Thursday, 9 November 2023

विपश्यना में प्रेम : प्रेम का महाकाव्य

 तरुण निशांत 

आप इश्क़-ए-मजाज़ी, काम या सेक्स को जितना लांछित कर लीजिए, प्लैटॉनिक लव, अशरीरी प्रेम या इश्क़-ए-हक़ीक़ी को जितना भी ऊंचा स्थान दे दीजिए, इस धरा पर मानव जीवन का यथार्थ इन सबसे बदलने वाला नहीं है। सामाजिक यथार्थ को उस की सूक्ष्मता में पकड़ना ही एक रचनाकार का लक्ष्य होता है और वरिष्ठ पत्रकार एवं साहित्यकार दयानंद पांडेय ने अपनी नवीनतम कृति "विपश्यना में प्रेम" में इस सच को उजागर किया है। प्रेम में तन-मन-धन, सब कुछ समाहित होता है और देह की छुअन से प्रेम अपवित्र या कम मूल्यवान नहीं हो जाता। प्रेम मन का मिलन है तो तन की तृप्ति भी।

इस उपन्यास को पढ़ाते हुए गुलज़ार निर्देशित फिल्म "इजाज़त" की याद आती है। रेखा और नसरुद्दीन शाह अभिनीत यह फिल्म रेलवे प्लेटफार्म के एक वेटिंग हॉल से शुरू होकर उस की कहानी प्लेटफार्म के उसी वेटिंग रूम में खत्म होती है, बीच-बीच में फ्लैशबैक में कहानी को विस्तार देते हुए। यहां भी इस उपन्यास की कथा एक विपश्यना शिविर की चारदीवारी के भीतर शुरू होती है और कथा का अंत भी यहीं होता है। इस प्रकार यह उपन्यास पाठकों को बाहरी दुनिया का भ्रमण नहीं कराता बल्कि व्यक्ति के मन और मस्तिष्क में चल रहे उद्वेलन से साक्षात्कार कराता है। यह भी गौरतलब है कि इस कृति में मुख्य रूप से सिर्फ़ दो ही चरित्र हैं: विनय और दारिया। बाकी चरित्र कहानी के बीच में आते जाते रहते हैं।

उपन्यास के शीर्षक से ही पाठकों को स्पष्ट हो जाता है कि यह रचना प्रेम के इर्द-गिर्द बुनी गई है। लेकिन चरित्र चित्रण में उपन्यासकार ने यहां यथार्थ का परिचय दिया है कि आदमी न तो देवता है और न ही जानवर। उस के अंदर यदि स्वार्थ की सतत् सलिला बहती रहती है तो अवसर आने पर व्यक्ति दूसरों के लिए भी अपने जान की बाजी लगा देता है। वस्तुत: विनय और मल्लिका (दारिया) के बीच शारीरिक संबंध का प्रादुर्भाव स्वार्थवश होता है। दारिया मां बनना चाहती है लेकिन लाख कोशिशों के बावजूद अपने पति से वह अपनी गोद भरने में असफल रहती है। दारिया के अंदर मां बनने की लालसा इतनी तीव्र है कि वह पाप-पुण्य के द्वंद्व से पार चली जाती है। विपश्यना शिविर में जब वह विनय से जा टकराती है तो वहां उसे एक संभावना नज़र आती है। पाठक चाहे तो दारिया को कुलटा या वासना में लिप्त एक औरत समझ सकता है लेकिन दारिया का लक्ष्य उस के मस्तिष्क में बहुत स्पष्ट रूप से अंकित है और विपश्यना शिविर में पति की उपस्थिति को दरकिनार कर वह विनय से मां बनने को अपना ध्येय बना लेती है।

मल्लिका और विनय के बीच शारीरिक स्तर पर संबंध की शुरुआत भले ही स्वार्थ से होती है परंतु इस का अंत स्वार्थ के बिंदु पर नहीं होता बल्कि यह कहानी बहुत आगे बढ़ जाती है जब उपन्यास अपने अंत पर पहुंचता है। दारिया चाहती तो पुत्र प्राप्ति के बाद विनय नाम के पुरुष का अस्तित्व अपने अंतर से हमेशा हमेशा के लिए बाहर निकाल कर फेंक सकती थी और ऐसा करने में उसे किसी भी प्रकार की कठिनाई या झिझक नहीं होती। विपश्यना शिविर समाप्त होने के पश्चात वह अपने देश रूस लौट गई है और विनय को उस के या बेटे के बारे में कोई खबर नहीं मिलती यदि वह स्वयं विनय को फ़ोन कर इस की जानकारी नहीं देती। फ़ोन या वीडियो कॉल पर बात करते समय वह विनय से आज भी उतना ही जुड़ाव महसूस करती है जितना शिविर के समय था। जाहिर सी बात है कि यह जुड़ाव शारीरिक नहीं बल्कि आत्मिक है, हज़ारों किलोमीटर दूर अलग-अलग देशों में दो अलग-अलग सांस्कृतिक माहौल में पले बढ़े दो लोगों के बीच। दारिया के समक्ष विकल्प होने के बावजूद वह अपने बेटे के जैविक पिता यानी विनय से मानसिक स्तर पर दूर नहीं होती है और किसी समय रूस बुलाने और उस के बेटे से उस की मुलाक़ात  करवाने की बात भी कहती है। तो यह प्रेमकथा देह से शुरू हो कर दिल तक जा पहुंचती है और यही उपन्यास की ख़ूबसूरती  है।

यह कृति बुद्ध और यशोधरा के बहाने आधी दुनिया से संबंधित अलग-अलग सवालों से मुठभेड़ करती दिखाई पड़ती है। उपन्यासकार ने एक मौजूं सवाल उठाया है: यदि यशोधरा की संतान बेटी होती तो क्या बुद्ध उसे भिक्षा में लेते ? यह मसला सिर्फ़ बुद्ध और यशोधरा के बीच का नहीं है बल्कि इस प्रश्न को वह पूरी मानव सभ्यता के समक्ष उछाल रहा है। सभी जानते हैं कि बुद्ध अपने संघ में स्त्रियों के प्रवेश पर सहमत नहीं थे। आनंद जैसे अपने शिष्यों के दबाव में उन्हों ने स्त्रियों के संघ में प्रवेश की अनुमति दी थी। बुद्ध पूरी मानव जाति के लिए महात्मा थे लेकिन उपन्यासकार यहां बुद्ध नहीं, यशोधरा के साथ खड़ा होना दिखना चाहता है जब वह पूछता है कि बुद्ध ने यशोधरा को राहुल से क्यों अलग किया? यशोधरा का यह त्याग क्या बुद्ध के तप की तुलना में कमतर है ?

रचनाकार इस उपन्यास में "शोर" पर केंद्रित होते हुए अलग-अलग संदर्भों में इस की परख करता है: आप मौन हैं तो इस का अर्थ यह नहीं कि आप के अंदर सब कुछ शांत है। मन में उठता हुआ शोर बाहरी कोलाहल से कहीं अधिक आदमी को रौंदता है। विनय की आड़ में लेखक अपने आप से पूछता है कि सिद्धार्थ के राजमहल त्याग कर वन चले जाने के पीछे भी उन के मन में उठा कोई शोर ही तो नहीं था ! फिर वह अकेली रह गई यशोधरा के भीतर उठे शोर या विलाप पर कहता है कि क्या उस के बारे में सिद्धार्थ या किसी ने सोचा भी। इसी संदर्भ में वह राम द्वारा सीता त्याग की बात भी करता है। विपश्यना शिविर में ध्यान सत्र के दौरान एक स्त्री का ऊंची आवाज़ में बोलते हुए लगातार झूमने वाले दृश्य को भी एक सामान्य घटना मान कर वह इसे उपेक्षित नहीं करता। उस का मन इस बात से आहत है कि ध्यान कक्ष में विलाप कर रही इस स्त्री के दुख के बारे में वहां उपस्थित लोग अपने ध्यान में लगे रहे और किसी को भी मानसिक रूप से विचलित होते उस ने नहीं देखा। क्या विपश्यना ही अंतिम लक्ष्य है और क्या जगत के दुखों के प्रति हमें इस तरह संवेदनहीन हो जाना चाहिए? पता नहीं, उस स्त्री के पास कौन सा दुख था ? क्या उस का पति भी सिद्धार्थ की तरह घर छोड़ कर कहीं चला तो नहीं गया है ? मेडिकल साइंस इसे हिस्टीरिया कहता है लेकिन इस दुख का इलाज क्या है ? अपनी जवान देह का भार कोई स्त्री कब तक अकेले उठाती रहेगी। यहां उल्लेखनीय है कि डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद ने भी अपनी आत्मकथा में गांव की औरतों के ऐसे दुखों के बारे में लिखा है जिन की देह उनके जीवनसाथी की नादानी या मजबूरी से अतृप्त रह जाती है।

उपन्यास में एक स्थान पर तथ्यात्मक त्रुटि है जब लेखक पूछता है कि क्या लुंबिनी भी यशोधरा के साथ विलाप में डूबी थी ? यहां लुंबिनी नहीं, कपिलवस्तु होना चाहिए क्योंकि सिद्धार्थ का जन्म लुंबिनी में हुआ था लेकिन वह कपिलवस्तु के राजकुमार थे। पुन: विनय के मित्र का सेक्युलर प्रसंग इस उपन्यास की संगति/तेवर से मैच नहीं करता है। यदि यह प्रसंग नहीं होता तो भी इस से उपन्यास की पूर्णता पर कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता। उपन्यास में एक जगह विरोधाभास भी है जब शुरू में लेखक यह कहता है कि विनय मन की शांति की तलाश में घर से लगभग पगहा तुड़ा कर, भाग कर इस शिविर में आया था और बाद के एक पृष्ठ पर वह यह लिखता है कि विनय के पास कोई ऐसा-वैसा तनाव भी नहीं था। वह तो सिर्फ़ घर की कुछ समस्याओं से आज़िज आ कर यहां आया था।

"विपश्यना में प्रेम" एक उपन्यास नहीं बल्कि मेरी समझ में एक महाकाव्य है, प्रेम का महाकाव्य। कृति के हर शब्द, हर वाक्य, प्रत्येक पैरा से काव्य की ध्वनियां प्रस्फुटित हो रही हैं। विपश्यना शिविर में ध्यान लगाने का अभ्यास करते-करते एक स्टेज के बाद व्यक्ति जैसे अमृत यात्रा पर निकल पड़ता है, कुछ कुछ वैसे ही इस उपन्यास को पढ़ते हुए प्रबुद्ध पाठक का हृदय संगीत से भर जाता है। यह है उपन्यासकार का भाषा कौशल। अद्भुत ! विलक्षण ! जिस प्रकार काव्य रचना का मूल तत्व लय होता है, आरंभ से अंत तक इस उपन्यास में ग़ज़ब की लयात्मकता है। ऐसा सिर्फ़ दो चार दस पैराग्राफ़ में नहीं बल्कि यह लयात्मकता उपन्यास के शुरू से अंत तक है। फिर कौन कहेगा कि गद्य में पद्य नहीं रचा जा सकता ! इस उपन्यास ने तो गद्य और पद्य के विभेद को मिटा दिया है। इस लिए मैं इस रचना को उपन्यास के साथ-साथ प्रेम का एक महाकाव्य मानता हूं।


विपश्यना में प्रेम उपन्यास पढ़ने के लिए इस लिंक को क्लिक कीजिए 


विपश्यना में विलाप 


समीक्ष्य पुस्तक :



विपश्यना में प्रेम 

लेखक : दयानंद पांडेय 

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन 

4695 , 21 - ए , दरियागंज , नई दिल्ली - 110002 

आवरण पेंटिंग : अवधेश मिश्र 

हार्ड बाऊंड : 499 रुपए 

पेपरबैक : 299 रुपए 

पृष्ठ : 106 

अमेज़न (भारत)
हार्डकवर : https://amzn.eu/d/g20hNDl


     

     

               


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