दिलीप कुमार से मिलना और बतियाना दोनों ही बहुत रोमांचकारी नहीं ही होता। होता तकलीफ़देह ही है। वह बहुत मुश्किल से मिलते हैं और बात भी बेरुखी से करते हैं। तिस पर कलफ़ लगी उर्दू या अंगरेजी में। और दोस्ताना या मिलनसार रवैया तो उन का हरगिज़ नहीं होता। जाने कैसे डाइरेक्टर लोग उन से फ़िल्मों मे काम लिए होंगे। हां अभिनेता वह बहुत बडे हैं। अमिताभ बच्चन या शाहरुख खान जैसे लोग उन के अभिनय के आगे न सिर्फ़ पानी भरते हैं बल्कि जब-तब, जाने-अनजाने उन की नकल भी करते ही रहते हैं। दिलीप कुमार अपने आप में अभिनय का एक पूरा स्कूल हैं। उन्हों ने बरसों पहले एक फ़िल्म भी डाइरेक्ट की कलिंगा। पर आज तक उस ने रिलीज का मुंह नहीं देखा तो नहीं देखा। तमाम-तमाम विवाद उस पर सवार रहे। खैर दिलीप कुमार एक बार मिल गए उत्तर प्रदेश के हरदोई ज़िले की एक तहसील शाहाबाद में। वही शाहाबाद जहां के आमीर खान मूल निवासी हैं और कि अभी भी उन का घर दुआर वहां है। दिलीप कुमार तब शाहाबाद आए थे एक डिग्री कालेज के शिलान्यास और भोजपुरी में बनने वाले पहले धारावाहिक सांची पिरितिया का मुहूर्त शाट देने। तब १९९६ की सर्दियों के दिन थे। तत्कालीन राज्यपाल रोमेश भंडारी भी तब उन के साथ थे और मंच साझा किया था। खैर तभी दयानंद पांडेय ने दिलीप कुमार से राष्ट्रीय सहारा के लिए बात की थी। बात सियासत से फ़िल्म तक हुई थी, जो आज भी मौजू है।
डाक बंगले में वह ठहरे थे। जब उन से मैं ने इंटरव्यू की बात कही, अपना परिचय दिया और अपने पुराने संपादक जो कभी माधुरी के संपादक रहे थे, अरविंद कुमार का हवाला दिया तो ‘अच्छा-अच्छा।’ कहते हुए उन्हों ने माथे पर बल डाला। बोले, ‘बैठिए!’ मैं उन के बगल वाले सोफे पर जिस का मुंह उनकी ओर था उस पर धप्प से बैठ गया। मेरे वहां बैठते ही दिलीप कुमार ने मुझे फिर तरेरा और थोड़ा तल्ख़ हो कर उंगली दिखाते हुए बोले, ‘यहां से उठ जाइए।’ उन्हों ने जोड़ा, ‘यहां जॉनी वाकर साहब बैठेंगे।’ वह बोले, ‘इधर तशरीफ लाइए!’
‘सॉरी!’ कह कर मैं चुपचाप उन की बताई जगह बैठ गया। अभी कुछ बोलता पूछता कि वह ख़ुद शुरू हो गए, ‘देखिए जनाब इंटरव्यू वगैरह के लिए तो मेरे पास वक्त नहीं है। मैं बहुत थका हुआ हूं।’ वह बोलते जा रहे थे, ‘मौसम ख़राब होने से बंबई दिल्ली की फ्लाइट बहुत लेट आई। सुबह से निकला हुआ हूं। एयरपोर्ट पर बैठे-बैठे बोर हो गया। फिर रही सही कसर दिल्ली से यहां तक हेलीकाप्टर ने निकाल दी। ढाई घंटे लग गए। फिर अभी वापिस भी जाना है तो जनाब मुमकिन है नहीं इंटरव्यू जैसा कि ‘डेप्थ’ में आप चाहते हैं। और फिर अभी मुहूर्त भी करना है। यहां दो चार लोगों से मिलना भी है।’ वह बोले, ‘दो चार मामूली सवाल अभी पूछना चाहिए तो पूछिए। या फिर इधर-उधर टुकड़ों-टुकड़ों में कुछ सवाल कर लीजिएगा।’ उन्होंने जोड़ा, ‘पर डेप्थ वाले नहीं और फिर सवाल न तो फिल्मों के बारे में सुनूंगा और न ही पालिटिक्स के! क्यों कि इन मामलों में आप लोगों के सवाल एक जैसे ही सुनते-सुनते मैं थक गया हूं।’
‘तो?’
‘अब आप जानिए!’ वह आंखों में आंख डालते हुए बोले, ‘समाजी हालत पर पूछिए। तमाम और सब्जेक्ट हैं।’ वह रुके बगैर बोले, ‘इतना भी इस लिए कह रहा हूं कि आप के वो पुराने एडीटर साहब मेरे जेहन में हैं और आप का परचा (अख़बार) भी मेरे जेहन में है।’
तो भी आज के राजनीतिक हालात पर जब उन से बात चली तो वह बोले, 'आज की सियासी हालात? मेक ए गेस !' दिलीप कुमार बोले, 'आप उस का अंदाज़ा लगाइए। कहने की ज़रुरत नहीं है। हालात वैसे ही हैं जैसे कूचे में समंदर बंद हो।' दिलीप कुमार से जब फ़िल्मों के बारे में बात चली तो वह बोले, 'माफ़ करें अब फ़िल्मों के बारे में बात नहीं करना चाहता आज।' फिर भी बोकाडिया की बरसों से लटकी फ़िल्म कलिंगा की जब बात चली तो वह बोले, 'कलिंगा पूरी हो गई है। कुछ कानूनी अड़चनें रह गई हैं। पर जल्दी ही रिलीज़ हो जाएगी।' ज़िक्र ज़रूरी है कि दिलीप कुमार कलिंगा के निर्देशक हैं और बोकाडिया से विवादों के चलते फ़िल्म बार-बार लटकी। यह पूछने पर कि आप आज भोजपुरी धारावाहिक 'सांची पिरितिया' का मुहुर्त शाट देने आए हैं, तो 'गंगा-जमुना' फ़िल्म में आप का जो चरित्र है, जो आप की संवाद अदायगी है उसे आप भोजपुरी के खाने में मानते हैं कि अवधी के खाने में?
दिलीप कुमार बोले, 'यह मैं नहीं जानता। डाइरेक्टर ने जैसा कहा, वैसा किया। पर वह जो बोली थी, तलफ़्फ़ुज़ [उच्चारण] का जो लहज़ा था, वह मैं ने अपने तब के माली से सीखा था। वह वैसे ही बोलता था।' पर बाद की भी कई फ़िल्मों में जैसे बैराग, सगीना महतो जैसी कई फ़िल्मों मे भी संवाद अदायगी का वह फन आप का बरकरार रहा है। कहने पर वह बोले, ' हां यह तो है। पर सब कुछ अनायास ही।'
दिलीप कुमार ने अपने संघर्ष के दिनों का ज़िक्र किया और कहा कि, 'फ़िल्मों में मेरी एंट्री अचानक नहीं हुई। अपने उस्ताद के साथ स्टूडियो घूमने गया। वहां तब के समय की प्रसिद्ध हीरोइन देविका रानी ने मुझ से पूछा कि एक्टिंग के बारे में क्या जानते हो? तो मैं ने कहा कि कुछ नहीं जानता हूं।' वह आगे बोले, 'यह तो अच्छा हुआ कि मैं काम मांगने नहीं गया था। वरना मुझे क्या पता क्या जवाब मिलता। तब जब कि उस वक्त मेरी माली हालत खराब थी। मां-बाप नहीं थे। बहनें थीं, भाई था। घर बड़ा था और मसला भी बड़ा था - कमाई का। मैं उस वक्त एक आर्मी कैंप में स्टाल लगा कर लेमन वगैरह बेचता था। १३० रुपए महीने तनख्वाह थी पर चालीस-पचास रुपए अलग से भी कमा लेता था। लेकिन जब फ़िल्म स्टूडियो घूमने गया तो देविका रानी ने १२५० रुपए महीने की नौकरी दी और कहा कि ढाई सौ रुपए हर साल इंक्रीमेंट लगेगा। तीन साल के कांट्रेक्ट पर रखा।'
दिलीप कुमार बताने लगे कि, 'संघर्षों के जद्दोजहद से मैं ने बहुत कुछ सीखा है।' उन्हों ने अपने एक उस्ताद लकब शाहजहांपुरी की भी याद की। जिन से उन्हों ने उर्दू-फारसी सीखा। उठने-बैठने का सलीका सीखा। शायरी के मायने सीखे। मुंबई की फ़्लाइट लेट होने और हेलीकाप्टर के शोर से वह काफी थके हुए थे। उम्र जैसे उन की सारी फ़ुर्ती खींचे ले रही थी। फिर भी सांची पिरितिया के मुहुर्त के समय बटुर आई भीड़ को उन्हों ने दौड़-दौड़ कर किनारे होने को कहा। और किया।
खैर, हम लोग फिर बैठे बतियाने। दिलीप कुमार भी उस वक्त थके हुए और उदास से थे। मैं ने अचानक उन से पूछ लिया कि, 'आप के देवदास का मिथ अभी तक तो नहीं टूटा।' तो वह बोले, ' देवदास कोई फिर हो भी कैसे सकता है। देवदास होना कोई हंसी-खेल तो है नहीं।' अब अलग बात है कि संजय लीला भंसाली ने अभी कुछ समय पहले देवदास को कुछ हंसी-खेल सा बना ज़रुर दिया शाहरुख खान को देवदास की भूमिका दे कर। खैर, तब मैं ने उन से एक और सवाल किया, ‘अच्छा, आप को मालूम है कि लता मंगेकर ने अपनी जिंदगी का एक सपना आपके साथ जोड़ा है?’
‘क्या कह रहे हैं आप! वह मेरी छोटी बहन की तरह हैं?’ वह तल्ख़ हुए।
‘नहीं ऐसी कोई बात नहीं।’ मैं ने सफाई दी।
‘फिर?’
‘लता जी आप के लिए प्ले बैक देना अपनी हसरत बताती हैं।’
‘ओह लता!’ कह कर वह जैसे कहीं डूब गए।
अपने पसंदीदा संगीतकार नौशाद की भी उन्हों ने चर्चा की और वहीदा रहमान, वैजयंतीमाला, मधुबाला, मीना कुमारी जैसी अभिनेत्रियों की चर्चा भी 'हूं', 'हां' में की। चुहूल करने के लिए उन के साथ प्रसिद्ध हास्य अभिनेता जानी वाकर भी थे।
बात फिर सामाजिक हालातों से होते हुए जल्दी ही उनकी असमां से दूसरी शादी, उन की हिरोइनों के बाबत बात करते-करते फिल्मों पर भी आख़िर आ ही गई। बात बेबात उखड़ जाने वाले दिलीप कुमार बड़ी देर तक संजीदा हो कर बतियाते रहे। इस बीच चाय भी आ गई थी और जॉनी वाकर भी। चाय आ जाने से दिलीप कुमार को आसानी यह हुई थी कि वह कुछ अप्रिय या अनचाहे सवाल भी चाय के साथ ही पी जाते थे। और जॉनी वाकर के आ जाने से मुझ को आसानी यह हुई थी कि मेरे सवालों के बहाने जॉनी वाकर दिलीप कुमार से चुहुल करने लगते और दिलीप कुमार खुल जाते। ख़ास कर हीरोइनों के मसले पर जॉनी वाकर की चुहुल बड़े काम आई । जैसे बात वहीदा रहमान की आई तो वह बहुत गमगीन हो गए। बोले, ‘वहीदा जी ने मेरे साथ काम तो किया है। पर हीरोइन वह देवानंद की हैं। ट्यून उन्हीं के साथ उन की बनी। गुरुदत्त के साथ भी।’ कई और उन की ख़ास हीरोइनों पर भी चर्चा चली। पर बात जब सचमुच ही ज्यादा फैल क्या गई, बिलकुल ‘पर्सनल’ होने की हद तक आ गई जो जाहिर है कि मेरे सवालों से नहीं जॉनी वाकर की चुहुलबाजी से आ गई तो आदत के मुताबिक दिलीप कुमार सख़्त हो गए। जॉनी वाकर से बहुत संक्षिप्त सा बोले, ‘इंटरव्यू आप का हो रहा है?’
जॉनी वाकर और हम दोनों ही चुप लगा गए। उन की सर्द सख़्त आवाज का संकेत भी यही था। फिर ज़रा देर बाद ही मैं ने पूछ लिया है कि, ‘विमल रॉय जैसा निर्देशक और शरत बाबू का देवदास जैसा चरित्र आप को न मिला होता तो आप क्या होते भला?’
पर दिलीप कुमार चुप ही रहे। कुछ बोले नहीं। बस जानी वाकर को घूर कर रह गए हैं।
शाहाबाद में टाऊन एरिया के चेयरमैन के घर खाना खाने गए। दिलीप कुमार ने डट कर चिकन खाया। मुगलई कटोरों में। और टोटी वाले लोटों से पानी पिया। बहरहाल, खाना खाने और नींबू पानी से हाथ धोने, पोंछने के बाद दिलीप कुमार को जनानखाने में भी ले जाया गया। जहां बच्ची, बूढ़ी, जवान, खड़ी थीं। कुछ नीचे, कुछ छत पर, कुछ आंगन में तो कुछ दीवार पर। दिलीप कुमार के आंगन में पहुंचते ही उन औरतों का रुन-झुन शोर यकबयक थम कर ख़ामोशी में तब्दील हो गया। सभी आंखें ख़ामोश लेकिन जैसे बहुत कुछ बोलती हुईं। बुरके से टुकुर-टुकुर ताकती हुईं। एक ख़ुशी भरी ख़ामोशी जैसे पूरे जनानखाने में तारी हो गई। अजब यह था कि इस ख़ामोशी में पैंट की जेब में एक हाथ डाले खडे़ दिलीप कुमार भी जरा देर ख़ामोश रहे। ऐसे गोया झील की बल खाती लहरें उड़ते हुए हंस के पंखों को थाम लें। हंस को उड़ने न दें! ढेर सारी औरतों-बच्चों ने जैसे उन्हें घेर लिया और अपलक निहारने लगे। बिलकुल खामोश। अंतत: दिलीप कुमार ही बोले, 'अरे भाई सलाम-दुआ कुछ नहीं?' वह ज़रा रुके और ठहर कर देखने लगे। और बोले,‘आदाब!’
अचानक ख़ामोशी तोड़ती हुई दिलीप कुमार की हाथ उठाती आवाज़ क्या गूंजी एक साथ कांच की सैकड़ों चूड़ियां और पचासों पायलें बाज गईं। ऐसे, जैसे पंडित शिवकुमार शर्मा का संतूर बज गया हो, ऐसे जैसे कोई जल तरंग सोए-सोए जाग गया हो। आंखों के संकोच में सने दर्जनों हाथ उठे और जबान बोली, ‘आदाब!!’ मिठास ऐसी जैसे मिसरी फूट कर किसी नदी में बह चली हो! लगा जैसे कमाल अमरोही की किसी फिल्म का शॉट चल रहा हो। बिना कैमरा, बिना लाइट, बिना साउंड-म्यूजिक और बिना डायरेक्टर के। गुरुदत्त की किसी फिल्म के किसी भावुक दृश्य की तरह। हालां कि ‘आदाब’ के पहले भी बिन बोले ही उन औरतों और दिलीप कुमार के बीच एक अव्यक्त सा संवाद उपस्थित था जिसे ठिठका हुआ समय दर्ज भी कर रहा था। पर दिलीप कुमार बिना निर्देशन के इस दृश्य की संवेदनशीलता, कोमलता और इसके औचक सौंदर्य को शायद समझ नहीं पाए या वापस जाने की हड़बड़ी में अकुलाए उन्हें जाने क्या सूझा कि वह घबरा कर ‘आदाब!’ बोल बैठे। जैसे किसी ठहरे हुए पानी में कोई कंकड़ फेंक दे। यही किया दिलीप कुमार ने।
लेकिन कांच की चूड़ियों की खन-खन और पायलों की रुन-झुन में भीग कर जो ‘आदाब’ जवाब में उधर से आया लगा कि दिलीप कुमार उस में भींज कर भहरा गए हैं। मैं ने देखा वह सचमुच मुंह बा कर, माथे पर बालों की लटों को थामे क्षण भर तो खड़े रह गए। पर आगे ख़ामोशी की फिर एक सुरंग थी। लंबी सुरंग!
इस सुरंग को भी फिर छोटा किया दिलीप कुमार ने, ‘कुछ तो बोलिए आप लोग! आप लोगों से ही मिलने आया हूं।’ यह बात दिलीप कुमार ने बिलकुल परसियन थिएटर की तर्ज में थोड़ा जोर से कही। और जेब में डाला हुआ हाथ बाहर निकाल लिया।
‘कोई गाना सुनाइए!’ घाघरा पहने, दुपट्टा मुंह में खोंसती हुई एक लड़की दबी जबान बोली। जिसे दिलीप कुमार ने सुन कर भी अनसुना किया। ज़रा जोर दे कर बोले, ‘क्या कहा आप ने?’
‘गाना सुनाइए!’ वह झटके से दिलीप कुमार के सुर में बोल कर चुप हो गई।
‘आप लोग तो जानती हैं मैं सिंगर नहीं हूं।’ वह बोले, ‘फिल्मों में तो मेरे होंठ हिलते हैं। गाने वाले दूसरे लोग होते हैं।’ वह बात में थोड़ा ठसक भर कर बोले।
‘तो कोई डायलाग सुनाइए!’ एक दूसरी लड़की बोली।
‘मुगले-आज़म का!’ यह एक तीसरी लड़की बोली।
‘कुछ और बात कीजिए!’ दिलीप कुमार इस फरमाइश को भी ख़ारिज करते हुए बोले, ‘डायलाग का यह समय माकूल नहीं है।’ फिर वह कलफ लगी उर्दू पर उतर आए। इतनी कि बोर हो चली औरतों में ख़ामोशी की जगह खुसफुसाहट ने ले ली। दिलीप कुमार को भी राह मिली। चलने लगे। बोले, ‘अस्सलाम वालेकुम!’ उधर से भी एक साथ कई कर्कश आवाजें आईं, ‘वाले कुम अस्सलाम!’
लगा कि जैसे आसमान बदल गया है। कमाल अमरोही के आसमान पर आई.एस. जौहर का बादल छा गया हो और महमूदी बौछार आने लगे।
बहरहाल दिलीप कुमार बड़े झटके से मुड़े और हाथ हिलाते, जबरिया मुसकुराते हुए जनानखाने से बाहर आ गए। पीछे-पीछे जॉनी वाकर और मैं भी।
dilip kumar ko hubhoo pesh kiya hai aapne ..bilkul unki nazakt ..nafast aur urdu tarzuma ke aura ke saath ...zabardast lekh ...!!
ReplyDeleteBhai dayanand jee, aapko isi lekh ki tarz pr kahoon to " film pr lekh likhna koi hansi_khel nahi" ,kyon ki aapko pata nahi ki dilip sahab kabhi muflisi me nahi the aur na hi unki maali halat kharab thi. unka nasik ke sainik rihayasi ilake me falon ke vitran ka theka tha. iske alawa 1940 ke dashak me Rs. 130 kum nahi hote the. Ek baat aur ki "KALINGA" ke producer Bokadia nahi, balki SUDHKAR BOKADE the. bhai namrtapoorvak ek sujhav hai ki sahitya to aap jhonk sakte hain, kabhi-kabhi achcha bhi likhte hain , lekin kum se kum filmo pr likhte samay padh-likh liya kariye. jahan se ye teeno photo uthaye hain, usi site pr aapko poora vivran mil sakta tha, magar aapne ye nahi kiya aur jo aapke ALLAHABAD WAALE chacha ne bata diya ... aapne likh maara. ek baat aur ki anchlik aur chamatkarik shabdon se upanyas va kahani to likhi ja sakti hai, filmi lekh nahi ; aapka yeh lekh SHABDON KA CHAMTKAR hi hai, jo ek chchota sa drishy tha, jisme aap shayad upasthit rahe, saath hi janankhane ka drishy-varnan aapki kewal "KAPOL KALPNA" LAGTI HAI,... Aapki unse hui baat me BHOJPURI ka bhi zikr aaya hai, jo bhramak lagta hai, kyonki, 1964 me unhone bhojpuri me ek script likhi thi, jis pr Saira jee ne "AB TO BAN JA SAJANWA HAMAAR" FILM BANAYI, JO 2006 ME PRADARSHIT HUI. AT: BHAI, anytha na lete huye filmi lekh likhte samay satarkta jaroor barten... aapki lekhni chalti rahe... yehi shubhkamna hai. - HEMANT SHUKLA, LKO.
ReplyDeleteबहुत जानकारी मिली
ReplyDeleteबहुत कठिन होता है अभिनय
ये महसूस करना एक बडी बात है
आपने बडे हो लय में भेंटवार्ता लिखी-बहुत अच्छा लगा
धन्यवाद