Wednesday 29 October 2014

समस्याओं में उलझा तो, मगर खोया नहीं मैं ये सच है दर्द गहरा है, मगर रोया नहीं मैं



समस्याओं में उलझा तो, मगर खोया नहीं मैं
ये सच है दर्द गहरा है, मगर रोया नहीं मैं ।

जैसी कविताएं लिखने वाले, खुद्दारी और कविता एक साथ जीने वाले हमारे प्रिय मित्र और गीतकार धनंजय सिंह का आज शुभ जन्म-दिन है । उन की कविताओं में आस और विश्वास भी लेकिन भरपूर है , ' नये सूर्य ने थाम ली , नये दिवस की डोर / तम की नगरी छोड़ कर , बढ़ प्रकाश की ओर। ' वह लिखते ही हैं :

द्रुम दलों की फुनगियों पर नाचती किरणें चितेरी
मधुर कलरव गीत सुन कर मुग्ध है मन का अहेरी
मीत मेरे दिव्य जाग्रत चेतना से प्राण भर लो
कह रही उजली सुबह प्रिय स्वप्न अब साकार कर लो 

हम जब दिल्ली में थे तब हमारे संघर्ष में साथ देने वाले, हमारे दुःख सुख के साथी धनंजय सिंह तब कादम्बिनी में थे और हम सर्वोत्तम रीडर्स डाइजेस्ट में । बाद में मैं जनसत्ता में आ गया । फिर लखनऊ आ गया । पर हमारी मित्रता और संपर्क कभी टूटा नहीं । मेरी कई किताबों की समीक्षा भी कादम्बिनी में धनंजय जी ने छपवाई और सहर्ष । बिना किसी इफ बट, बिना किसी नाज़-नखरे के । अब वे कादम्बिनी से अवकाश ले चुके हैं लेकिन अपने गीतों और मित्रों से नहीं । आज उन का शुभ जन्म-दिन है तो आज आनंद का दिन है । अभी कुछ दिन पहले वह लखनऊ आये थो हम लोगों की भेंट हुई थी । वह हमारे घर भी आये था और हम लोगों ने बहुत सारी नई पुरानी यादें ताज़ा कीं और आनंद से भर गए । जन्म-दिन की उन्हें हार्दिक बधाई क्रमश: उन की ही दो ग़ज़लों, एक गीत और एक कविता के साथ ।


- एक -


 धुंधमय आकाश का मौसम है मेरे देश में
मौत के सहवास का मौसम है मेरे देश में

शोर कैसा भी हो सुनने में नहीं आयेगा अब
इस कदर उल्लास का मौसम है मेरे देश में

कब सुरक्षा का कोई कानून आ जाये कहो
आजकल इजलास का मौसम है मेरे देश में

शेर सब चिड़ियाघरों में बंद या पिजरे में कैद
यों नए बनवास का मौसम है मेरे देश में

चीखना या चीख सुन कर चौंकना बिलकुल मना
मरघटी एहसास का मौसम है मेरे देश में

अब नकाबों के लगाने की ज़रुरत ही नहीं
इस कदर विश्वास का मौसम है मेरे देश में

ख़ुदकुशी करना मना है और जीना है हराम
जेल में अधिवास का मौसम है मेरे देश में

चुप रहो या कीर्ति गाओ तुमको पूरी छूट है
अब खुली बकवास का मौसम है मेरे देश में 


- दो -

किसी ने गम दिया हमको ख़ुशी से
सहेजे दिल में रहते हैं इसी से

नहीं हम क्रोध की ज्वाला से डरते
पिघल जाते हैं आँखों की नमी से

बहुत नजदीक वो ईश्वर के हैं पर
बहुत-सी दूरियां हैं आदमी से

न हमसे दूर पल भर मीत होना
दुआ हम मांगते हैं यह तुम्हीं से

मिलन का यों न तुम आभास देना
गगन मिलता क्षितिज पर ज्यों जमीं से

हमारी प्यास सहरा से बड़ी है
बुझा दो तिश्नगी को तिश्नगी से

तुम्हीं से इल्तिजा है ज़िंदगी की
कि भर दो ज़िन्दगी को ज़िन्दगी से !



गीत 


मन की गहरी घाटी में
क्या उतरेगा कोई
जो उतरेगा वह फिर उससे निकल न पाएगा ।

फिसलन भरे,नुकीले पत्थर वाले पर्वत हैं
जो घाटी को सभी ओर युग-युग से घेरे हैं
सूरज रोज़ सुबह आता है शिखरों तक लेकिन
कभी तलहटी तक आ पाते नहीं सवेरे हैं
मत झांको तुम
इसकी गहरी अंध गुफाओं में
आँखों वाला अन्धकार मन में बस जाएगा ।

कौन चुनौती स्वीकारेगा,किसको फुरसत है
इस घाटी में आकर मन का नगर बसाने की
सूनेपन की गहराई को छूकर देखे फिर
चीर शून्य को प्राणों का संगीत गुंजाने की
निपट असंभव को सम्भव
कोई, कैसे कर दे
निविड़ रात्रि में इन्द्रधनुष कैसे खिल पाएगा ।

तुमने मेरे मन को ऐसे छू दिया
गानवती ज्यो कोई छू दे , सोये हुए सितार को
गूंगा मन जय-जयवंती गाने लगा ।

जाने क्या था
ढाई आखर नाम में
गति ने जन्म ले लिया
पूर्ण विराम में

रोम-रोम में सावन मुसकाने लगा ।

खुली हंसी के
ऐसे जटिल मुहावरे
कूट पद्य जिनके आगे
पानी भरे

प्रहेलिका-संकेतक भटकाने लगा ।

बिम्ब-प्रतीक न जिसका
चित्रंण कर सकें
वर्ग पहेली जिसे न हम
हल कर सकें

कोई मन को ऐसा उलझाने लगा। 




समान्तर साथ-साथ 


तुम्हे मुझसे
और मुझे तुमसे बातें करनी है
तो आओ , बीच से इस भीड़ को हटा दें। 
तांत्रिक मुद्राओं में
आसन मार कर बैठी कुण्डलाकृतियों को
आओ , हम सीधी रेखाओं में बदल दें
और आओ
उनके विकासमान व्याकरण की
सीमाएं निश्चित कर दें
आखिर कब तक
यों ही झरती रहेंगी
हरी घास पर पीली पत्तियाँ ?
आखिर कब तक चलेगा रहेगा
मरी हुई मछलियों से पहचान-पत्र माँगने का क्रम ?
समय का वकील
मुझे हत्यारा और तुम्हे डाकू
साबित करने को आतुर है। 
आओ
हम गवाहों की भूमिकाएं अस्वीकृत कर
अपने अपने गुनाह स्वीकार करें
कि
मैंने ह्त्या की है
अपनी ही शिशु-सी कोमल इच्छाओं-आकांक्षाओं की
और तुमने
लूटने की कोशिश की है
अपने ही अधिकारों की उस पिटारी को
जिसे तुम्हारे पिता ने
अपने बाद , तुम्हारे लिए छोड़ा था। 


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