फ़ोटो : शायक आलोक |
ग़ज़ल
कापियर्स और मीडियाकर्स के ज़माने में हम जी रहे हैं
चादर हमारी रोज फटती है सुबह शाम उसे सी रहे हैं
सब कुछ आन लाईन है हरामखोर बाज़ार पर काबिज़
एक हम हैं कि लाईन में खड़े हो कर पानी पी रहे हैं
क़िस्मत का पट्टा लिखवा गधे सारे सूरमा पहलवान बन गए
पहलवान लोग सीना ताने बाऊंसर बन मर-मर कर जी रहे हैं
उन की सालाना ग्रोथ हज़ार प्रतिशत है सारे संसाधन उन के
बिना खाए स्वस्थ कैसे रहें हम ऐसी सरकारी दवाई पी रहे हैं
मीडिया की बात पूछो मत हम से देशद्रोही हैं सब मालिक
संपादक सारे दल्ले हुए पढ़े-लिखे फ्रीलांसिंग पर जी रहे हैं
नकल कर के भी जो पास नहीं हो पाए मंत्री बन मौज में हैं
गुंडे ठेकेदार रंगदार माफ़िया अय्यासी का नित घी पी रहे हैं
जो पढ़े पढ़ कर आई ए एस हो गए पर पढ़ाई नासूर हो गई
कलक्टर हो कर भी अनपढ़ मंत्रियों की जी हुजूरी में जी रहे हैं
रिश्वतखोरों की चांदी जालसाजों की दुनिया ख़ुदा हैं यही अब
ईमानदार लोग नित अपमानित होने का ककहरा सीख रहे हैं
आत्मा जमीर जैसे शब्द सड़ गए जीने की रोज मांगते हैं भीख
कमीने सारे लाल कालीन पर भूख के मारे बच्चे कालीन सी रहे हैं
बहुत गुस्से में लग रहे हैं जी। बात क्या है?
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