाँ ग्रामीण/शहरी , देशी विदेशी स्त्री पुरुषों के मध्य ध्यानावस्था से निकल कर ध्यान टूटता है, "आंख खुलती है। एक गोरी सी रशियन स्त्री के अकुलाए वक्ष पर उस की आंख धंस गई है। उस की स्लीवलेस बाहें जैसे बुला रही हैं। अब ऐसे में कैसे कोई ध्यान करे। जब मन में देह का ध्यान आ जाए तो सारे ध्यान बिला जाते हैं। सारे विलाप बिला जाते हैं। सारी विपश्यना बिला जाती है। बिलबिला जाती है।"  और फिर धीरे-धीरे  वह  गौरी रसियन उस के संपर्क में आने लगती है। इस के पश्चात यह चुप की राजधानी  उस के लिये उत्साह उमंग की राजधानी बन जाती है लेकिन फिर भी कहीं न कहीं चुप्पी अभी भी बनी हुई है , सांकेतिक हाव भाव को छोड़ कर। उस के हृदय में गौरी रसियन के प्रति प्रेम पुष्प पल्लवित होने लगता है। वह स्वयं को उस के प्रति प्रेम या कहिये देह आकर्षण के अंतरद्वंद्व में फंस जाता है और एक शाम ,"अचानक उसे लगता है कि कोई उस के पीछे आ रहा है। यह पहली बार है। सो मुड़ कर देखता है। वही रशियन स्त्री है। वह अपने क़दम धीमे कर लेता है। धीरे-धीरे वह स्त्री उस के बगल में चलने लगी है। विनय ने मुड़ कर फिर पीछे देखा है कि क्या कोई और भी है क्या पीछे। देखा तो पाया कि कोई नहीं है। वह निश्चिंत हो जाता है। वह स्त्री आहिस्ता-आहिस्ता चलते हुए उस के क़रीब आती जाती है। स्पर्श की हद तक। विनय अब क्या करे भला ? यह सोचते ही उस के भीतर कोई बिजली सी चमक जाती है। ऐसे जैसे कोई शार्ट सर्किट हो गया हो। बिजली गुम हो गई हो। सहसा उस ने बढ़ कर उसे बाहों में भर कर चूम लिया है। वह रशियन स्त्री अवाक रह गई है। उसे विनय इस तरह इतनी जल्दी चूम लेगा , इस का बिलकुल अंदाजा नहीं था। प्रत्युत्तर में वह भी चूम लेती है विनय को। दोनों ज़रा देर आलिंगनबद्ध हो कर एक दूसरे को चूमते रहते हैं। आहिस्ता-आहिस्ता फिर बेतहाशा। बाहों के दरमियां रात गहरी हो रही है। वह दोनों लिली के फूल की झाड़ की ओट ले लेते हैं। फिर आम के वृक्ष की तरफ सरक जाते हैं। जहां बिजली की हलकी रौशनी भी नहीं पहुंच पा रही। दोनों में कोई शाब्दिक संवाद नहीं है। दोनों की देह संवादरत हैं। अजब कश्मकश है। यह देह का संघर्ष है , मन का संघर्ष है , वासना का संघर्ष है कि विपश्यना के कारण निकले विकार का संघर्ष है ?"

वाचिक भाषा से अधिक दैहिक भाषा असर करने लगती है। विनय भोगे गए आनंदित पलों को कभी यथार्थ, कभी कल्पना और कभी स्वप्न में अनुभूत करने लगता है। वार्तालाप के अभाव में विनय उस का नाम मल्लिका रख देता है। जब मौन वार्तालाप का क्रम टूटता है और वह मल्लिका अपना नाम दारिया तथा विनय अपना नाम बताता है।  विपश्यना शिविर में उपजे प्रेम की गहराइयों की पड़ताल, मन:स्थिति को लेखक ने बहुत ही बारीकी से भाव-भूमि प्रदान की है। कथानक जैसे जैसे आगे बढ़ता है , शिविर में आए लोगों की सच्चाई सामने आने लगती है। सभी एक ही उद्देश्य से न आ कर अपने-अपने स्वार्थवश शिविर में आए हैं।  शिविर के अंतिम दो दिनों में जब आलिंगनबद्ध मल्लिका वाचिक भाषा में अपना संक्षिप्त परिचय देती है तब चुप की राजधानी अपनी ख़ामोशी तोड़ देती है, पर मेरा कवि मन तो पहले ही सृजन कर चुका है-

           'मेरा शहर आज कल बहुत चुप चुप है,

           ख़ामोशियों से कह दो वो मेरा शहर छोड़ दे।'

अब आचार्य द्वारा सबसे मिलने, बात करने, घूमने फिरने की छूट दे दी गई है। सब अपने-अपने परिचय, अनुभव प्रदान कर रहे हैं।

विनय को  विदाई के दिन एक आघात लगता है जब उस की मल्लिका अपने पति से मिलवाती है और यहीं चुप की राजधानी उस का चित्त नाना प्रकार के वैचारिक कोलाहल से व्याप्त हो जाती है। अब वह घर लौट आया है और उस की जीवन शैली भी बदल गई है। कई महीनों पश्चात दारिया का फोन आता है और वह बताती है कि वह उसके बच्चे की मां बन गई है। फ़ोन पर  वार्तालाप के पश्चात विनय के एक बार बच्चे से मिलवाने के आग्रह और अंत में दारिया के बोल "साधु-साधु" के साथ कथानक का अंत होता है।

"कैसे कहती अपनी पीड़ा, खेला विपश्यना में प्रेम रास,

खाली झोली भर दी जो, फलीभूत हुआ जीवन आकाश।" 

संपूर्ण कथानक में अंतर्मन के  एवं परस्पर संवाद पाठक को विचलित नहीं करते हैं , लगता है जैसे पाठक स्वयं विपश्यना केंद्र में हो। यह उपन्यास एकाग्र हो कर पढ़ने को विवश करता है। कथानक शिविर में उत्पन्न विभिन्न स्थितियों को वर्तमान सामाजिक राजनीतिक स्थितियों से जोड़ने का क्रम पाठक को विपश्यना से बाहर लाने का प्रयास करता है तथा पुनः विपश्यना में लौट जाना इसकी विशेषता को दर्शाता है। कहीं-कहीं यह क्रम पाठक मन की निरंतरता को कुछ क्षण के लिए बाधित करता है लेकिन कसा हुआ कथानक ही पूरे उपन्यास को एक बार और बार-बार पढ़ने का मोह त्याग नहीं पाता है। लेखक अपनी पत्रकारिता का अनुभव भी इस उपन्यास मे समेटते दिख पड़ते हैं।                            

आलंकारिक भाषा-शैली को समेटे हुए कथानक/संवाद अपना चुंबकीय प्रभाव बनाएरखते हैँ। उपन्यास के मध्य तक तो कथोपकथन न के ही बराबर है। इस का मूल कारण यही है कि पूरी पृष्ठभूमि विपश्यना केंद्र है और उस पर भी विभिन्न देशों/प्रदेशों के लोगों के मध्य भाषिक कठिनाई है। बिना संवाद के भी उपन्यास की रोचकता को बनाए  रखना श्री पांडेय जी की लेखनी से ही संभव है। उपन्यास में मुख्य पात्रों का जमावड़ा नहीं है।  कथानक को गति देने के लिये गौण पात्रों को गढ़ा गया है।  शिविर के वातावरण को शब्दश: लेखनी मिली है।  उपन्यास में समाज और दर्शन के वैचारिक भाव प्रकट होते हैं। जहां इस उपन्यास में विपश्यना का दर्शन मिलता है वहीं मानवीय दुर्बलताओं का चित्रण हुआ है।  

यहां यह कहना पुनः अतिश्योक्ति नहीं ही होगी कि उपन्यास की भाषा शैली चमत्कृत करती है और पाठक को कथानक/वातावरण से दूर नहीं जाने देती है। लेखक इसी आधार बिंदु पर अपनी लेखनी को सफल कर ले जाते हैं। गद्य शैली में लिखे गए उपन्यास का ही प्रभाव है कि कवि मन इस में पद्य की छांव देखता है। यह उपन्यास साहित्याकाश में धवल प्रकाश फैलाए , इसी शुभकामना के साथ- साधु-साधु !


विपश्यना में प्रेम उपन्यास पढ़ने के लिए इस लिंक को क्लिक कीजिए 


विपश्यना में विलाप 


समीक्ष्य पुस्तक :



विपश्यना में प्रेम 

लेखक : दयानंद पांडेय 

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन 

4695 , 21 - ए , दरियागंज , नई दिल्ली - 110002 

आवरण पेंटिंग : अवधेश मिश्र 

हार्ड बाऊंड : 499 रुपए 

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विपश्यना में प्रेम : घट भीतर भी जल और घट के बाहर भी जल

सुधा शुक्ला 

दयानंद के नवीनतम उपन्यास विपश्यना में प्रेम की अनेक विद्वानों ने समीक्षा की है ,सभी अपनी शैली में पूर्ण हैं। मैं नया कुछ लिख भी पाऊंगी ,समझ नहीं पा रही। बस यह एक प्रयास है , कोई समीक्षा नहीं। विपश्यना और प्रेम दोनों का तालमेल दयानंद ही कर सकते हैं ,दोनों ही चाहते हैं पूर्ण समर्पण। विपश्यना जहां अपने अंतस में मैं  यानी मानव की शाश्वत खोज है , वहीं प्रेम सृष्टि के आरंभ की। समय समय पर यह खोज निरंतर विद्वानों द्वारा  अपने स्तर और अपने तरीके से चलती रही है और अनंत कल तक चलती रहनी है। यों सही मायने में पूर्ण समर्पण भाव से किया गया प्रेम तप से कम नहीं होता ,वरना मीरा हो या वारिस शाह उन का नाम जिंदा नहीं रह पाता। दयानंद के लेखन में देह निरंतर विभिन्न रुपों में आती ही रहती है। लोक कवि अब गाते नहीं  ,एक जीनियस की विवादास्पद मौत कहानी हो या अन्य उपन्यास। और यह सायास भी नहीं लगता। बस कभी वर्णन विस्तृत हो जाता है। गौतम चटर्जी जी जैसे कला और आध्यात्म दोनों पर समान अधिकार रखने वाले विद्वान की तरह मेरा लिखना कठिन है । 

मुझे इस उपन्यास में सब से अधिक अपील करने वाली बात जो लगी वह है लेखक का निरंतर दो स्तर पर अपनी यात्रा को व्याख्यायित करना। एक तरफ वे नींद की गहरी सुरंग की यात्रा की बात करते रहते हैं साथ ही विदेशी महिलाओं की स्लीवलेस बाहों के परिधान में भी न्यस्त रहते हैं, मानो वो शरीर से बाहर , शरीर और मन दोनों की गतियों को निहार रहे हों , घट भीतर भी जल और घट के बाहर भी जल। यह ही तो समाधि की अवस्था है जब आत्मा बाहर से शरीर और सृष्टि दोनों को देख सके । 

दारिया के साथ संभोग के समय के वर्णन पर ध्यान दें। जब एक ओर वे विशुद्ध काम क्रिया में निबद्ध है , वहीँ चारो और विस्तृत प्रकृति का उन्हें पूरा भान है। भांति-भांति के पुष्प पत्ते सब के सौंदर्य से वे बेखबर नहीं हैं।एक-एक फूल पौधों के सौंदर्य का वर्णन वे लगभग कवि भाव में करते हैं। गोभी के फूल का इतना सुंदर वर्णन साहित्य में मिलना आसान नहीं । लेखक के लिए देह या संभोग लुकाव-छिपाव की वस्तु नहीं रही है। विभिन्न अवसर पर वे किसी काम शास्त्री की भांति मुद्राओं की चर्चा करते रहे हैं लेकिन इस कथा में उन का प्रेम काम में सौंदर्य भाव छलकता है। जब दारिया उन्हें पुत्र होने की सूचना देती है और सायास किए गए चुनाव की बात भी कहती है तो प्रेम मेंअनुरक्त लेखक ठगाया सा अनुभव करता है। 


विपश्यना में प्रेम उपन्यास पढ़ने के लिए इस लिंक को क्लिक कीजिए 


विपश्यना में विलाप 


समीक्ष्य पुस्तक :



विपश्यना में प्रेम 

लेखक : दयानंद पांडेय 

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन 

4695 , 21 - ए , दरियागंज , नई दिल्ली - 110002 

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Tuesday, 14 November 2023

विपश्यना में प्रेम : एक-एक पृष्ठ में बहती रसधार

सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी

मूलतः पत्रकार रहे आदरणीय दयानंद पांडेय जी ने अपने विशद साहित्यिक लेखन से अपने विशुद्ध पाठकों को अपना प्रशंसक तो बनाया ही है, लेकिन विशुद्ध साहित्यकार का चोला ओढ़े अनेक स्वनामधन्य लेखकों के पेट में दर्द भी पैदा कर दिया है। बेखटक और बेलाग लेखन ही इन की पूंजी है। इस की चोट किसी को पहुंचती हो तो वह जाने। 'अपने-अपने युद्ध' से मची खलबली तो बहुतों को याद होगी। 

कोई नंगा सच जो इन्हें अपनी आंखों से दिखता है उसे वैसे का वैसा अपनी कलम से चित्रलिखित कर देना इन्हें बखूबी आता है। मन के भीतर विचारों व भावनाओं की श्रृंखला जैसी पैदा होती है उसे वैसे ही नैसर्गिक रूप में कागज पर उतार देना इन की फितरत है। जिस सच्चाई को ये महसूस करते हैं उसे ऐसा शब्द देते हैं कि पढ़ने वाला भी सहज ही उस सच्चाई को खुद महसूस करने लगता है। न केवल भौतिक घटनाओं का विवरण बल्कि किसी चरित्र के मन में उमड़ते - घुमड़ते भाव विचार भी इन की लेखनी से निकल कर पाठक के मन पर हुबहू वही छाप छोड़ देते हैं। इन की बातें पानी की धार जैसी बहती हैं। मन को तर करती जाती हैं। किस्सागोई ऐसी कि बैठ कर सुनने वाला आगे झुकता जाय। जिज्ञासा की धार टूटने का नाम न ले। 

सहज लेखन की ऐसी ही शैली में पगा उपन्यास 'विपश्यना में प्रेम' पढ़ते हुए मन बार-बार मुस्करा देता है। एक विपश्यना केंद्र जिसे लेखक चुप की राजधानी कहता है वहां नायक विनय के साथ कुछ ऐसा घटित होता है जिस की उसने कल्पना भी नहीं की होगी। शांति की तलाश में मौन साधना का अभ्यास करने की राह में कुछ ऐसा क्षेपक आता है जिस का शोर उसे मतवाला कर देता है। लेखक के शब्दों में - विपश्यना शिविर में विनय भी अपने मौन के शोर को अब संभाल नहीं पा रहा था। मौन का बांध जैसे रिस-रिस कर टूटना चाहता था। शोर की नदी का प्रवाह तेज़ और तेज़ होता जाता था। देह का दर्द अब बर्दाश्त होने लगा था। ध्यान का कुछ आनंद भी आने लगा था। पर शोर का सुर ? 

एक बानगी यह भी - लोग कहते हैं , मौन में बड़ी शक्ति होती है। तो मौन , मन के शोर को क्यों नहीं शांत कर पाता। किसी चट्टान से सागर की लहरों की तरह पछाड़ खाता यह शोर बढ़ता ही जाता है। विपश्यना के वश का भी नहीं लगता यह शोर।

उपन्यास की जो विषय वस्तु है वह आप को चकित कर सकती है। मुझे तो यह उपमा भी चकित करती है - जैसे किसी युवा होती लड़की के लिए उस का वक्ष ही भार हो जाता है, ठीक वैसे ही विनय के लिए यह साधना भी भार हो चली थी।

उपन्यास में किसी वातावरण का चित्रण पढ़ कर लगता है जैसे पाठक स्वयं वहां पहुंच गया हो। साधना स्थल का माहौल महसूस कराती ये पंक्तियां देखिए - आचार्य के टेप की आवाज़ में वह डूब गया है। अजब आनंद है इस आवाज़ में भी। इतनी सतर्क, इतनी स्पष्ट और इतने व्यौरे में सनी, किसी नाव की तरह थपेड़े खाती, बलखाती आवाज़ से इस से पहले वह कभी नहीं मिला था। आरोह-अवरोह और श्रद्धा का ऐसा मेल, जैसे कानों में जलतरंग बज जाए, जैसे कोई मीठी सी हवा कानों में चुपके से स्पर्श कर जाए। 

चुप की राजधानी में मन को आध्यात्मिक शांति के लिए एकाग्र करने में लगे विनय को चुपके से चिकोटी काटती मल्लिका की पूरी योजना का पता तो उपन्यास के अंत में चलता है, लेकिन पाठक को वहाँ तक पहुंचने की कोई जल्दी नहीं है। वह तो एक-एक पृष्ठ में बहती रसधार से सिक्त होता चलता है। कथा के बीच अचानक कोई अदभुत दृश्य उपस्थित हो जाय, कोई मनभावन दृष्टांत आ पड़े, कोई मन को छू जाने वाली खूबसूरत उक्ति मिल जाय, अकस्मात रोम-रोम पुलकित करने वाली कोई टिप्पणी मिल जाय या देह - संगीत का कोई नया टुकड़ा आ पड़े, इस संभावना से यह पूरा उपन्यास इस तरह लबरेज है कि आप इसे कूद-फांद कर नहीं पढ़ना चाहेंगे। 

यहां तो प्रत्येक पृष्ठ आप को बांध कर रखता है। बिल्कुल जैसे गुलज़ार की कोई नज़्म हो। दुबारा तिबारा सोचना भी अच्छा लगता है। बुद्ध और यशोधरा के बिलगाव का संदर्भ है तो मांसलता और कामुकता का चरम भी है। इसे सारंगी, गिटार और वीणा के मधुर संगीत सा पेश किया गया है। यहां माउथऑर्गन की धुन पर थिरकता नृत्य भी है और तबले की थाप पर उचकता जिस्म भी है। यह सब ऐसा दृश्य उपस्थित करता है और ऐसी अनुभूति देकर जाता है कि इसे केवल 'वयस्कों के लिए' उपयुक्त ठहराने का मन होता है। लेकिन यह इस उपन्यास की सीमा नहीं है बल्कि दयानंद जी की एक विलक्षण उपलब्धि है। 

[ www.satyarthmitra.com से साभार ]


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विपश्यना में विलाप 


समीक्ष्य पुस्तक :



विपश्यना में प्रेम 

लेखक : दयानंद पांडेय 

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन 

4695 , 21 - ए , दरियागंज , नई दिल्ली - 110002 

आवरण पेंटिंग : अवधेश मिश्र 

हार्ड बाऊंड : 499 रुपए 

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Thursday, 9 November 2023

विपश्यना में प्रेम : प्रेम का महाकाव्य

 तरुण निशांत 

आप इश्क़-ए-मजाज़ी, काम या सेक्स को जितना लांछित कर लीजिए, प्लैटॉनिक लव, अशरीरी प्रेम या इश्क़-ए-हक़ीक़ी को जितना भी ऊंचा स्थान दे दीजिए, इस धरा पर मानव जीवन का यथार्थ इन सबसे बदलने वाला नहीं है। सामाजिक यथार्थ को उस की सूक्ष्मता में पकड़ना ही एक रचनाकार का लक्ष्य होता है और वरिष्ठ पत्रकार एवं साहित्यकार दयानंद पांडेय ने अपनी नवीनतम कृति "विपश्यना में प्रेम" में इस सच को उजागर किया है। प्रेम में तन-मन-धन, सब कुछ समाहित होता है और देह की छुअन से प्रेम अपवित्र या कम मूल्यवान नहीं हो जाता। प्रेम मन का मिलन है तो तन की तृप्ति भी।

इस उपन्यास को पढ़ाते हुए गुलज़ार निर्देशित फिल्म "इजाज़त" की याद आती है। रेखा और नसरुद्दीन शाह अभिनीत यह फिल्म रेलवे प्लेटफार्म के एक वेटिंग हॉल से शुरू होकर उस की कहानी प्लेटफार्म के उसी वेटिंग रूम में खत्म होती है, बीच-बीच में फ्लैशबैक में कहानी को विस्तार देते हुए। यहां भी इस उपन्यास की कथा एक विपश्यना शिविर की चारदीवारी के भीतर शुरू होती है और कथा का अंत भी यहीं होता है। इस प्रकार यह उपन्यास पाठकों को बाहरी दुनिया का भ्रमण नहीं कराता बल्कि व्यक्ति के मन और मस्तिष्क में चल रहे उद्वेलन से साक्षात्कार कराता है। यह भी गौरतलब है कि इस कृति में मुख्य रूप से सिर्फ़ दो ही चरित्र हैं: विनय और दारिया। बाकी चरित्र कहानी के बीच में आते जाते रहते हैं।

उपन्यास के शीर्षक से ही पाठकों को स्पष्ट हो जाता है कि यह रचना प्रेम के इर्द-गिर्द बुनी गई है। लेकिन चरित्र चित्रण में उपन्यासकार ने यहां यथार्थ का परिचय दिया है कि आदमी न तो देवता है और न ही जानवर। उस के अंदर यदि स्वार्थ की सतत् सलिला बहती रहती है तो अवसर आने पर व्यक्ति दूसरों के लिए भी अपने जान की बाजी लगा देता है। वस्तुत: विनय और मल्लिका (दारिया) के बीच शारीरिक संबंध का प्रादुर्भाव स्वार्थवश होता है। दारिया मां बनना चाहती है लेकिन लाख कोशिशों के बावजूद अपने पति से वह अपनी गोद भरने में असफल रहती है। दारिया के अंदर मां बनने की लालसा इतनी तीव्र है कि वह पाप-पुण्य के द्वंद्व से पार चली जाती है। विपश्यना शिविर में जब वह विनय से जा टकराती है तो वहां उसे एक संभावना नज़र आती है। पाठक चाहे तो दारिया को कुलटा या वासना में लिप्त एक औरत समझ सकता है लेकिन दारिया का लक्ष्य उस के मस्तिष्क में बहुत स्पष्ट रूप से अंकित है और विपश्यना शिविर में पति की उपस्थिति को दरकिनार कर वह विनय से मां बनने को अपना ध्येय बना लेती है।

मल्लिका और विनय के बीच शारीरिक स्तर पर संबंध की शुरुआत भले ही स्वार्थ से होती है परंतु इस का अंत स्वार्थ के बिंदु पर नहीं होता बल्कि यह कहानी बहुत आगे बढ़ जाती है जब उपन्यास अपने अंत पर पहुंचता है। दारिया चाहती तो पुत्र प्राप्ति के बाद विनय नाम के पुरुष का अस्तित्व अपने अंतर से हमेशा हमेशा के लिए बाहर निकाल कर फेंक सकती थी और ऐसा करने में उसे किसी भी प्रकार की कठिनाई या झिझक नहीं होती। विपश्यना शिविर समाप्त होने के पश्चात वह अपने देश रूस लौट गई है और विनय को उस के या बेटे के बारे में कोई खबर नहीं मिलती यदि वह स्वयं विनय को फ़ोन कर इस की जानकारी नहीं देती। फ़ोन या वीडियो कॉल पर बात करते समय वह विनय से आज भी उतना ही जुड़ाव महसूस करती है जितना शिविर के समय था। जाहिर सी बात है कि यह जुड़ाव शारीरिक नहीं बल्कि आत्मिक है, हज़ारों किलोमीटर दूर अलग-अलग देशों में दो अलग-अलग सांस्कृतिक माहौल में पले बढ़े दो लोगों के बीच। दारिया के समक्ष विकल्प होने के बावजूद वह अपने बेटे के जैविक पिता यानी विनय से मानसिक स्तर पर दूर नहीं होती है और किसी समय रूस बुलाने और उस के बेटे से उस की मुलाक़ात  करवाने की बात भी कहती है। तो यह प्रेमकथा देह से शुरू हो कर दिल तक जा पहुंचती है और यही उपन्यास की ख़ूबसूरती  है।

यह कृति बुद्ध और यशोधरा के बहाने आधी दुनिया से संबंधित अलग-अलग सवालों से मुठभेड़ करती दिखाई पड़ती है। उपन्यासकार ने एक मौजूं सवाल उठाया है: यदि यशोधरा की संतान बेटी होती तो क्या बुद्ध उसे भिक्षा में लेते ? यह मसला सिर्फ़ बुद्ध और यशोधरा के बीच का नहीं है बल्कि इस प्रश्न को वह पूरी मानव सभ्यता के समक्ष उछाल रहा है। सभी जानते हैं कि बुद्ध अपने संघ में स्त्रियों के प्रवेश पर सहमत नहीं थे। आनंद जैसे अपने शिष्यों के दबाव में उन्हों ने स्त्रियों के संघ में प्रवेश की अनुमति दी थी। बुद्ध पूरी मानव जाति के लिए महात्मा थे लेकिन उपन्यासकार यहां बुद्ध नहीं, यशोधरा के साथ खड़ा होना दिखना चाहता है जब वह पूछता है कि बुद्ध ने यशोधरा को राहुल से क्यों अलग किया? यशोधरा का यह त्याग क्या बुद्ध के तप की तुलना में कमतर है ?

रचनाकार इस उपन्यास में "शोर" पर केंद्रित होते हुए अलग-अलग संदर्भों में इस की परख करता है: आप मौन हैं तो इस का अर्थ यह नहीं कि आप के अंदर सब कुछ शांत है। मन में उठता हुआ शोर बाहरी कोलाहल से कहीं अधिक आदमी को रौंदता है। विनय की आड़ में लेखक अपने आप से पूछता है कि सिद्धार्थ के राजमहल त्याग कर वन चले जाने के पीछे भी उन के मन में उठा कोई शोर ही तो नहीं था ! फिर वह अकेली रह गई यशोधरा के भीतर उठे शोर या विलाप पर कहता है कि क्या उस के बारे में सिद्धार्थ या किसी ने सोचा भी। इसी संदर्भ में वह राम द्वारा सीता त्याग की बात भी करता है। विपश्यना शिविर में ध्यान सत्र के दौरान एक स्त्री का ऊंची आवाज़ में बोलते हुए लगातार झूमने वाले दृश्य को भी एक सामान्य घटना मान कर वह इसे उपेक्षित नहीं करता। उस का मन इस बात से आहत है कि ध्यान कक्ष में विलाप कर रही इस स्त्री के दुख के बारे में वहां उपस्थित लोग अपने ध्यान में लगे रहे और किसी को भी मानसिक रूप से विचलित होते उस ने नहीं देखा। क्या विपश्यना ही अंतिम लक्ष्य है और क्या जगत के दुखों के प्रति हमें इस तरह संवेदनहीन हो जाना चाहिए? पता नहीं, उस स्त्री के पास कौन सा दुख था ? क्या उस का पति भी सिद्धार्थ की तरह घर छोड़ कर कहीं चला तो नहीं गया है ? मेडिकल साइंस इसे हिस्टीरिया कहता है लेकिन इस दुख का इलाज क्या है ? अपनी जवान देह का भार कोई स्त्री कब तक अकेले उठाती रहेगी। यहां उल्लेखनीय है कि डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद ने भी अपनी आत्मकथा में गांव की औरतों के ऐसे दुखों के बारे में लिखा है जिन की देह उनके जीवनसाथी की नादानी या मजबूरी से अतृप्त रह जाती है।

उपन्यास में एक स्थान पर तथ्यात्मक त्रुटि है जब लेखक पूछता है कि क्या लुंबिनी भी यशोधरा के साथ विलाप में डूबी थी ? यहां लुंबिनी नहीं, कपिलवस्तु होना चाहिए क्योंकि सिद्धार्थ का जन्म लुंबिनी में हुआ था लेकिन वह कपिलवस्तु के राजकुमार थे। पुन: विनय के मित्र का सेक्युलर प्रसंग इस उपन्यास की संगति/तेवर से मैच नहीं करता है। यदि यह प्रसंग नहीं होता तो भी इस से उपन्यास की पूर्णता पर कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता। उपन्यास में एक जगह विरोधाभास भी है जब शुरू में लेखक यह कहता है कि विनय मन की शांति की तलाश में घर से लगभग पगहा तुड़ा कर, भाग कर इस शिविर में आया था और बाद के एक पृष्ठ पर वह यह लिखता है कि विनय के पास कोई ऐसा-वैसा तनाव भी नहीं था। वह तो सिर्फ़ घर की कुछ समस्याओं से आज़िज आ कर यहां आया था।

"विपश्यना में प्रेम" एक उपन्यास नहीं बल्कि मेरी समझ में एक महाकाव्य है, प्रेम का महाकाव्य। कृति के हर शब्द, हर वाक्य, प्रत्येक पैरा से काव्य की ध्वनियां प्रस्फुटित हो रही हैं। विपश्यना शिविर में ध्यान लगाने का अभ्यास करते-करते एक स्टेज के बाद व्यक्ति जैसे अमृत यात्रा पर निकल पड़ता है, कुछ कुछ वैसे ही इस उपन्यास को पढ़ते हुए प्रबुद्ध पाठक का हृदय संगीत से भर जाता है। यह है उपन्यासकार का भाषा कौशल। अद्भुत ! विलक्षण ! जिस प्रकार काव्य रचना का मूल तत्व लय होता है, आरंभ से अंत तक इस उपन्यास में ग़ज़ब की लयात्मकता है। ऐसा सिर्फ़ दो चार दस पैराग्राफ़ में नहीं बल्कि यह लयात्मकता उपन्यास के शुरू से अंत तक है। फिर कौन कहेगा कि गद्य में पद्य नहीं रचा जा सकता ! इस उपन्यास ने तो गद्य और पद्य के विभेद को मिटा दिया है। इस लिए मैं इस रचना को उपन्यास के साथ-साथ प्रेम का एक महाकाव्य मानता हूं।


विपश्यना में प्रेम उपन्यास पढ़ने के लिए इस लिंक को क्लिक कीजिए 


विपश्यना में विलाप 


समीक्ष्य पुस्तक :



विपश्यना में प्रेम 

लेखक : दयानंद पांडेय 

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन 

4695 , 21 - ए , दरियागंज , नई दिल्ली - 110002 

आवरण पेंटिंग : अवधेश मिश्र 

हार्ड बाऊंड : 499 रुपए 

पेपरबैक : 299 रुपए 

पृष्ठ : 106 

अमेज़न (भारत)
हार्डकवर : https://amzn.eu/d/g20hNDl


     

     

               


Wednesday, 8 November 2023

केजरीवाल शराब बेच रहे थे , नीतीश कुमार सेक्स !

दयानंद पांडेय 

अनपढ़ या पढ़े-लिखे का सेक्स चेतना से कुछ लेना-देना नहीं होता , इंजीनियरिंग की डिग्री लिए हुए बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार इतनी सी बात भी नहीं जानते। इस मामले में भाषा या पढ़ाई-लिखाई के कोई मायने नहीं होते। एक पढ़े-लिखे इंजीनियरिंग की डिग्री लिए अरविंद केजरीवाल , शराब बेच रहे थे , नीतीश सेक्स बेच रहे हैं। फ़र्क़ बस इतना है कि केजरीवाल अन्ना आंदोलन से निकले तो नीतीश , जे पी आंदोलन से। धूर्त और कुकर्मी दोनों ही हैं। केजरीवाल तो ख़ैर राजनीतिक प्राणी नहीं हैं पर अपनी दमित कुंठा के चलते नीतीश ने अपने एक बयान से , अपने मुंह पर कालिख पोत ली है। अपना राजनीतिक जीवन कलंकित कर लिया है। समाप्त कर लिया है। इतनी कि अपनी निंदा ख़ुद करने के लिए विवश हो गए। मज़ा यह कि इस मामले पर नीतीश कुमार के माफ़ी मांगने पर बिहार विधान सभा का अध्यक्ष , अपनी मूर्खता और चमचई के चलते , सदन में नीतीश कुमार से कह रहा रहा था कि , यह आप का बड़प्पन है। दिलचस्प यह कि जद यू अध्यक्ष ललन प्रसाद भी नीतीश कुमार के भाषण से सहमत हैं। एक समय था कि राबड़ी देवी , भोजपुरी भाव में मज़ा लेते हुए नीतीश कुमार को ललन प्रसाद का बहनोई बताती थीं। वैसे राबड़ी ने मुस्कुराते हुए बड़े मुलायम ढंग से नीतीश की बात को ग़लत बताया है। जब कि तेजस्वी नीतीश की तारीफ़ में हैं। जाने लालू की क्या राय है। 

एक बात यह भी है कि नीतीश कुमार का कोई सलाहकार उन्हें सही राय देने वाला है। क्यों विधान सभा में असभ्य और अश्लील भाषण देने के एक घंटे बाद विधान परिषद में भी वह अभद्र , अश्लील और असभ्य भाषण नीतीश कुमार ने दुहरा दिया। अगर कोई सही सलाहकार होता , नीतीश कुमार का तो यह अभद्र भाषण फिर से नहीं दुहराते। सच ही राजनीति में नीतीश कुमार का अंतिम समय आ गया है। लोकतंत्र और संसदीय राजनीति का तकाज़ा यही है कि नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री पद से इस्तीफ़ा दे कर राजनीति और सार्वजनिक जीवन से संन्यास ले लेना चाहिए। अलग बात है कि अपनी जातीय अस्मिता के तहत वह ऐसा कुछ नहीं करने वाले। लालू याद आते हैं। याद कीजिए जब लालू ने नीतीश को भुजंग कहा था। पिछड़ी राजनीति , जातीय राजनीति की नफ़रत और ज़हर बहुत दूर तलक चला गया है। 

इसी लिए सुशासन बाबू अब , अभद्र , अश्लील और निर्लज्ज बाबू बन कर अब उपस्थित हैं। फिर भी कोई उन का बाल-बांका नहीं बिगाड़ सकता। क्यों कि वह इण्डिया के सूत्रधार है। जातीय जनगणना के अगुआ है। जातीयता के अलंबरदार हैं। नीतीश कुमार मानसिक रूप से अभी भी टीनएज हैं , वृद्ध नहीं। गांव के लाखैरे लवंडों की भाषा , उन की मानसिकता और ज़ुबान पर है। हमारे एक जानने वाले एक बार थाईलैंड की यात्रा पर गए थे। लौट कर अपनी अय्याशियों की डिटेल देते हुए हर बार नीतीश वाली बात बताते। किसी ने उन से पूछा , ऐसा हर बार क्यों करते थे ? उन का कहना था , ताकि एड्स न हो जाए ! अब वही तरीक़ा , नीतीश कुमार ने पढ़ी-लिखी स्त्रियों के बाबत , परिवार नियोजन के लिए तजवीज कर रहे हैं। हद्द है ! नीतीश कुमार के एक गुरु थे शरद यादव जो पढ़ी-लिखी स्त्रियों को बालकटी से विभूषित कर गए हैं। शरद ने तो इस बात के लिए कभी माफ़ी नहीं मांगी। 

नीतीश कुमार को जान लेना चाहिए कि निंदा करने वालों का अभिनंदन करने से , स्त्री का अपमान नहीं धुला करता। सरकार बनाने के लिए बारंबार पलटू राम बनना और बात है , स्त्रियों का अपमान करने के लिए अभद्र , अश्लील और निर्लज्ज भाषण दे कर पलटी मारना ,  कलंक है। फिर जिस बॉडी लैंग्वेज और चीख़-चिल्लाहट के साथ नीतीश कुमार ने माफ़ी मांगी है , उस में दुःख नहीं , हेकड़ी दिखी है। अहंकार दिखा है। पिछड़ापन इसे ही कहते हैं। किसी पिछड़ी जाति को नहीं। ताज्जुब बिलकुल नहीं है कि किसी हिप्पोक्रेट वामपंथी , किसी फ़रेबी सेक्युलरिस्ट आदि-इत्यादि की ज़ुबान निर्लज्ज बाबू की निर्लज्जता पर नहीं खुली। सब को लकवा मार गया है। बात-बेबात संसदीय राजनीति और संविधान की दुहाई देने वाले दोगले लोगों की यही कैफ़ियत है।

इस पूरे प्रसंग का एक मोड़ यह भी देखने को अगर मिल जाए कि नीतीश इस्तीफ़ा दे दें और तेजस्वी की ताज़पोशी हो जाए तो मुझे हैरत न होगी। क्यों कि इंडिया के लोग लाख चुप रहें पर नीतीश कुमार चौतरफा घिर गए हैं।

Sunday, 5 November 2023

चुप की राजधानी में साधना बनी साधन, प्रेम हुआ ट्राई

शबाहत हुसैन विजेता

दयानंद पांडेय का उपन्यास विपश्यना में प्रेम पढ़ा। पढ़ना शुरू किया तो पढ़ता ही चला गया। लगा जैसे नदी के बहाव के साथ बगैर मेहनत के बहता चला जा रहा हूं। चुप की राजधानी और जहां सांसें दहक रही थीं। जैसे शब्द शिल्प का बहाव हो वहां कहानी की गति कम कैसे हो सकती है।

दयानंद पांडेय के लेखन की खासियत यह है कि वह ज़िंदा शब्द गढ़ते हैं। उपन्यास कहानी के साथ फ़िल्म सा चलता है। हर शब्द के साथ एक चित्र भी पिरोते चलना उन्हें भीड़ से अलग खड़ा करता है। वो मूलतः पत्रकार हैं इस लिए चाहे वो लेखक के रूप में हों, उपन्यासकार के रूप में हों या फिर कवि के रूप में उन के भीतर का पत्रकार माहौल को कुरेद कर उस के भीतर से कुछ नया निकालने में लगा रहता है।

विपश्यना में प्रेम का नायक विनय पारिवारिक कलह से ऊब कर घर से भागता है। आबादी से दूर एक ऐसे आश्रम को वह अपना ठिकाना बनाता है जहां न मोबाइल है, न बाज़ार है न दोस्त हैं। वह चुप की राजधानी है,  जहां ख़ामोशी की चादर ज़िंदगी को यंत्रवत चलाती है, जहां औरत-मर्द के मिलने की मनाही है, जहां न कोई सुख बांटने वाला है, न दुःख पर बात करने वाला है, जहां भीतर के शोर से अकेले ही लड़ते रहना पड़ता है। 

इस आश्रम में ढेर सारे विनय हैं। कोई रूस का है, कोई फ्रांस का है, कोई भारत का। सभी को शांति की तलाश है।  राजधानी चुप की है तो भाषाई समस्या नहीं है , सिर्फ़ चेहरे पढ़े जा सकते हैं। मतलब साफ है कि जाति, वंश, भाषा, रंग और सीमाओं से परे है मन की अशांति। हर कोई शांति की खोज में बेताब।

बारह- बारह घंटे के ध्यान के बावजूद मन में शांति का प्रवेश नहीं हो पाता। जिस शांति की तलाश में घर छोड़ा वह तो वापस मिली ही नहीं, मन की उथल-पुथल तो जैसी की तैसी।

इसी शांति की तलाश में ही तो बुद्ध ने घर छोड़ा था। बुद्ध तो राजकुमार थे, यशोधरा जैसी खूबसूरत पत्नी और राहुल जैसा बेटा था। शानदार भविष्य बाहें पसारे इंतज़ार कर रहा था, लेकिन मन में जो कोलाहल था वह दूर न हो पाए तो राजा बन कर भी क्या हासिल हो सकता है।

विनय भी शांति की तलाश में घर से भागा था। लगातार ध्यान की कक्षाओं के बावजूद वह साधू नहीं बन पाया। वह देखता था कि उसी की तरह दूसरे भी लगातार एक ही मुद्रा में बैठने से त्रस्त हैं। उस की तरह दूसरों के शरीर भी टूट रहे हैं। वह भी रशियन पुरुष की तरह दीवार से टिक कर बैठना चाहता धा। उस का ध्यान भी लड़कियों की वेशभूषा पर जाकर टिक जाता था। वह भी आकर्षण के मोहपाश से मुक्त नहीं हो पा रहा था। एक रशियन युवती के शरीर को वह किसी मूर्ति की खूबसूरती सा तकने लगा था।

ध्यान के बाद टहलते वक्त भी वह रशियन युवती पर ही लट्टू रहता। आग उधर भी लगी थी बराबर सी। दोनों पास आते गए-आते गए। कब एक हो गए पता भी न चला। न नाम जानते थे न शहर, लेकिन मौन की भाषा ने प्रेम पर विजय पा ली थी। दोनों शरीर से भी एक हो गए थे।

आश्रम ने साधना पूरी होने की घोषणा की। आश्रम छोड़ कर जाने का समय तय किया। विनय को फिर घर से निकलना था। पिछली बार पारिवारिक कलह की वजह से घर छोड़ा था, इस बार उस प्रेम को छोड़ कर निकलना था जिस का न नाम पता था , न मोबाइल नंबर , रूस में शहर कौन सा यह भी नहीं पता था।

वह हंसते हुए विदा हो गई। वह फिर टूटा सा वापस लौट पड़ा अपने उस घर की तरफ जहां कलह थी। वह सोच रहा था कि उस की यशोधरा उस के बिना कैसे रह रही होगी, उसके राहुल की ज़रूरतें कैसे पूरी हो रही होंगी। वह तो बुद्ध भी नहीं था जो परिवार के साथ राजपाट छोड़ कर आया हो।

घर लौटते में उस ने देखा कि साधना के लिए आए उस के साथी एक दूसरे से परिचय हासिल कर रहे थे। अपने विजिटिंग कार्ड दे कर अपने बिजनेस के बारे में बता रहे थे। फ़ायदे और नुकसान गिना रहे थे। सामने वाले को ठग लेने पर आमादा थे। वो महसूस कर रहा था था कि ध्यान के बावजूद मनोवृत्तियां बदलना आसान नहीं होता। यहां तो साधना भी साधन की तरह इस्तेमाल हो गई थी।

आश्रम में उसे सिर्फ़ वो रूसी युवती मिली थी जिस ने उसे भरपूर प्यार और तृप्ति दी थी। उस से बार-बार  मिलना चाहता था मगर इतनी बड़ी दुनिया में अपनी खुशी कहां तलाशने जाए, इस सवाल का जवाब नहीं था।

विनय परिवार में लौट गया। उस के लौटने से उस के परिवार में फिर से खुशियां लौट आईं। धीरे-धीरे आश्रम की यादें भी धुंधली होती गईं। याद थी तो सिर्फ़ वह रूसी युवती जो अचानक से ढेर सारा सुख दे गयी थी। एक दिन उस के मोबाइल की घंटी बजी। रूसी युवती का फ़ोन था। वह मां बन गई थी, विनय के बच्चे की मां। उस ने बताया कि दीवार से टिक कर बैठने वाला रशियन पुरुष उस का पति है, उस की कमर में समस्या है, वह सीधा नहीं बैठ सकता। पति-पत्नी में बहुत प्यार है मगर वह मां नहीं बन पाई। बहुत इलाज कराया, आईवीएफ तक कोशिश कर डाली, सब फेल हो गया। विनय तुम्हें देखा तो सोचा तुम्हें भी ट्राई कर लूं। तुम्हें ट्राई किया तो कामयाबी मिल गई। नाक नक्श तुम्हारे ही जैसे हैं कद रूसियों का है। उस का नाम विपश्यता रखा है। कभी मास्को आओगे तो मिलवाऊंगी। फ़ोन कट गया था।

जड़वत विनय, तो सिर्फ़ साधना को साधन ही नहीं बनाया गया बल्कि प्रेम में भी ट्राई कर लिया गया। वह समझ पाने की स्थिति में नहीं है कि रिश्तों की सौदागरी यही दुनिया में विश्वास का अस्तित्व है भी या नहीं...।

मन को छू लेने वाले उपन्यास को वाणी प्रकाशन , दिल्ली ने प्रकाशित किया है। इस उपन्यास में शेक्सपियर जैसी काबलियत और पंडित शिवकुमार शर्मा के संतूर जैसी मिठास वाला संगीत हासिल होता है। मन की खिड़कियां खोलना है तो दयानंद पांडेय के इस उपन्यास का दरवाज़ा खटखटाना ही पड़ेगा।


विपश्यना में प्रेम उपन्यास पढ़ने के लिए इस लिंक को क्लिक कीजिए 


विपश्यना में विलाप 


समीक्ष्य पुस्तक :



विपश्यना में प्रेम 

लेखक : दयानंद पांडेय 

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन 

4695 , 21 - ए , दरियागंज , नई दिल्ली - 110002 

आवरण पेंटिंग : अवधेश मिश्र 

हार्ड बाऊंड : 499 रुपए 

पेपरबैक : 299 रुपए 

पृष्ठ : 106 

अमेज़न (भारत)
हार्डकवर : https://amzn.eu/d/g20hNDl