डॉक्टर सुरभि सिंह
विपश्यना में प्रेम पर स्त्री मनोविज्ञान के मद्दे नज़र एक ज़रुरी नोट
साहित्य के क्षेत्र में दयानंद जी का नाम किसी परिचय का मोहताज नहीं है। उन्होंने अनेक रचनाएं लिखी हैं। जिन्हें मैं कृतियां कहना चाहती हूं। पहले मैं ने उन की कम रचनाएं पढ़ी थीं लेकिन धीरे-धीरे उन की विभिन्न रचनाओं से और रचना शैली से परिचित होती चली गई। आज उन की रचना शैली और लेखन शैली के विषय में कुछ कहना चाहती हूं ।
उन के उपन्यास “विपश्यना में प्रेम” को पढ़ने के बाद मैं ने बहुत गहराई के साथ अनुभव किया कि दयानंद जी एक ऐसे लेखक हैं जिन्हें नारी मन की बहुत गहरी समझ है। मेरे विचार से आज के पहले बहुत कम लोगों ने नारी मन को संवेदनात्मक अनुभूतियों के तहत समझने का प्रयास किया है। लेखक ही नहीं बल्कि लेखिकाओं ने भी बहुत कम समझा है। उन्हों ने उसके व्यक्तित्व के जिन बिंदुओं का स्पर्श किया है उस तक बहुत कम लोग पहुंच पाएंगे । मेरी साहित्य यात्रा अभी इतनी समृद्ध नहीं है कि मैं दयानंद जी जैसे लेखक की किसी रचना की समीक्षा कर पाऊं। इस लिए इसे समीक्षा नाम न दे कर बस अपने विचारों की अभिव्यक्ति कहना चाहती हूं ।
जब मैंने दयानंद जी की रचनाओं को पढ़ा तो उस में एक बात बहुत अधिक उभर कर सामने आई और वह थी नारी मन की शाश्वत कामनाएं और आदिम अनुभूतियां।
उन्हों ने उन बिंदुओं की बात की उन स्वाभाविक इच्छाओं और कामनाओं की बात की जिस की बात वह स्वयं करना चाहती थी और सदियों से वह दबा दी गई ।चाहे हम “विपश्यना में प्रेम” की नायिका दारिया की बातें करें चाहे किसी अन्य रचना की नायिका का जिक्र हो।
प्रेम सदियों से गंगा की पावन धारा के समान बहता रहा है। यह पावन धारा बहुत बार उच्छृंखल भी हुई है और जब वह उच्छृंखल हुई है तो उस ने पहाड़ों और चट्टानों को भी तोड़ दिया है । ईश्वर ने जब नारी और पुरुष दो शक्तियों को बनाया तो उनके मिलन की व्यवस्था भी की और उन का यह मिलन किसी भी रूप में अनैतिक नहीं कहा जा सकता ।
जब दो लोग एक दूसरे से प्रेम करते हैं तो फिर उस प्रेम में कोई दूरी नहीं रह जाती है यदि कोई किसी का किसी अनुचित फायदा नहीं उठा रहा है शोषण नहीं कर रहा है और उनके बीच मौन अनुबंधन हो चुका है तो फिर किसी तीसरे को बोलने का कोई अर्थ नहीं है।
आज तक स्त्रियों को विभिन्न प्रकार की मान मर्यादाओं के पाठ लेखन की हर विधा में सिखाए गए हैं।कभी उन की तुलना धरती से की गई है, कभी उन को देवी का रूप माना गया है और कभी उन को अन्नपूर्णा माना गया है । उसे गृह लक्ष्मी कहा गया है लेकिन कभी भी किसी ने यह देखने का प्रयास नहीं किया कि उस का मन भी जीव वैज्ञानिक तरीके से निर्मित है। जो रासायनिक प्रक्रियाएं पुरुष के मन में घटित होती हैं, और जिन्हें समाज “स्वाभाविक” कह कर छुट्टी कर लेता है , वही उस के मन में भी सिर उठाती हैं।
हारमोंस की स्वाभाविक प्रक्रियाओं से वह भी गुजरती है । अपने मन में दबी इच्छाओं के उद्दाम आवेग से वह भी जूझती है। उस के पास उस की अभिव्यक्ति का माध्यम नहीं है। ऐसी उद्याम कामनाओं को स्वर देने का कार्य दयानंद जी ने अपनी रचनाओं के माध्यम से किया ।
जब आप उन की रचनाओं को पढ़ाना शुरू करेंगे और उस में प्रेम के खुलेपन को देखेंगे तो एक बार के लिए आप को झटका लगेगा। आप को लगेगा कि आप क्या पढ़ रहे हैं लेकिन जब आप समझना शुरू करेंगे तब आप को लगेगा इतना निर्दोष और इतना मासूम लेखन कभी किसी ने नहीं किया । सच बात तो यह है कि नारी मन की स्वाभाविक इच्छाओं को एक पुरुष के द्वारा संवेदना के धरातल पर देखा जाना एक बहुत बड़ी पहल है ।
बहुत दिनों से सोच रही थी कि मैं लिखूं तो कैसे लिखूं? क्या लिखूं? कई सारी बातें मन में उठ रही थीं, फिर लगा कि जब लिखना है तो बिल्कुल लिखना है।
मैं बहुत से लोगों से मिलती रहती हूं अनेक महिलाओं से उन की दिल की बातें सुनी हैं। मैं ने उन का अकेलापन देखा है। उन का अकेलापन सुना है। उन का अवसाद और तकलीफ़ महसूस की है। और ऐसे में जब मैं दयानंद जी के लेखन का स्मरण करती हूं या उन के पात्रों का स्मरण करती हूं तो लगता है कि शायद ये वही पात्र हैं जो अविकसित रह गए हैं। अनकहे रह गए हैं। उन को विकास का अवसर मिलना चाहिए था। उन्हें कहने का अवसर मिलना चाहिए था। जब आप “विपश्यना में प्रेम “ पढ़ेंगे तब आप को समझ में आएगा कि प्रेम जब देह की लिपि से लिखा जाता है तब भी वह बहुत सुंदर होता है और एकाग्रता की सीमा तक पहुंच जाता है ।
प्रेम इस संसार की सब से प्यारी और शाश्वत अनुभूति है। और यह भी सत्य है कि जब दो विपरीत लिंगीय लोग एक दूसरे से प्रेम करते हैं तो वह प्रेम केवल मानसिक या भावनात्मक नहीं रह जाता वह शरीर के बिना अधूरा है । यह एक ऐसा सत्य है जिस को स्वीकारना ही पड़ेगा क्यों कि बिना शारीरिक अनुभूति के प्रेम अपनी पूर्णता को नहीं प्राप्त हो सकता इस लिए इस रचना को जब आप पढ़ेंगे तब आप को एहसास होगा कि नारी मनोविज्ञान साथ-साथ प्रेम की सच्ची संवेदना भी इस उपन्यास में रची गई है। इस में एक अलौकिकता है। एक मदमस्त अल्हड़पन है। एक बेलगाम भाव है। और एक ऐसी भाषा है जो सिर्फ़ सुनना जानती है। कहना जानती है। और अपनी बात बेबाक हो कर कह देती है ।
यह जन्म सिर्फ़ एक बार मिला है। पुनर्जन्म की अवधारणा निश्चय ही होती होगी। किंतु अपने स्वाभाविक कर्म करते हुए बिना किसी पाप कर्म में प्रवृत्त हुए यदि अपने मन और अपने तन को खुश रखा जा सकता है तो इस से बड़ी कोई बात नहीं है। ऐसा ही मुझे दयानंद पांडेय जी के लेखन में अनुभव होता है। आप से अनुरोध है आप इस उपन्यास को अवश्य पढ़ें । इस को पढ़ने के बाद आप को अनुभव होगा कि आपने बहुत कुछ समझा है ।
विपश्यना में प्रेम उपन्यास पढ़ने के लिए इस लिंक को क्लिक कीजिए
समीक्ष्य पुस्तक :
विपश्यना में प्रेम
लेखक : दयानंद पांडेय
प्रकाशक : वाणी प्रकाशन
4695 , 21 - ए , दरियागंज , नई दिल्ली - 110002
आवरण पेंटिंग : अवधेश मिश्र
हार्ड बाऊंड : 499 रुपए
पेपरबैक : 299 रुपए
पृष्ठ : 106
दारिया उर्फ मल्लिका ने कथा के नायक के साथ जो किया उसे सही अर्थों में प्रेम कहा जा सकता है क्या? उपन्यास का अंत जिस प्रकार होता है वह पाठक के मन में उभरे प्रेम की उस अद्भुत छवि के ऊपर पानी डाल देता हैं जो पृष्ठ दर पृष्ठ में दयानंद जी ने बेहतरीन तरीके से उकेरी है। अंत मैं पता चलता है दारिया का उद्देश्य विनय से प्रेम करना नहीं बल्कि उससे शारीरिक संबंध स्थापित करके एक अदद बच्चा पैदा करना था जो कदाचित उसके अपने पति के साथ संभव नहीं हो पा रहा था। प्रेम तो पता नहीं कहां इस विपश्यना केंद्र में खिले गोभी के खेत में गुम हो गया होगा। साधु - साधु।
ReplyDeleteसटीक व स्पष्ट समीक्षा जो उपन्यासकार की कृति को पढ़ने के लिये प्रेरित करती है साथ ही पढने का नजरिया भी सुझाती है।
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