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गीत
गीत
दयानंद पांडेय
बंसवाड़ी में बांस नहीं है
चेहरे पर अब मांस नहीं है
कैसे दिन की दूरी नापें
पांवों पर विश्वास नहीं है।
इन की उन की अंगुली चाटी
दोपहरी की कतरन काटी
उमड़-घुमड़ सपने बौराए
जैसे कोड़ें बंजर माटी
ज़ज़्बाती मसलों पर अब तो
कतरा भर विश्वास नहीं है।
शाम गुज़ारी तनहाई में
पूंछ डुलाई बेगारी में
सपनों बीच तिलस्म संजोए
पहुंचे अपनी फुलवारी में
फीके-फीके सारे झुरमुट
अंगुल भर उल्लास नहीं है।
[नया प्रतीक, मई, 1978 में प्रकाशित]
आज अनानायास आपका ब्लॉग दिखा .....मुझे गीत विशेष रूप से स्पर्श करते हैं .... यह गीत आम आदमी की बेचारगी , कुंठा और अभाव को बखूबी कह गया ..बधाई आपको इस गीत के लिए
ReplyDeleteAap ki qalam me aag hai aur paani bhi.Badhai.
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