फ़ोटो : शायक आलोक |
ग़ज़ल / दयानंद पांडेय
काम-धाम तो कुछ कर सकते नहीं इंक़लाब की बात करते हैं
घर बेच कर शराब पी गए अब दुनिया जलाने की बात करते हैं
कभी वह असहिष्णुता तो कभी आत्महत्या की बात करते हैं
लफ्फाजी में ज़िंदगी गुज़री है सो लफ्फाजी की बात करते हैं
ज़िम्मेदारी कभी उठाई नहीं ख़ुद बोझ बन ज़मीन से कट गए
लफ़्फ़ाज़ी के विराट चैंपियन आकाश में उड़ने की बात करते हैं
समाज में जहर बोने में पारंगत जातियों की दुकानदारी में अव्वल
उन का अहंकार अव्वल है देश कमज़ोर बनाने की बात करते हैं
कैसे किस को लड़ाया जाए उन की चौसड़ बिछी रहती है दिन रात
ख़ुद को बदल सकते नहीं लेकिन समाज बदलने की बात करते हैं
घर में बच्चे भूख से तड़पते हैं मरते हैं तो मर जाएं उन की बला से
वह आटा पिसा नहीं सकते पत्नी से चीख़-चीख़ कर यह बात करते हैं
वामपंथी हैं लेकिन शनि मंदिर में औरतों के प्रवेश ख़ातिर संघर्षरत हैं
धर्म अफीम है तो हुआ करे वह तो औरतों की बराबरी की बात करते हैं
अपनी राजनीति को परवान चढ़ाने ख़ातिर समाज क्या देश भी तोड़ देंगे
आरक्षण खत्म हो जाने का भय दिखा कर देश जलाने की बात करते हैं
आरक्षण की बैसाखी बहुत बड़ा औजार और हथियार है उन का
आत्महत्या ख़ातिर उकसा कर शहीद बनाने की बात करते हैं
कायरता और दोमुंही बातों के बाजीगर हिप्पोक्रेसी के बादशाह
चित्त भी उन की रहे पट्ट भी उन की सर्वदा ऐसी ही बात करते हैं
[ 27 जनवरी , 2016 ]
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