भवतोष पांडेय
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कथानक , कथावस्तु और उद्देश्य
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कथानक के केंद्र में है विनय नाम का पात्र जो एक गृहस्थ है और कुछ दिनों के लिए गृहस्थ को तज कर या यूं कहिए घर परिवार से छुट्टी ले कर विपश्यना के ध्यान शिविर में आता है ; ध्यान और साधना के अभ्यास के लिए ।
शिविर का नियम है - मौन ।
बल ,दबाव और कृत्रिम अनुशासन के बावजूद मन का शोर है कि थमता ही नहीं । विनय मन की शांति की खोज में घर से पगहा तुड़ा कर और भाग कर इस शिविर में आया था । स्पष्ट है कि उस का गृहस्थ जीवन अशांत और अरुचिकर रहा होगा !
विनय यहां अकेले नहीं है जो इस शिविर में आया है तनाव के टेंट को तोड़ने के लिए । विविधता समेटे कई ग्रुप आए हैं जो शांति की तलाश में हैं या उसका अभिनय कर रहे हैं !
क्या कोई शिविर किसी को शांति दे सकता है ?
इसी प्रश्न की पड़ताल करते -करते लेखक ने साधन -साधना , वासना -विपश्यना , मौन -स्वर , शांति -कोलाहल आदि युग्म पर एक अच्छी बहस का सृजन किया है ।
एक बानगी ,
‘लोग कहते हैं , मौन में बड़ी शक्ति होती है । तो मौन मन के शोर को क्यों नहीं शांत कर पाता । ‘
विनय सोचता है कि कहीं मौन का अनावश्यक महिमामंडन तो नहीं किया गया है ?
कई अमूर्त तथ्यों और अवधारणा का मूर्तिकरण कर लेखक ने कठिन चीज़ों को पाठकों के सामने बहुत ही सीधे शब्दों में रखा है -
‘ विपश्यना शिविर में विनय भी अपने मौन के शोर को अब सँभाल नहीं पा रहा था । मौन का बांध जैसे रिस -रिस कर टूटना चाहता था । शोर की नदी का प्रवाह तेज़ और तेज़ होता जा रहा था ।…’
कथा आगे बढ़ती है और दिलचस्प मोड़ लेती है जब नायिका जिसे विनय ने एक अस्थायी नाम मल्लिका दिया है , शिविर में उस का ध्यान खींचती है ।
यह उपन्यास का वह प्रस्थान बिंदु है जहां विपश्यना में वासना का संगीत स्वरित होता है , जो कभी प्रेम के आवरण में तो कभी निर्वस्त्र वासना का रूप लेता है । और यहां पर लेखक स्त्री के देह के सौंदर्य शास्त्र और मन का व्याख्याता बना कर विस्तार से स्त्री के देह और मन की व्याख्या करता है । विनय और दारिया (मल्लिका)के बीच के प्रेम व्यापार का वर्णन और उस का प्रदीर्घ विस्तार उपन्यास की आंशिक सीमा भी बनी है । विनय और मल्लिका के बीच वासनजन्य प्रेम प्रदर्शन की बारंबार कमेंट्री साहित्य के संस्कारवादियों को खटक सकती है ।
कहानी की गति अंत में बढ़ती है और कुछ ऐसी चीज़ें उद्घाटित होती है जो पाठकों के सामने विपश्यना का ऐसा सच प्रस्तुत करती है जिस से पाठक विस्मित हो जाते हैं ।
कुछ प्रतिभागी केवल मज़े के लिये शिविर में शामिल होते हैं तो कुछ अपने पर्यटन उद्योग में एक आइटम की तरह विपश्यना को देखते हैं । कुछ के लिए विपश्यना शिविर एक सस्ता रिसोर्ट से ज़्यादा कुछ नहीं । सब से ज़्यादा ठगा विनय तब महसूस करता है जब उसे पता चलता है कि उस की अस्थायी प्रेमिका अपने पति के साथ विपश्यना में आई हुई थी । उस का वास्तविक उद्देश्य कुछ महीनों बाद उद्घाटित होता है । यह जानने के लिए आप को उपन्यास पढ़ना होगा ।
चरित्र निर्माण
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लेखक ने अनावश्यक आदर्शवादी चरित्र गढ़ने के बजाय वास्तविक किरदारों का निर्माण किया है और कथा -विन्यास को वायवीय होने से बचाया है । चारित्रिक दुर्बलता , व्यभिचार और बेवफ़ाई मल्लिका (दारिया ) और विनय दोनों में ही पूर्ण मात्रा में प्रदर्शित है ।
भाषा शैली और वातावरण निर्माण
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उपन्यास की भाषा में आद्यंत प्रवाह है जो पाठकों को बांधे रखता है । रचनाकार ने परिष्कृत और संस्कृतनिष्ठ भाषा की जगह आम बोल चाल की भाषा का प्रयोग किया । लेखक ने कई जगहों पर अपनी बातों को प्रभावी ढंग से कहने के लिए फ़िल्मी गानों का प्रयोग किया है । अंग्रेज़ी शब्दों की प्रसंगानुसार बहुलता है । लेखक ने शब्दों का वितान ऐसा रचा है कि मानो पाठक विपश्यना शिविर का वासी है । रचनाकार का यह वातावरण निर्माण सराहनीय है ।
मज़बूत पक्ष और पठनीयता
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आजकल विपश्यना जाना एक फ़ैशन सा है जिसे ‘कूल कल्चर’ भी माना जा रहा है । लेकिन विपश्यना की सच्चाई से हर कोई अवगत नहीं । रचनाकार ने इस कथा साहित्य के माध्यम से विपश्यना की मार्केटिंग के शोर- शराबे का सच उजागर करने की कोशिश की है जो अपने आप में एक नया प्रयास है।
नये कथ्य ,प्रवाहमयी भाषा और रोचकता इस उपन्यास को पठनीय बनाते हैं।
[ भवतोष पाण्डेय (bhavtoshpandey.com) से साभार ]
विपश्यना में प्रेम उपन्यास पढ़ने के लिए इस लिंक को क्लिक कीजिए
समीक्ष्य पुस्तक :
विपश्यना में प्रेम
लेखक : दयानंद पांडेय
प्रकाशक : वाणी प्रकाशन
4695 , 21 - ए , दरियागंज , नई दिल्ली - 110002
आवरण पेंटिंग : अवधेश मिश्र
हार्ड बाऊंड : 499 रुपए
पेपरबैक : 299 रुपए
पृष्ठ : 106
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जरूरी जानकारी से भरा पोस्ट।
ReplyDeleteदयानंद पांडेय जी अब फेसबुक पर नहीं हैं क्या मैं उनका लिखा पढ़ने के लिए उन्हें खोज रहा
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