कुछ और फुटकर फ़ेसबुकिया नोट्स
- दिल्ली से मिल रही ख़बरें बता रही हैं कि आसन्न विधान सभा चुनाव में अरविंद केजरीवाल और उन की आप पार्टी नंबर दो पर ही नहीं , काठ की हांडी बन कर कांग्रेस की बराबरी पर आने को बेताब है।
- माफ़ कीजियेगा मैत्रेयी जी , इन दिनों तो हुनर नहीं , हुस्न की ही कद्र है , बाक़ी हलकों सहित साहित्य में भी ! जहां देखिए , वहीं हुस्न वाले , मीडियाकर , चालबाज़ , चार सौ बीस आदि , इत्यादि लोग ही सारी जगह सिरमौर बने बैठे हैं । कहिएगा तो सोदाहरण भी बात विस्तार से लिख दूंगा । और जो लिख दूंगा तो ये हुस्न वाले दर्पण देखना बंद कर देंगे । क्यों कि मैं तो बात को दर्पण में ही उतार कर रख देता हूं । और यकीन मानिए कि दर्पण चाहे सोने के फ्रेम में मढ़ दीजिए, झूठ तो हरगिज़ नहीं बोलेगा ।
- साहित्य में हुस्न की नहीं , हुनर की कद्र होती है !!
- समूचा विपक्ष आज भी नरेंद्र मोदी पर निशाना बांधे हुए है लेकिन अरविंद केजरीवाल ने इस रवायत को आज बदल लिया । आज अरविंद केजरीवाल कह रहे हैं कि उन के निशाने पर मोदी नहीं , जगदीश मुखी हैं । हां अगर नरेंद्र मोदी इस्तीफ़ा दे कर मुख्य मंत्री पद का चुनाव लड़ने आ जाएं तो वह ज़रूर अपने निशाने पर उन्हें ले सकते हैं । अरविंद केजरीवाल की यह बात सुन कर एक पुरानी कहावत याद आ गई है कि , दूध का जला छाछ भी फूंक-फूंक कर पीता है। हालां कि पाकीज़ा फिल्म का एक संवाद भी याद आ गया है कि , अफ़सोस कि लोग दूध से भी जल जाते हैं !
- यह सच है कि हिंदू , मुसलमान, सिख इसाई सभी धर्मों और हलकों में सांप्रदायिक और कट्टर लोग उपस्थित हैं । कहीं कुछ कम , कहीं कुछ ज़्यादा । लेकिन यह क्या है कि अगर कभी मुस्लिम सांप्रदायिकता पर कोई सवाल उठाए तो आप उसे पूरी बेशर्मी से मोदी भक्त और भाजपाई घोषित करने लग जाएं ? तो क्या मुस्लिम सांप्रदायिकता को चिन्हित करने के लिए मोदी या भाजपा का भक्त हुए बिना कोई इस मसले पर सच नहीं बोल सकता ? या हिंदू सांप्रदायिकता को चिन्हित करने वाला मुस्लीम लीगी ही होता है ? क्या कोई कोढ़ कपड़े से छुपा देने से ठीक हो जाता है ?
- दिल्ली में हमारे एक मित्र हैं । आज सुबह-सुबह कहने लगे कि कोई माने या न माने नरेंद्र मोदी ने देश के मुसलमानों को समझदार बना दिया है । बवाना में मुहर्रम के जुलूस का रास्ता विवाद बढ़ने के पहले ही बदल कर शांति और भाई-चारा का संदेश दे दिया है मुसलमानों ने । प्रशासन की पहल के पहले ही यह सब कर के हिंदू संगठनों के महापंचायत आदि की भी हवा मुसलमानों ने निकाल दी । बाक़ी तो सब ठीक है पर बात ख़त्म करने के पहले उन्हों ने एक पुछल्ला भी जोड़ दिया कि इतिहास हरदम सबक़ देता ही है, बवाना के मुसलमानों ने गुजरात का सबक़ याद रखा सो यह मसला खुद-ब-खुद निपटा लिया । वह कहने लगे कि देखिएगा मोदी के शासन में रहते अब देश में कहीं भी दंगा फसाद नहीं होने वाला। क्या यह बात सचमुच सच है ?
- दिल्ली विधान सभा चुनाव में क्या अरविंद केजरीवाल और उन की मंडली नरेंद्र मोदी की जीत का घोड़ा रोक पाने में कामयाब हो जाएगी ? कांग्रेस की तो सांस फूली हुई है , उस से कुछ उम्मीद करना रेत से तेल निकालने वाली बात है ।
- बताइए कि इतने बड़े-बड़े धर्म निरपेक्ष , यानी कि पंथ निरपेक्ष लोग हमारे देश में हैं जो मुहर्रम को भी पर्व बताते नहीं अघाते ! हमारे मित्र और जनसत्ता के संपादक ओम थानवी भी इसी पंथ निरपेक्षता के मारे हुए हैं । ओम थानवी भी मुहर्रम को पर्व बता गए हैं अपनी एक टिप्पणी में । संदर्भ दिल्ली के बवाना का है । ओम थानवी लिखते हैं , ' यह देश धर्म-निरपेक्ष है (प्रयोग बहुत रूढ़ हो चुका है, इसलिए पंथ-निरपेक्ष नहीं लिखता)। सब साथ रहते आए हैं। प्रधानमंत्री ने भी सबको साथ लेकर चलने का वादा किया है। इसका असर कम से कम दिल्ली में तो दिखाई दे। सबके अपने पर्व हैं। उन्हें शांति से मनाना और मनाने देना चाहिए। जो पर्व के नाम पर अशांति फैलाता है, वह अपराधी है चाहे किसी धर्म का हो। पर ऐसे तत्त्वों से निपटने का काम शासन-प्रशासन का है, किसी पंचायत-महापंचायत का नहीं। वे तो जितना दूर रहें, उतना ही अच्छा।' ऐसे ही एक बार नवभारत टाइम्स जैसे अखबार ने तो अपनी एक संपादकीय में तो मुहर्रम को त्यौहार लिखा ही साथ ही बधाई भी देना नहीं भूला। अजब है यह जहालत भी। आलम यह है कि हमारे लखनऊ में तो कुछ लोग इतने उदार और नादान हैं कि मुहर्रम की बधाई भी देने लगते हैं । बताइए भला कि एक इतनी बड़ी गमी भी पंथ निरपेक्षता बनाम धर्म निरपेक्षता की आंच में पहुंच कर बधाई और पर्व की नौबत में आ जाती है । अब क्या करें भला ? हाय हुसेन , हाय हुसेन ! खुदा सद्बुद्धि दें इन धर्म निरपेक्षता के मारे लोगों को ।
- अर्द्ध सत्य जब आई थी अस्सी के दशक के पूर्वार्द्ध में तब इस के निर्देशक गोविंद निहलानी और हीरो ओम पुरी का डंका बज गया था । इतना कि इस में स्मिता पाटिल जैसी अभिनेत्री हीरोइन थी और कि अमरीश पुरी जैसे अभिनेता भी हैं लोग भूल गए । पर सही मायने में तो यह फिल्म सदाशिव अमरापुरकर की ही थी । हिंदी फ़िल्मों को अपनी तरह का एक अनूठा खलनायक मिल गया था। इस अर्द्ध सत्य का एक सत्य यह भी था कि इस के नायक और खलनायक दोनों ही खुरदरे चेहरे और चाल-ढाल वाले थे । पारंपरिक अभिनय से बिलकुल जुदा । आख़िरी रास्ता के बाद यह खलनायक चरित्र भूमिकाओं में आने लगा , हास्य अभिनेता भी बन गया और सड़क तथा हुकूमत जैसी फिल्म में खलनायक भी बनता रहा । पर अर्द्ध सत्य में जो खलनायक गोविंद निहलानी ने खड़ा किया जो तेवर दिया , जाने क्यों कोई और निर्देशक या खुद गोविंद निहलानी भी इस खलनायक को फिर से अभिनय के उस आकाश में उड़ान नहीं दे पाया । हिंदी और मराठी फ़िल्मों के इस अनूठे और अविरल अभिनेता को नमन !
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