- जितेन ठाकुर
कथाकार दयानंद पांडेय का उपन्यास हारमोनियम के हज़ार टुकड़े एक ऐसा दस्तावेज है, जो पत्रकारिता के ग्लैमर के पीछे छिपे क्रूर सत्य को उद्घाटित करता है। वास्तव में यह उपन्यास पत्रकारिता के नाम पर फैले निहायत घिनौने परिवेश के प्रति विद्रोह की दस्तक है। इस उपन्यास में हालां कि एक विशिष्ट कालखंड को रेखांकित किया गया है, पर यह पत्रकारिता के मूल्यों में निरंतर हो रहे ह्रास की कथा है। यह अखबार के ‘प्रोडक्ट’ बन जाने और पत्रकारिता से जुड़े लोगों की बेचारगी की कहानी है। दरअसल यह आज की पत्रकारिता पर की गई एक महत्वपूर्ण टिप्पणी है।
प्रबंधन के तलवे चाटने और उन के लिए सौदा पटाने वाले संपादकों की नियुक्तियों ने पद की गरिमा और दायित्वबोध दोनों को कैसे समाप्त किया, कैसे यूनियनें प्रबंधन की पिट्ठू बन गई, समाचार पत्रों में महिलाओं की नियुक्तियां उन के गुणों पर नहीं ‘फीगर’ के आधार पर होने लगी, प्रबंधन द्वारा नियम कानून ताक पर रख कर ईमानदार पत्रकारों को बाहर का रास्ता दिखाया जाने लगा और हक की मांग करने वाले पत्रकारों को सरेआम पिटवाया जाने लगा। यानी पत्रकारिता से जुड़ी सारी मान्यताएं ध्वस्त होने लगीं। ‘पत्रकारिता बदल रही थी, लोग बदल रहे थे, राजनीति बदल रही थी, मैनेजमेंट और उस की एप्रोच बदल रही थी, सो यूनियन का मिजाज भी बदला और मालिकान की मर्जी भी... अब जनरल मैनेजर संपादक से खबरों के बारे में टोका-टोकी करने लगा।’ ये पंक्तियां पत्रकारिता में शुरू हो रहे एक काले अध्याय की बानगी भर है। यह उस त्रासद सत्य की परछाई है, जिसे पत्रकारिता की दुनिया से जुड़ा पाठक या तो जानता नहीं या फिर जान कर भी कुछ करने की स्थिति में कभी नहीं होता। संपादक की सारी प्रतिबद्धता, विधान परिषद या राज्य सभा में मनोनीत होने से शुरू हो कर, पद्म श्री पाने तक समाप्त हो जाती है। इसी कोशिश में वह राजनेताओं से गठजोड़ कर के पत्रकारिता की सब से पहली शर्त, स्वतंत्रता और निष्पक्षता की हत्या कर देता है।
‘दोनों ही (संपादक) दुम हिलाने में एक्सपर्ट। फर्क बस इतना था कि एक हिंदी में हिलाता था तो दूसरा अंग्रेजी में।...हिंदी वाले ज़रा जल्दी एक्सपोज हो जाते हैं, अंग्रेजी वाले देर से।’
इन चारित्रिक विशेषताओं के आधार पर नियुक्ति पाने वाले संपादक इस देश की पत्रकारिता को कैसा योगदान दे रहे हैं, इस उपन्यास की एक मारक पंक्ति वर्तमान पत्रकारिता के संपूर्ण अध्याय को उजागर कर देती है- ‘अखबारों में यह संपादक एक ऐसा सबेरा उगा रहा था जिस सबेरे में सूरज नहीं था।’
अखबारों को प्रोडक्ट की तरह बेचने की कोशिश ने कई विकृतियों को भी जन्म दिया। हॉकर स्ट्रेटजी तय करने के लिए दूसरी चीज़ों के साथ-साथ शराब भी बांटी जाने लगी। पाठकों को लुभाने के लिए सस्ते हथकंडे अपनाए गए। नियंत्रण के लिए दबंगों को संपादक बनाया गया और पत्रकारों के मान-सम्मान को दरकिनार करते हुए ‘स्ट्रिंगर’ नामक अनिश्चित भविष्य वाले पत्रकारों को अंगूठे के नीचे दबा दिया गया।
यह उपन्यास केवल पत्रकारिता के वर्तमान परिदृश्य पर प्रश्नचिह्न नहीं लगाता, बल्कि न्यायपालिका और राजनीति को भी कठघरे में खड़ा करता है। सरलता से चीन्हे जा सकने वाले राजनेताओं और पत्रकारों के हवाले से लेखक ने कई ऐसे सत्य उद्घाटित किए हैं जो विचारवान पाठक के लिए एक बड़ा सदमा हो सकते हैं। उत्तर प्रदेश के एक समाजवादी मुख्यमंत्री को बेनकाब करते हुए लेखक ने लिखा है - ‘मुख्यमंत्री बड़ी हेकड़ी से प्रेस क्लब में बैठ कर कहता प्रेस हमारा कुछ नहीं बिगाड़ सकता। क्यों कि हमारा वोटर अखबार नहीं पढ़ता। तो हमारा क्या बिगाड़ लोगे।’
यानी एक जातिवादी मुख्यमंत्री इस बात से प्रसन्न और संतुष्ट है कि उस का वोटर अनपढ़ है। सुप्रीम कोर्ट के एक रिटायर हो रहे जज का ‘मैनेज’ हो कर एक उद्योगपति को ज़मानत देना, एक राजनेता का राममनोहर लोहिया के साथ दिखने के लिए फ़ोटो में ट्रिक से किसी व्यक्ति का सिर हटा कर अपना सिर रखवाना जैसे कई प्रसंग इस उपन्यास में मिलते हैं, जो लोकतंत्र की निपट निरीहता और विकलांगता को उजागर करते हैं। यह उपन्यास बहुत साफ तौर पर उन गड्ढों की ओर इशारा करता है, जिन में कभी लोकतंत्र के पाए होने का भ्रम इस देश ने पाला था। लेखक द्वारा किया गया एक सर्वकालिक सत्य का उद्घाटन देखिए।
‘और सचमुच मुख्यमंत्री की कल्पना से भी आगे जा कर मनमोहन कमल (संपादक) ने कुछ मनमोहक इंटरव्यू, कुछ बढिया लेख, तमाम, टिट-बिट्स, नई पुरानी फ़ोटो, मुख्यमंत्री की नई पुरानी आकांक्षाएं, इच्छाएं, उन का भोजन, व्यायाम, दिनचर्या, मित्र अहबाब, गांव, परिवार, पहलवानी, खांसी-जुकाम सब को गूंथ कर एक लाजवाब, सप्लीमेंट निकाल दिया...तमाम अखबार इस में अपने को पीछे पा कर हाथ मल कर, मन मसोस कर रह गए।’
दरअसल, यह उपन्यास एक ऐसा तमाचा है, जिस की गूंज बहरे कानों को भी परेशान करेगी। इस उपन्यास में रूपायित होता समय हमारी चेतना को बुरी तरह आहत करता है। विकृत व्यवस्था और विकलांग लोकतंत्र को परत-दर-परत खोलता यह उपन्यास इतना जीवंत है कि रचनाशीलता के तथाकथित सांचों को तोड़ कर अपने लिए एक नई जमीन पुख्ता करता है। इस उपन्यास में एक समर्पित पत्रकार का पतन, उस की कुंठा और पीड़ा का चित्रण है तो एक शातिर, ऐय्याश, और दलालनुमा संपादक को भी अत्यंत सजीवता के साथ चित्रित किया गया है। अखबारों से कई तरह का रिश्ता रखने वाले कर्मचारियों की हताशा, टूटन और अंधे भविष्य को इंगित किया गया है तो उद्योगपतियों के अखबार निकालने के कारणों की गहरी पड़ताल भी की गई है।
यह उपन्यास जहाँ एक ओर एकरसतावादी उपन्यासों की जड़ता को तोड़ता है, वहीं समय की उन बेचैनियों का भी वहन करता है, जिसे पहचानते हुए भी आकार देना बहुत सरल कभी नहीं रहा। इस उपन्यास में न तो भाषा की पच्चीकारी है और न ही मुहावरों को निभा ले जाने का आग्रह। यह उपन्यास विद्रोह पर उतारू एक आहत लेखक की ऐसी कृति है जो बैचैन भी करती है और क्रोधित भी। लेखक ने आस्था और विश्वास के उन टुकड़ों को भी सहेजने की चेष्टा की है, जिन्हें इस समय में बलिहारी मान कर उपेक्षित कर दिया गया है। लेखक की चिंता, समाज को वीभत्स बनाने और जुगुप्सा जगाने वाले उन कारणों की गहरी पड़ताल करती है, जहाँ लोकतंत्र साफ-साफ भीड़ तंत्र में परिवर्तित होता हुआ दिखाई देता है और लोकतंत्र का चौथा पाया भी लोकतंत्र का एक ताबूत नज़र आता है।
दरअसल यह एक ऐसी कहानी है जो हमारी दिनचर्या में शामिल है और चाह कर भी जिस से हम बच नहीं सकते, पर जिस की असलियत को समझ-बूझ लेने के बाद हम अखबारी पकड़ से मुक्त हो कर स्व-विवेक से अहम फ़ैसले करने की स्थिति में पहुंच ज़रूर सकते हैं।
[जनसत्ता से साभार]
समीक्ष्य पुस्तक :
कथाकार दयानंद पांडेय का उपन्यास हारमोनियम के हज़ार टुकड़े एक ऐसा दस्तावेज है, जो पत्रकारिता के ग्लैमर के पीछे छिपे क्रूर सत्य को उद्घाटित करता है। वास्तव में यह उपन्यास पत्रकारिता के नाम पर फैले निहायत घिनौने परिवेश के प्रति विद्रोह की दस्तक है। इस उपन्यास में हालां कि एक विशिष्ट कालखंड को रेखांकित किया गया है, पर यह पत्रकारिता के मूल्यों में निरंतर हो रहे ह्रास की कथा है। यह अखबार के ‘प्रोडक्ट’ बन जाने और पत्रकारिता से जुड़े लोगों की बेचारगी की कहानी है। दरअसल यह आज की पत्रकारिता पर की गई एक महत्वपूर्ण टिप्पणी है।
प्रबंधन के तलवे चाटने और उन के लिए सौदा पटाने वाले संपादकों की नियुक्तियों ने पद की गरिमा और दायित्वबोध दोनों को कैसे समाप्त किया, कैसे यूनियनें प्रबंधन की पिट्ठू बन गई, समाचार पत्रों में महिलाओं की नियुक्तियां उन के गुणों पर नहीं ‘फीगर’ के आधार पर होने लगी, प्रबंधन द्वारा नियम कानून ताक पर रख कर ईमानदार पत्रकारों को बाहर का रास्ता दिखाया जाने लगा और हक की मांग करने वाले पत्रकारों को सरेआम पिटवाया जाने लगा। यानी पत्रकारिता से जुड़ी सारी मान्यताएं ध्वस्त होने लगीं। ‘पत्रकारिता बदल रही थी, लोग बदल रहे थे, राजनीति बदल रही थी, मैनेजमेंट और उस की एप्रोच बदल रही थी, सो यूनियन का मिजाज भी बदला और मालिकान की मर्जी भी... अब जनरल मैनेजर संपादक से खबरों के बारे में टोका-टोकी करने लगा।’ ये पंक्तियां पत्रकारिता में शुरू हो रहे एक काले अध्याय की बानगी भर है। यह उस त्रासद सत्य की परछाई है, जिसे पत्रकारिता की दुनिया से जुड़ा पाठक या तो जानता नहीं या फिर जान कर भी कुछ करने की स्थिति में कभी नहीं होता। संपादक की सारी प्रतिबद्धता, विधान परिषद या राज्य सभा में मनोनीत होने से शुरू हो कर, पद्म श्री पाने तक समाप्त हो जाती है। इसी कोशिश में वह राजनेताओं से गठजोड़ कर के पत्रकारिता की सब से पहली शर्त, स्वतंत्रता और निष्पक्षता की हत्या कर देता है।
‘दोनों ही (संपादक) दुम हिलाने में एक्सपर्ट। फर्क बस इतना था कि एक हिंदी में हिलाता था तो दूसरा अंग्रेजी में।...हिंदी वाले ज़रा जल्दी एक्सपोज हो जाते हैं, अंग्रेजी वाले देर से।’
इन चारित्रिक विशेषताओं के आधार पर नियुक्ति पाने वाले संपादक इस देश की पत्रकारिता को कैसा योगदान दे रहे हैं, इस उपन्यास की एक मारक पंक्ति वर्तमान पत्रकारिता के संपूर्ण अध्याय को उजागर कर देती है- ‘अखबारों में यह संपादक एक ऐसा सबेरा उगा रहा था जिस सबेरे में सूरज नहीं था।’
अखबारों को प्रोडक्ट की तरह बेचने की कोशिश ने कई विकृतियों को भी जन्म दिया। हॉकर स्ट्रेटजी तय करने के लिए दूसरी चीज़ों के साथ-साथ शराब भी बांटी जाने लगी। पाठकों को लुभाने के लिए सस्ते हथकंडे अपनाए गए। नियंत्रण के लिए दबंगों को संपादक बनाया गया और पत्रकारों के मान-सम्मान को दरकिनार करते हुए ‘स्ट्रिंगर’ नामक अनिश्चित भविष्य वाले पत्रकारों को अंगूठे के नीचे दबा दिया गया।
यह उपन्यास केवल पत्रकारिता के वर्तमान परिदृश्य पर प्रश्नचिह्न नहीं लगाता, बल्कि न्यायपालिका और राजनीति को भी कठघरे में खड़ा करता है। सरलता से चीन्हे जा सकने वाले राजनेताओं और पत्रकारों के हवाले से लेखक ने कई ऐसे सत्य उद्घाटित किए हैं जो विचारवान पाठक के लिए एक बड़ा सदमा हो सकते हैं। उत्तर प्रदेश के एक समाजवादी मुख्यमंत्री को बेनकाब करते हुए लेखक ने लिखा है - ‘मुख्यमंत्री बड़ी हेकड़ी से प्रेस क्लब में बैठ कर कहता प्रेस हमारा कुछ नहीं बिगाड़ सकता। क्यों कि हमारा वोटर अखबार नहीं पढ़ता। तो हमारा क्या बिगाड़ लोगे।’
यानी एक जातिवादी मुख्यमंत्री इस बात से प्रसन्न और संतुष्ट है कि उस का वोटर अनपढ़ है। सुप्रीम कोर्ट के एक रिटायर हो रहे जज का ‘मैनेज’ हो कर एक उद्योगपति को ज़मानत देना, एक राजनेता का राममनोहर लोहिया के साथ दिखने के लिए फ़ोटो में ट्रिक से किसी व्यक्ति का सिर हटा कर अपना सिर रखवाना जैसे कई प्रसंग इस उपन्यास में मिलते हैं, जो लोकतंत्र की निपट निरीहता और विकलांगता को उजागर करते हैं। यह उपन्यास बहुत साफ तौर पर उन गड्ढों की ओर इशारा करता है, जिन में कभी लोकतंत्र के पाए होने का भ्रम इस देश ने पाला था। लेखक द्वारा किया गया एक सर्वकालिक सत्य का उद्घाटन देखिए।
‘और सचमुच मुख्यमंत्री की कल्पना से भी आगे जा कर मनमोहन कमल (संपादक) ने कुछ मनमोहक इंटरव्यू, कुछ बढिया लेख, तमाम, टिट-बिट्स, नई पुरानी फ़ोटो, मुख्यमंत्री की नई पुरानी आकांक्षाएं, इच्छाएं, उन का भोजन, व्यायाम, दिनचर्या, मित्र अहबाब, गांव, परिवार, पहलवानी, खांसी-जुकाम सब को गूंथ कर एक लाजवाब, सप्लीमेंट निकाल दिया...तमाम अखबार इस में अपने को पीछे पा कर हाथ मल कर, मन मसोस कर रह गए।’
दरअसल, यह उपन्यास एक ऐसा तमाचा है, जिस की गूंज बहरे कानों को भी परेशान करेगी। इस उपन्यास में रूपायित होता समय हमारी चेतना को बुरी तरह आहत करता है। विकृत व्यवस्था और विकलांग लोकतंत्र को परत-दर-परत खोलता यह उपन्यास इतना जीवंत है कि रचनाशीलता के तथाकथित सांचों को तोड़ कर अपने लिए एक नई जमीन पुख्ता करता है। इस उपन्यास में एक समर्पित पत्रकार का पतन, उस की कुंठा और पीड़ा का चित्रण है तो एक शातिर, ऐय्याश, और दलालनुमा संपादक को भी अत्यंत सजीवता के साथ चित्रित किया गया है। अखबारों से कई तरह का रिश्ता रखने वाले कर्मचारियों की हताशा, टूटन और अंधे भविष्य को इंगित किया गया है तो उद्योगपतियों के अखबार निकालने के कारणों की गहरी पड़ताल भी की गई है।
यह उपन्यास जहाँ एक ओर एकरसतावादी उपन्यासों की जड़ता को तोड़ता है, वहीं समय की उन बेचैनियों का भी वहन करता है, जिसे पहचानते हुए भी आकार देना बहुत सरल कभी नहीं रहा। इस उपन्यास में न तो भाषा की पच्चीकारी है और न ही मुहावरों को निभा ले जाने का आग्रह। यह उपन्यास विद्रोह पर उतारू एक आहत लेखक की ऐसी कृति है जो बैचैन भी करती है और क्रोधित भी। लेखक ने आस्था और विश्वास के उन टुकड़ों को भी सहेजने की चेष्टा की है, जिन्हें इस समय में बलिहारी मान कर उपेक्षित कर दिया गया है। लेखक की चिंता, समाज को वीभत्स बनाने और जुगुप्सा जगाने वाले उन कारणों की गहरी पड़ताल करती है, जहाँ लोकतंत्र साफ-साफ भीड़ तंत्र में परिवर्तित होता हुआ दिखाई देता है और लोकतंत्र का चौथा पाया भी लोकतंत्र का एक ताबूत नज़र आता है।
दरअसल यह एक ऐसी कहानी है जो हमारी दिनचर्या में शामिल है और चाह कर भी जिस से हम बच नहीं सकते, पर जिस की असलियत को समझ-बूझ लेने के बाद हम अखबारी पकड़ से मुक्त हो कर स्व-विवेक से अहम फ़ैसले करने की स्थिति में पहुंच ज़रूर सकते हैं।
[जनसत्ता से साभार]
समीक्ष्य पुस्तक :
हारमोनियम के हज़ार टुकडे पृष्ठ सं.88 मूल्य-150 रुपए प्रकाशक जनवाणी प्रकाशन प्रा. लि. 30/35-36, गली नंबर- 9, विश्वास नगर दिल्ली- 110032 प्रकाशन वर्ष-2011 |
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