आशीष कुलश्रेष्ठ
'चुप चुप सी है ज़िंदगी, चुप चुप से हैं लोग।
विपश्यना में प्रेम का, छिप कर होता रोग।।'
विपश्यना का अर्थ होता है ' शांत चित्त से अपने अंतर्मन में झांकना '। अवध नगरी से प्रेम नगरी रेलगाड़ी से आते हुए मैंने 'विपश्यना में प्रेम' उपन्यास को पढ़ना प्रारम्भ किया। उपन्यास पढ़ते हुए रेलगाड़ी मेरे लिये विपश्यना का केंद्र बन चुकी थी, नितांत कोलाहल से दूर। हां , यही माद्दा रखती है श्री दयानंद पांडेय जी की लेखनी। निर्भीक पत्रकारिता, साहित्य का पर्याय बन चुके श्री पांडेय जी किसी परिचय के मोहताज़ नहीं हैं। 75 से अधिक कृतियों के सृजनकर्ता, अपने ब्लॉग 'सरोकारनामा' के माध्यम से लाखों पाठकों तक अपनी पहुंच रखने वाले लेखन के सशक्त हस्ताक्षर श्री पांडेय जी झूठ के अंधेरे में सच की लौ जलाये रखते हैं। भले ही इस आहुति में स्वयं को जला बैठें, पर झूठ को झूठ और सच को सच लिखने वाला ही निर्भीक पत्रकार अपना विशिष्ट स्थान बना पाता है और यह स्थान श्री दयानंद पांडेय जी को प्राप्त है।
श्री पांडेय जी की लेखनी का मैं प्रशंसक रहा हूं। जब इस उपन्यास की समीक्षा लिखने की बात आई तो मैं संभ्रम में था कि एक कवि भला कैसे सुचिंतित समीक्षा लिख पाएगा , लेकिन यह दुष्कर कार्य मेरे पाठक मन की दृष्टि से बन पड़ा है।
वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली से प्रकाशित श्री पांडेय जी का उपन्यास 'विपश्यना में प्रेम' का प्रारंभ बहुत ही शांत वातावरण से होता है, जैसे कि, "वह जैसे कोई चुप की राजधानी थी। आदमी तो आदमी पेड़ , पौधे, फूल, पत्ते, प्रकृति, वनस्पति सब चुप थे। जाने क्यों कोई चिड़िया भी नहीं चहकती थी। न भीतर की आवाज़ बाहर जाती थी, न बाहर की आवाज़ भीतर। अगर कोई आवाज़ कभी-कभार सुनाई देती थी तो आचार्य की। या टेप पर आचार्य के निर्देश। निर्देशों की झड़ी सी। या फिर घंटे या घंटी की। जो भी कुछ कहना-सुनना था, आचार्य कहें, आचार्य सुनें। या फिर घंटा कहें या रुनझुन बजती घंटी। या फिर लिखित निर्देश थे, जिन को पढ़ कर मान लेना और जान लेना था। लेकिन उस का इज़हार नहीं करना था। संकेतों में भी नहीं। आंखों-आंखों या संकेतों में भी किसी से कुछ कहना या सुनना नियमों की अवहेलना थी। आप शिविर से बाहर हो सकते थे, किए जा सकते थे। मन के भीतर का शोर था कि थमता ही नहीं था। लेकिन आचार्य कहते थे कि मन को नियंत्रित करना ही हमारा ध्येय है। मन को नियंत्रित करना था और मन में बसा शोर था कि थमता ही नहीं था। लगता था गोया शोर का ही निवास हो मन में। इस शोर का क्या करें आचार्य ? वह कई बार यह पूछने की सोचता था। पर जाने कोई भीतर एक और बैठा था इस शोर के सिवाय भी जो पूछने ही नहीं देता था।"
उपन्यास के ये प्रारंभिक अंश ही कथानक का ताना बाना बुन देते हैं। यह अंश पाठक को एकाग्रता प्रदान करने में सहायक होता है। जैसे जैसे कथानक आगे बढ़ता है, पाठक स्वयं समाधिस्थ हो जाना चाहता है। कोलाहल से दूर किसी शिविर का लगना और अनुशासन, मन पर नियंत्रित करना अंतर्मन को आनंदित व शांत चित्त करता है।
उपन्यास की केंद्र भूमि एक विपश्यना शिविर है, जहां विनय मन की शांति की तलाश में घर की कुछ समस्याओं से दुखी होकर घर से भाग आता है। यहां पर उसे शांति के नाम पर घोर कोलाहल से दूर नितांत चुप्पी मिलती है। वाणी के नाम पर मात्र टेप पर आचार्य के निर्देश अथवा कभी-कभी उनके निर्देशों की झड़ी या फिर घंटे/घंटी की आवाज़। सांकेतिक वाणी की भी मनाही है, यानि कुल मिला कर चुप की राजधानी।
विनय ने अनुभव किया है कि,"अब मौन में ही सोना था, मौन में ही जगना था। मौन में ही नहाना था, मौन में ही खाना था। मौन क्या था मन के शोर में और-और जलना था। तो क्या मौन मन को जला डालता है? पता नहीं, पर अभी तो यह मौन मन को सुलगा रहा था। बिना धुएं और बिना आंच के। धीमी आंच पर जैसे सांस दहक रही थी। मौन की मीठी आंच एक अजीब सी दुनिया में ले जा रही थी। आंखें बंद थीं और जैसे मदहोशी सी छा रही थी। यह कौन सी दुनिया थी ? दुनिया थी कि सपना थी ? सपना कि कोई और लोक ? मदहोशी की यह खुमारी भीतर-भीतर जैसे गा रही थी, 'आज मदहोश हुआ जाए रे मेरा मन, मेरा मन,....मुसकुराए रे मेरा मन !' शाम होते न होते यह मदहोशी भी टूटने लगी थी। ध्यान कक्ष में ध्यान , अब देह की थकान में तब्दील हो रही थी यह मदहोशी। कमर टूट रही थी। शाम के नाश्ते ने कुछ थकान मद्धिम तो की पर प्रवचन में यह बिलकुल ही उतर गई। प्रवचन में विचारों की खिड़की थी , जो भावों की शुद्धता थी और तर्किकता की जो कड़ी दर कड़ी थी।"
लेखक ने विनय के माध्यम से एक सामान्य व्यक्ति के किसी शांत वातावरण में मन में चल रहे नाना प्रकार के झंझावतों को उकेरा है। लेखक की लेखनी से शिविर में व्याप्त शांति और मन में चल रहा द्वंद्व बच नहीं पाया है। सामान्य मनुष्य का यही स्वभाव है पर विनय तो बुद्ध की शरण में बुद्ध को जानने समझने आया है और महात्मा बुद्ध के नाम पर यहां उसे कुछ नहीं मिलता है। मिलती है तो बस बुद्ध की तपस्या। बुद्ध को समझने के लिये विनय स्वयं ही चिंतन करने लगता है। वह वहां उपस्थित वातावरण पर मनन करता है। वह बुद्ध, उन की पत्नी यशोधरा और पुत्र राहुल की मनोस्थिति पर चिंतन करता है कि जब बुद्ध ने घर छोड़ा तो बुद्ध की, यशोधरा की और राहुल की तत्कालीन मन:स्थिति व स्वयं की इस वातावरण की स्थिति की तुलना करने लगता है क्यों कि इस कड़े अनुशासन, मौन वातावरण और ध्यानावस्था में उसे अपनी पत्नी, बेटे-बेटी,अम्मा-पिता की याद आने लगती है। वह आचार्य से मिल कर जाने की अनुमति चाहता है पर विवश है क्योंकि शिविर में प्रवेश करते समय भरे गये बॉन्ड और अनुशासन के नियम उसे बांधे रखते हैं। वह सोचता है,"क्या जब बुद्ध ने घर छोड़ा रहा होगा तो क्या उन्हें भी अपने बेटे और पत्नी की सुधि नहीं आई होगी ? माता-पिता, कुटुंब याद नहीं आए होंगे। वह महल, वह ऐश्वर्य, वह सुविधा-साधन और भोग नहीं याद आए होंगे?
ज़रुर याद आए होंगे।
तब फिर क्यों नहीं लौटे बुद्ध ? अपने घर क्यों नहीं लौटे बुद्ध ? बुद्ध नहीं लौटे और कि वह दो चार दिनों में ही लौट जाना चाहता है ? क्या यह मौन रहने की, अनुशासन में रहने का नतीज़ा है।"
और फिर खो जाता है विनय बुद्ध के चिंतन में। उसे बुद्ध का त्याग, यशोधरा का दुःख और राहुल के बाल मन स्थिति याद आते हैं। वह इसी संदर्भ में निरंतर चिंतन मनन करता रहता है।
कथानक में एक ऐसा भी पड़ाव आता है जहाँ ग्रामीण/शहरी , देशी विदेशी स्त्री पुरुषों के मध्य ध्यानावस्था से निकल कर ध्यान टूटता है, "आंख खुलती है। एक गोरी सी रशियन स्त्री के अकुलाए वक्ष पर उस की आंख धंस गई है। उस की स्लीवलेस बाहें जैसे बुला रही हैं। अब ऐसे में कैसे कोई ध्यान करे। जब मन में देह का ध्यान आ जाए तो सारे ध्यान बिला जाते हैं। सारे विलाप बिला जाते हैं। सारी विपश्यना बिला जाती है। बिलबिला जाती है।" और फिर धीरे-धीरे वह गौरी रसियन उस के संपर्क में आने लगती है। इस के पश्चात यह चुप की राजधानी उस के लिये उत्साह उमंग की राजधानी बन जाती है लेकिन फिर भी कहीं न कहीं चुप्पी अभी भी बनी हुई है , सांकेतिक हाव भाव को छोड़ कर। उस के हृदय में गौरी रसियन के प्रति प्रेम पुष्प पल्लवित होने लगता है। वह स्वयं को उस के प्रति प्रेम या कहिये देह आकर्षण के अंतरद्वंद्व में फंस जाता है और एक शाम ,"अचानक उसे लगता है कि कोई उस के पीछे आ रहा है। यह पहली बार है। सो मुड़ कर देखता है। वही रशियन स्त्री है। वह अपने क़दम धीमे कर लेता है। धीरे-धीरे वह स्त्री उस के बगल में चलने लगी है। विनय ने मुड़ कर फिर पीछे देखा है कि क्या कोई और भी है क्या पीछे। देखा तो पाया कि कोई नहीं है। वह निश्चिंत हो जाता है। वह स्त्री आहिस्ता-आहिस्ता चलते हुए उस के क़रीब आती जाती है। स्पर्श की हद तक। विनय अब क्या करे भला ? यह सोचते ही उस के भीतर कोई बिजली सी चमक जाती है। ऐसे जैसे कोई शार्ट सर्किट हो गया हो। बिजली गुम हो गई हो। सहसा उस ने बढ़ कर उसे बाहों में भर कर चूम लिया है। वह रशियन स्त्री अवाक रह गई है। उसे विनय इस तरह इतनी जल्दी चूम लेगा , इस का बिलकुल अंदाजा नहीं था। प्रत्युत्तर में वह भी चूम लेती है विनय को। दोनों ज़रा देर आलिंगनबद्ध हो कर एक दूसरे को चूमते रहते हैं। आहिस्ता-आहिस्ता फिर बेतहाशा। बाहों के दरमियां रात गहरी हो रही है। वह दोनों लिली के फूल की झाड़ की ओट ले लेते हैं। फिर आम के वृक्ष की तरफ सरक जाते हैं। जहां बिजली की हलकी रौशनी भी नहीं पहुंच पा रही। दोनों में कोई शाब्दिक संवाद नहीं है। दोनों की देह संवादरत हैं। अजब कश्मकश है। यह देह का संघर्ष है , मन का संघर्ष है , वासना का संघर्ष है कि विपश्यना के कारण निकले विकार का संघर्ष है ?"
वाचिक भाषा से अधिक दैहिक भाषा असर करने लगती है। विनय भोगे गए आनंदित पलों को कभी यथार्थ, कभी कल्पना और कभी स्वप्न में अनुभूत करने लगता है। वार्तालाप के अभाव में विनय उस का नाम मल्लिका रख देता है। जब मौन वार्तालाप का क्रम टूटता है और वह मल्लिका अपना नाम दारिया तथा विनय अपना नाम बताता है। विपश्यना शिविर में उपजे प्रेम की गहराइयों की पड़ताल, मन:स्थिति को लेखक ने बहुत ही बारीकी से भाव-भूमि प्रदान की है। कथानक जैसे जैसे आगे बढ़ता है , शिविर में आए लोगों की सच्चाई सामने आने लगती है। सभी एक ही उद्देश्य से न आ कर अपने-अपने स्वार्थवश शिविर में आए हैं। शिविर के अंतिम दो दिनों में जब आलिंगनबद्ध मल्लिका वाचिक भाषा में अपना संक्षिप्त परिचय देती है तब चुप की राजधानी अपनी ख़ामोशी तोड़ देती है, पर मेरा कवि मन तो पहले ही सृजन कर चुका है-
'मेरा शहर आज कल बहुत चुप चुप है,
ख़ामोशियों से कह दो वो मेरा शहर छोड़ दे।'
अब आचार्य द्वारा सबसे मिलने, बात करने, घूमने फिरने की छूट दे दी गई है। सब अपने-अपने परिचय, अनुभव प्रदान कर रहे हैं।
विनय को विदाई के दिन एक आघात लगता है जब उस की मल्लिका अपने पति से मिलवाती है और यहीं चुप की राजधानी उस का चित्त नाना प्रकार के वैचारिक कोलाहल से व्याप्त हो जाती है। अब वह घर लौट आया है और उस की जीवन शैली भी बदल गई है। कई महीनों पश्चात दारिया का फोन आता है और वह बताती है कि वह उसके बच्चे की मां बन गई है। फ़ोन पर वार्तालाप के पश्चात विनय के एक बार बच्चे से मिलवाने के आग्रह और अंत में दारिया के बोल "साधु-साधु" के साथ कथानक का अंत होता है।
"कैसे कहती अपनी पीड़ा, खेला विपश्यना में प्रेम रास,
खाली झोली भर दी जो, फलीभूत हुआ जीवन आकाश।"
संपूर्ण कथानक में अंतर्मन के एवं परस्पर संवाद पाठक को विचलित नहीं करते हैं , लगता है जैसे पाठक स्वयं विपश्यना केंद्र में हो। यह उपन्यास एकाग्र हो कर पढ़ने को विवश करता है। कथानक शिविर में उत्पन्न विभिन्न स्थितियों को वर्तमान सामाजिक राजनीतिक स्थितियों से जोड़ने का क्रम पाठक को विपश्यना से बाहर लाने का प्रयास करता है तथा पुनः विपश्यना में लौट जाना इसकी विशेषता को दर्शाता है। कहीं-कहीं यह क्रम पाठक मन की निरंतरता को कुछ क्षण के लिए बाधित करता है लेकिन कसा हुआ कथानक ही पूरे उपन्यास को एक बार और बार-बार पढ़ने का मोह त्याग नहीं पाता है। लेखक अपनी पत्रकारिता का अनुभव भी इस उपन्यास मे समेटते दिख पड़ते हैं।
आलंकारिक भाषा-शैली को समेटे हुए कथानक/संवाद अपना चुंबकीय प्रभाव बनाएरखते हैँ। उपन्यास के मध्य तक तो कथोपकथन न के ही बराबर है। इस का मूल कारण यही है कि पूरी पृष्ठभूमि विपश्यना केंद्र है और उस पर भी विभिन्न देशों/प्रदेशों के लोगों के मध्य भाषिक कठिनाई है। बिना संवाद के भी उपन्यास की रोचकता को बनाए रखना श्री पांडेय जी की लेखनी से ही संभव है। उपन्यास में मुख्य पात्रों का जमावड़ा नहीं है। कथानक को गति देने के लिये गौण पात्रों को गढ़ा गया है। शिविर के वातावरण को शब्दश: लेखनी मिली है। उपन्यास में समाज और दर्शन के वैचारिक भाव प्रकट होते हैं। जहां इस उपन्यास में विपश्यना का दर्शन मिलता है वहीं मानवीय दुर्बलताओं का चित्रण हुआ है।
यहां यह कहना पुनः अतिश्योक्ति नहीं ही होगी कि उपन्यास की भाषा शैली चमत्कृत करती है और पाठक को कथानक/वातावरण से दूर नहीं जाने देती है। लेखक इसी आधार बिंदु पर अपनी लेखनी को सफल कर ले जाते हैं। गद्य शैली में लिखे गए उपन्यास का ही प्रभाव है कि कवि मन इस में पद्य की छांव देखता है। यह उपन्यास साहित्याकाश में धवल प्रकाश फैलाए , इसी शुभकामना के साथ- साधु-साधु !
विपश्यना में प्रेम उपन्यास पढ़ने के लिए इस लिंक को क्लिक कीजिए
समीक्ष्य पुस्तक :
विपश्यना में प्रेम
लेखक : दयानंद पांडेय
प्रकाशक : वाणी प्रकाशन
4695 , 21 - ए , दरियागंज , नई दिल्ली - 110002
आवरण पेंटिंग : अवधेश मिश्र
हार्ड बाऊंड : 499 रुपए
पेपरबैक : 299 रुपए
पृष्ठ : 106
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