दयानंद पांडेय
अर्चना प्रकाश के पास कहानियां बहुत हैं। इन कहानियों को कहने के लिए आकुलता भी पर्याप्त है। कहानियों को कहने के लिए वह क्राफ़्ट , फार्मेट आदि के चोंचलों में नहीं पड़तीं। जैसे नदी बहती है। कभी सीधी , कभी मुड़ती , कभी पाट बदलती हुई। ठीक वैसे ही अर्चना प्रकाश की कहानियां भी बहती रहती हैं। पाट बदलती हुई। पर नदी का चरित्र नहीं छोड़तीं। नदी मतलब स्त्री। स्त्री संवेदना और इस संवेदना की थकन अर्चना प्रकाश की कहानियों का कथ्य है। अपने आस-पास की कथा को बस पात्रों का नाम बदल कर वह परोस देती हैं। बिना लाग-लपेट के। जैसे नदी में सिर्फ़ नदी का पानी ही नहीं होता , शहरों का सीवर आदि का पानी भी मिलता चलता है , फैक्ट्री का कचरा भी मिलता जाता है। ठीक वैसे ही अर्चना प्रकाश की कहानियों में मूल पात्र के साथ अन्य पात्र भी मिलते जाते हैं। जैसे नदी जब बहती है तो अपने साथ हीरा , मोती , मिट्टी , कूड़ा , कचरा सब बहा ले चलती है। अर्चना प्रकाश भी नदी बन कर यही करती हैं। बाद में ठहर कर जैसे नदी के पानी को साफ़ करती हैं। और तय करती हैं कि कहानी के लिए इस पानी में से क्या लेना है , क्या छोड़ देना है। इसी लिए अर्चना प्रकाश की कहानियों में पात्रों के नाम भले काल्पनिक लगें पर कहानियां असली लगती हैं।
अर्चना प्रकाश की कहानियों में अकेली होती जाती प्रौढ़ स्त्री के चित्र बहुत मिलते हैं। जैसे अस्तित्व की संजीवनी की भूमि। मन की पांखें की शैलजा। कर्ण की नियति की मंदाकिनी। मैं सावित्री नहीं की वैदेही। गांधारी का पुनर्जन्म की गायत्री। ऐसी ही और स्त्रियां। अस्तित्व की संजीवनी की भूमि पति के न रहने पर बच्चों को पढ़ाने-लिखाने में ख़ुद को होम कर देती है। पर यही बच्चे बड़े हो कर मां के त्याग को लात मार कर अपनी दुनिया में जीने लगते हैं। बच्चों से बहुत दुत्कार पाने के बाद भूमि अपने अस्तित्व को हेरती है और बच्चों के मोहपाश से निकल कर अपने अस्तित्व की संजीवनी तलाश लेती है। मैं सावित्री नहीं की वैदेही का संत्रास और है। लंपट और बीमार पति के साथ तनावपूर्ण जीवन , बच्चों की परवरिश ही उस का जीवन है। तमाम व्रत और उपाय करती वैदेही पति के प्रचंड मारकेश को टालने के यत्न में जीवन खपा बैठती है। और पति उसे पांव की जूती समझता है। उंगलियों में सिमटी दुनिया ईशा और रेवांत की प्रेम कहानी का घरेलू संस्करण है। इस प्रेम में न ज़्यादा मोड़ है , न संघर्ष। प्रेम ऐसे मिल जाता है जैसे नौकरी। कुछ-कुछ हिंदी फिल्मों जैसा।
अर्चना प्रकाश की कहानियों के इस संग्रह में स्त्रियों का संघर्ष , उन की संवेदना और उन का मर्म बहुत शिद्दत से उपस्थित है। लगभग हर कहानी का तार स्त्री विमर्श की इस कश्मकश को छूता हुआ मिलता है। स्त्री की हर ख़ुशी में भी विवशता का रैपर लिपटा हुआ मिलता है अर्चना प्रकाश की कहानी में। अगर किसी कहानी में स्त्री विवश नहीं है तो समझ लीजिए वह कहानी अर्चना प्रकाश ने नहीं लिखी है। स्त्री विवशता की इबारत के बिना अर्चना प्रकाश की कहानी पूरी नहीं होती। स्त्री विवशता अर्चना प्रकाश की कहानियों में बिजली का नंगा तार बन कर उपस्थित है। भरपूर करंट लिए हुए। नई पहचान तथा गांधारी का पुनर्जन्म भी मन की पांखें कहानी की तरह हिचकोले खाती स्त्री विवशता की चौखट तोड़ती कहानियां है। गांधारी का पुनर्जन्म कहानी संग्रह की शीर्षक कहानी भी है। यूनिवर्सिटी टॉपर गायत्री का विवाह एक आई ए एस अफ़सर से हो जाता है। आई ए एस औरतबाजी के नित नए कीर्तिमान बनाता रहता है। गायत्री मायके जा कर सारे क़िस्से माता-पिता को बताती है। पर मां -बाप उसे चुप रहने की सलाह देते हैं। वह गांधारी बन कर चुप रहने लगती है। पर जब बच्चे बड़े होने लगते हैं तो गायत्री विद्रोह कर देती है। पति के आफ़िस से लड़कियां अपनी लाज बचाने के लिए गायत्री के पास घर आने लगती हैं। गायत्री लड़कियों की लाज बचाती है। एक महीने के भीतर कोई सात लड़कियां। गायत्री का पति कुणाल पूछता है , आख़िर तुम चाहती क्या हो ? गायत्री कहती है , ' मैं चाहती हूं कि आप मुझे गांधारी न समझें। जिस के सौ बेटे पति की ग़लती से मृत्यु के मुख में समा गए थे। मैं अपने व बच्चों के लिए दृढ़ प्रतिज्ञ हूं। .' गायत्री दृढ़ता से बोली तो कुणाल का चेहरा उतर गया।
एक साधारण आदमी रामदेव की असाधारण कहानी भी अर्चना प्रकाश ने बड़े मन से बांची है। श्रवण कुमार कहानी में अर्चना प्रकाश अपना ही बनाया सांचा तोड़ती हुई दिखती हैं। कर्ण की नियति कहानी में अर्चना प्रकाश की कहानियों की चिर-परिचित स्त्री विवशता की इबारतें फिर दस्तक देती हैं। परिवार के लिए , बच्चों के लिए होम हो जाने वाली मंदाकिनी जब बच्चों के लिए बोझ बन जाती है। एहसान फ़रामोश बच्चों की उपेक्षा और सास की निंदा कैसे तो मंदाकिनी की ज़िंदगी को नर्क बना देती है। फिर भी वह मरते समय चिट्ठी लिख कर बेटे धर्मेश को माफ़ कर जाती है।
मन की पांखें कहानी में एक लंपट जयंत पाराशर और पत्नी शैलजा के बहाने पारिवारिक उथल-पुथल की दास्तान सामने आती है। कोरोना काल में जयंत की मुश्किलें बहुत बढ़ जाती हैं। लेकिन पत्नी की अनथक सेवा से ठीक हो जाने के बाद वह कहता है ,
' तुम। तुम जो मीरा हो , सीता हो , सावित्री हो , वो तुम मुझे चाहिए। पिछले माह से ही मैं ने कम्मो , शब्बो व सभी को तिलांजलि दे दी है। अब मैं सिर्फ़ तुम्हारा हूं। मुझे बस अवसर दो शैल। जयंत बोले तो शैलजा की दोनों आंखें बहने लगीं। और वह मौन थी।
बदलाव के रंग कहानी भी कोरोना के रंग में रंगी हुई है। सुनयना और त्रिशला मां-बेटी की कहानी कई घर की कहानी कह जाती है। कोरोना के बहाने एक बिगड़ैल बेटी के बदलने का रंग ही और है। कोरोना कहर पर लहर या कहर कहानी स्तब्ध कर देती है। परिवार ही नहीं अस्पताल भी कैसे त्रस्त हुए कोरोना की दूसरी लहर में इस कहानी में सारा विवरण है। श्मशान घाट की त्रासदी भी इस कहानी में खुल कर सामने आती है। हारिए न हिम्मत कहानी भी कोरोना के कहर में समाहित है। मुआवजा कैसे ऊंट के मुंह में जीरा बन जाता है , कहानी बताती है। लेकिन स्लीपिंग सेल कहानी कोरोना में अस्पतालों की एक नई ही कहानी पेश करती है। एक काम वाली के बहाने कोरोना मरीजों की हत्या की कहानी। ऐसी कहानी पर सहसा यक़ीन नहीं होता। लेकिन कहानी की स्थितियां , वर्णन और तथ्य में तारतम्यता बहुत है। यह कहानी पढ़ कर अख़बारों में छपी कुछ ख़बरें याद आने लगीं। जिन में मरीजों की किडनी आदि निकाल लेने की बात होती थी। कहानी संग्रह की यह अंतिम कहानी सिर्फ विवरणात्मक होने के कारण वह प्रभाव नहीं छोड़ पाती , जिस की अपेक्षा थी।
अर्चना प्रकाश के पास कहानियों का अथाह भंडार है। जिन्हें लिखने में ज़रा भी आलस नहीं करतीं। अपने आस-पास बिखरी कहानियों को एक सूत्र में निबद्ध कर अपनी कहानी में कह देना वह ख़ूब जानती हैं। वह आगे भी अपनी कहानियों से अपने पाठकों को परिचित करवाती रहें यही कामना करता हूं। 13 कहानियों वाले इस कहानी संग्रह के लिए अर्चना प्रकाश को कोटिशः बधाई !
[ नमन प्रकाशन , लखनऊ द्वारा प्रकाशित अर्चना प्रकाश के कहानी संग्रह गांधारी का पुनर्जन्म की भूमिका ]
सुंदर समीक्षा
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