कोई २३ साल पहले ऊषा उत्थुप से यह बात चीत स्वतंत्र भारत के लिए दयानंद पांडेय ने की थी। वर्ष १९८९ की गरमियों में। और सुखद यह कि यह ऊषा उत्थुप आज भी स्टेज पर उसी तरह सक्रिय हैं। बदस्तूर। जैसे तब थीं। और यह इंटरव्यू इसी अर्थ में प्रासंगिक भी है। और सारी बातें भी। बस कुछ संख्या वाले विवरण को छोड कर। लेकिन वह भी यहां देने का फिर भी मोह है तो इस लिए कि वह अभी भी दिलचस्प है और कि पढ़ने का स्वाद भी देता ही देता है।
उलाहने बहुत हैं, ऊषा उत्थुप के पास और बहाने भी उतने ही। दिलकश, दमदार और दयनीय।
बंबई में बचपन और जवानी बिताने के बाद अब कलकत्ते में बसेरा बना चुकी ऊषा उत्थुप से अगर आप पूछें कि शुरू-शुरू में अपनी गायकी का जो नशा अपने दीवानों में घोला था, ‘दम मारो दम’, ‘हरे कृष्णा, रहे राम’ या ‘हरि ओम हरि’ के साथ जो जादू चलाया था, उस ग्राफ को बरकरार क्यों नहीं रख पाईं? तो पहले तो वह इस सवाल को समझेंगी नहीं। आप अगर फिर भी समझा ले गए तो वह बोलेंगी, ‘हूं तो आप के सामने। अगर वह नशा बरकरार नहीं है तो बतौर गायिका मैं ज़िंदा कैसे हूं अभी तक?’ वह पलट कर पूछेंगी। वह यह भी पूछेंगी कि, ‘आप यह सवाल आखिर उन से कर ही क्यों रहे हैं?’ आप फिर भी कुछ पूछेंगे तो वह चौंकेंगी। चौंक-चौंक जाएंगी और बार-बार चिहुंकेंगी। और जो आप कुछ ज़्यादा तफ़सील में जाने की ठान ही लेंगे तो वह फिर सचमुच तफ़सील में आ जाएंगी और बड़े तरकीब से बताएंगी कि, ‘दरअसल मैं प्ले बैक सिंगर (पार्श्व गायिका) नहीं हूं। मैं तो बेसिकली स्टेज आर्टिस्ट। आई एम स्टेज आर्टिस्ट। ठीक वैसे ही जैसे पीनाज मसानी कहती हैं, ‘बेसिकली आई एम ए गजल सिंगर।’
‘पर ऊषा यह तुलना, यह ब्यौरा इस लिए देती हैं कि आप ने पूछ लिया है कि यह चौबीस बरस की गायकी जीने के बाद भी आप के पास दो दर्जन फ़िल्मों का भी स्कोर क्यों नहीं है?’ अब इस सवाल के बाद उन का मुखौटा उतर ही जाना है और बार-बार चौंक-चौंक जाने के अभिनय का असर भी। ऐसे में वह यह बताना नहीं भूलतीं कि स्टेज आर्टिस्ट होने के कारण ही गायकी का लंबा पठार देखने के बावजूद वह ज़िंदा हैं। वह ज़िंदा इस लिए हैं कि वह सिर्फ़ पार्श्व गायिका भर नहीं हैं। वह कहती हैं, ‘नहीं, देखिए न, कहां गईं शारदा, कहां गईं कमल बरोट। सब कहीं न कहीं गुम हो गईं।’ इस लिए कि वह सिर्फ़ पार्श्व गायिका भर थीं।’ हालां कि वह यह भी बता रही हैं कि, हिंदुस्तान में अगर फ़िल्में नहीं होतीं तो शायद गायकी की सदाबहार दुनिया भी नहीं होती।
पर पॉप म्यूजिक हिंदी में आ कर मर क्यों जाता है? यह पूछने पर पॉप क्वीन ऊषा उत्थुप उलाहने के अंदाज़ में कहती हैं, ‘नहीं, ऐसी बात नहीं है।’ पर लता मंगेशकर तो कहती हैं कि हिंदी में आ कर पॉप म्यूजिक मर जाता है। तब ऊषा उत्थुप हथियार डाल देती हैं। ‘लता जी कहती हैं तो ज़रूर कोई बात होगी।’ और वह आहत हो जाती हैं। पर दूसरे ही क्षण वह लता मंगेशकर द्वारा गाए कुछ पॉप गानों का ज़िक्र चला देती हैं।
वह फिर चौंक गई हैं, क्यों कि आप ने पूछ लिया है कि क्या पॉप म्यूजिक इस लिए पापुलर हो रहा है कि पॉप में डबल मीनिंग वाले गानों की खपत कहिए या गुंजाइश ज़्यादा है। वह सिरे से इंकार कर देती हैं। फिर हिलती हैं और जोर दे कर कहती हैं, ‘ऐसा नहीं है।’
पर अगर आपने पार्वती खान द्वारा गाए गीत ‘खुल्ला ताला छोड़ आई नींद के मारे’ और इस जैसे गीतों की याद उन्हें दिला दी है तो वह बिना कुछ कहे हथियार डाल देती हैं। पर दूसरे ही क्षण किसी दूसरे सवाल के जवाब में वह दहाड़ रही हैं, ‘हां, मैं घटिया औरतों के लिए गीत गाती हूं तो इसमें बुरा क्या है? मुझे तो अच्छा लगता है।’ घटिया औरत मतलब? उन का इशारा हेलेन, कल्पना अय्यर जैसी खल चरित्र नायिकाओं द्वारा अभिनीत भूमिकाओं की ओर है। वह कहती हैं ‘मुझे तो अच्छा लगता है, इन के लिए गा कर। घटिया औरत के लिए गा कर।’ वह निरुत्तर हैं, क्यों कि उन से पूछ लिया गया है कि, ‘आप के हिंदी वाले कैसेट ज़्यादा बिकते हैं या अंग्रेजी के?’ वह छूटते ही बता देती हैं, हिंदी के। फिर आप का परिचय अंग्रेजी ही में पहले क्यों बनता है और कि आप अंग्रेजी ही में हरदम क्यों बोलते रहना चाहती हैं? आप ने पूछ लिया है और वह निरुत्तर हैं। बहुत बाद में बमुश्किल और लगभग सकुचाई हुई सी वह पूछ लेती हैं कि ‘आखिर अंग्रेजी में बुराई क्या है? हर्ज क्या है?’ इस लिए कि आप के हिंदी के कैसेट ज़्यादा बिकते हैं और आप उस की की रोटी खाती हैं। आप ने कह दिया है तो वह निरुत्तर हैं। तब जब कि वह ‘जाने वो कैसे लोग थे, जिन के प्यार को प्यार मिला’ गा लेती हैं और न सिर्फ़ हेमंत कुमार, एस.डी. वर्मन, किशोर कुमार, गीता दत्त आदि के गाए गीतों को वह अपने ‘रेंज’ में ले कर गाती हैं, बल्कि उन में अपने होने का अर्थ भी भरती हैं।
ऊषा उत्थुप का कंट्रास्ट
कंट्रास्ट की कली चटकनी देखनी हो तो पॉप गायिका ऊषा उत्थुप के साथ हो लीजिए। अब कि जैसे गाती वह पॉप हैं, पहनती साड़ी हैं। वह हैं तो महिला पर आवाज उन की मर्दों की सी मोटी है। शायद यही कारण है कि फ़िल्म ‘रोटी की कीमत’ में वह मिथुन चक्रवर्ती के लिए गाती मिलेंगी, पर नाकाबंदी में वह श्रीदेवी के लिए ‘आ का मा का ना का’ भी गाती हैं।
ऊषा उत्थुप की निजी ज़िंदगी में भी कम कंट्रास्ट नहीं हैं। वह खुद गायिका हैं तो उन के पिता वैद्यनाथ सोमेश्वर बंबई पुलिस की क्राइम ब्रांच के डिप्टी कमिश्नर हैं। जबकि पति जानी उत्थुप कलकत्ते के चाय व्यापारी हैं। दो टीन एजर्स बच्चे 17 वर्षीया बेटी अंजलि और 16 साल के बेटे सनी की मां ऊषा उत्थुप जीवन के चौथे दशक से गुज़र रही हैं। उन की गायकी का यह 24 वां बरस है पर कंट्रास्ट के बजाय एक तिहरा साम्य भी देखिए कि 13 भारतीय भाषाओं में गाने वाली ऊषा उत्थुप 13 देशों में अपनी गायकी गुंजा आई हैं। ठीक वैसे ही जैसे उन्हों ने अभी तक कुल जमा 13 हिंदी फ़िल्मों में गीत गाए हैं। यह तो हुआ 13 का तिहरा साम्य। एक साम्य सात का भी है उन के साथ। उन के सात कैसेट हैं और सात एलपी रिकार्ड। गायकों में उन्हें येसुदास पसंद हैं और संगीतकारों में बप्पी लाहिड़ी तथा दक्षिण के इले राजा। ऊषा उत्थुप खुद अपना रिकार्डिंग स्टूडियो पिछले आठ-दस बरस से चला रही हैं, पर उन का सपना संगीतकार बनने का भी है। वह भी माडर्न। मतलब पॉप म्युजिशियन बनने का। ऊषा उत्थुप के कंट्रास्ट में कई कष्ट भी समाए पड़े हैं। जैसे वह अति सुंदर नहीं हैं। इस का एहसास उन्हें है और आप बात करें उस के पहले ही वह इस बात को साफ कर देती हैं वह कि ‘देखिए सुंदरता का तो कोई फिक्सड पैमाना नहीं है। डिफरेंस मूड्स की डिफरेंस स्केल है।’ वह बताएंगी और बार-बार। जैसे कि वह महिला हैं, पर आवाज़ मोटी है। इस मोटी मर्द आवाज़ को वह अपना प्लस प्वाइंट भी मानती हैं और मानती हैं कि यह मोटी आवाज़ का ही बूता है कि उन की गायकी ढेरों गरमी बरसात झेल गई पर ढही नहीं।
पर हकीकत यही है कि उन का नारी मनोविज्ञान उन्हें कहीं मथता भी है। अपनी मर्द आवाज़ की मनहूसियत को समझता भी है और यह उन्हें कहीं काटता, खाता भी है। इस की चुगली उन से ब्यौरेवार बातचीत में नहीं मिलती, बल्कि विस्तार में जाने से और अनजाने ही मिलती है कि नारी सुलभ आवाज़ के लिए वह तरसती भी हैं। मुझे लगता है कि यही उन के कंट्रास्ट का कष्ट है, जिस के लिए वह अभिशप्त हैं और शायद अभिभूत भी।
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