अमरकांत जी की डिप्टी कलक्टरी कहानी भूलती नहीं है, न दोपहर का भोजन। एक दोपहर मैं ने भी बिताई है उन के साथ। कुछ समय पहले मैं इलाहाबाद गया था तो उन से भेंट की थी। मैं गोरखपुर का हूं जान कर वह भावुक हो गए। न सिर्फ़ भावुक हो गए बल्कि गोरखपुर की यादों में डूब गए। अचानक भोजपुरी गाने ललकार कर गाने लगे। बलिया से एक बार कैसे वह गोरखपुर बारात में आए थे, यह बताने लगे। यह भी कि बड़हलगंज में कैसे तो पूरी बस को नाव पर लादा गया था तब सरयू नदी पार करने के लिए। और एक से एक बातें। वह कुछ समय गोरखपुर में रह कर पढे़ भी हैं यह भी बताने लगे। फिर जब वह ज़्यादा खुल गए तो मैं ने उन्हें गोरखपुर में उन के एक मित्र की याद दिलाई जिन की बेटी से वह अपने बेटे अरुण वर्धन की शादी करने की बात चला चुके थे। उन मित्र को उन्हों ने खुद बेटे से शादी का प्रस्ताव दिया और कहा कि कोई लेन देन नहीं, और कोई अनाप शनाप खर्च नहीं। बारात को सिर्फ़ एक कप काफी पिला देना। बस!
तब के दिनों अमरकांत जी के इस हौसले की गोरखपुर में बड़ी चर्चा थी। लेकिन यह शादी नहीं हो सकी। मैं ने उन से धीरे से पूछा कि आखिर क्या बात हो गई कि वह शादी हुई नहीं? तो अमरकांत जी उदास हो गए। बोले, 'असल में बेटे को मंजूर नहीं था। वह असल में कहीं और इनवाल्व हो गया था तो बात खत्म करनी पड़ी।' यादों में वह जैसे खो से गए। कहने लगे कि, 'अब आप को बताऊं कि उस की शादी में क्या क्या नहीं देखना-भुगतना पड़ा मुझे! लड़की तक भगानी पड़ी। पुलिस, कचहरी तक हुई। मेरे खिलाफ़ रिपोर्ट तक हुई। असल में वह लोग ब्राह्मण थे। हम लोग कायस्थ। तो वह लोग तब मान नहीं रहे थे। लड़की तैयार थी, लड़का तैयार था तो यह सब अपने बेटे के लिए मुझे करना पड़ा। खैर कुछ समय लगा, यह सब रफ़ा-दफ़ा होने में। बाद में सब ठीक हो गया। फिर वह अचानक अपने आज़ादी की लड़ाई के दिनों में लौट गए। और एक भोजपुरी गाना फिर गुनगुनाने लगे। स्मृतियां और भी बहुत सी हैं पर फिर कभी। अभी तो उन की स्मृति को नमन !
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