संपादित फ़ोटो : शायक आलोक |
ग़ज़ल / दयानंद पांडेय
कभी गर्भ में मारती है कभी दहेज में कभी बलात्कारी होती है
औरत मरती है टुकड़ों-टुकड़ों में दुनिया सारी हत्यारी होती है
प्यार मिल जाए तो औरत सर्वदा सुघड़ चंद्रमुखी होती है
न मिले प्यार तो हरदम ही भड़कती ज्वालामुखी होती है
हिरोईन लालपरी हो या रूप का भार लिए कोई स्वप्न सुंदरी
प्यार के रेगिस्तान में कुलांचे मारती वह प्यासी हिरनी होती है
समंदर प्यार का कितना भी गहरा हो सर्वदा ही खारा होता है
नदी लाख उजड़ी हो प्रदूषित हो लेकिन प्यार की मारी होती है
हम तो राक्षस हैं ईंट पत्थर के जंगल में रहते हैं तहज़ीब नहीं आती
स्त्री जैसे धरती है समाज का सारा कसैलापन खारापन सोख लेती है
पिता प्रेमी पति पुत्र भाई हर किसी की ही सगी और धुरी ठहरी
औरत इतनी बिचारी होती है हर किसी के दुःख में दुखी होती है
सुनते हैं कि एक सीता जंगल में जीती थी बेटों के दम पर
एक राम का गुरुर तोड़ने को उस का घोड़ा रोक देती है
घर भरा पुरा होता है अड़ोसी-पड़ोसी हर कोई मौजूद लेकिन
मां बाप के मरने पर दहाड़ मार कर अकेले सिर्फ़ बेटी रोती है
जंगल हो समंदर हो या हो हिमालय सब जगह प्यारी होती है
दुनिया जो कहे बेटी तो बेटी है गांव घर सब की दुलारी होती है
दफ़्तर है दोस्त हैं ट्रैफिक जाम है सब को लांघ कर आता हूं
नाराज न हुआ करो मेरी जान मिलने आने में जो देरी होती है
लोग क्या कहते हैं क्या सुनते हैं मुझे मालूम नहीं कुछ भी
यहां तो जो भी करता हूं वह तेरे हुस्न की फकीरी होती है
सुंदर रचना ।
ReplyDelete