भारत भूमि जिन्हें बार-बार पुकारती है
स्वीडन की रॉयल अकादमी ने जब साहित्य का नॉबेल पुरस्कार सर विद्याधर सूरज प्रसाद नायपाल को देने की घोषणा की, तो भारतीयों को यह सुखद लगा था। इस लिए भी की श्री नायपाल भारतीय मूल के दूसरे ऐसे लेखक हैं जिन्हें साहित्य का नोबेल पुरस्कार मिला है। इस के पहले 1913 में गीतांजलि के लिए रवींद्र नाथ टैगोर को नोबेल पुरस्कार दिया गया था। श्री नायपाल को 10 लाख डॉलर पुरस्कार राशि के तौर पर मिला।
भारतीय मूल के श्री नायपाल अंगरेजी में अपने अनूठे गद्य के लिए विख्यात हैं। जैसे किसी को फटे हुए कुर्ते को बार-बार सिलना पड़ता है शायद ठीक वैसी ही विवशता जीते हुए नायपाल भारत भूमि पर लौटते हैं अपनी रचनाओं में। शायद अपनी पुरखों को हेरने, अपनी विरासत को टटोलने। यहां की तकलीफ यहां का अंधेरा, यहां की यातना उन्हें तोड़ती है, उन की पैतृक विरासत यहां से उन्हें जोड़ती है तो वह लिखते हैं ‘ऐन एरिया ऑफ डार्कनेस!’ वह और आगे बढ़ते हैं तो ‘इंडिया: ए वुंडेड सिविलाइजेशन’ लिखते हैं।
‘ए हाउस फॉर मिस्टर विश्वास’ में वह पहले ही अपने पत्रकार लेखक पिता की यातना लिख कर औपन्यासिक दुनिया में अपना प्रताप दिखा चुके थे। ‘इंडिया: ए मिलियन म्युटिनीज नाऊ’ में भी वह भारत-भूमि में अपने पितामह की तकलीफों का तार छूते दीखते हैं। ‘हाफ ए लाइफ’ में भी वह अपने पुरखों-पुजारियों की त्रासदी और उन का तनाव तंबू तानते हैं। तो शायद इस लिए कि उन के पुरखे मंदिर के पुजारी थे और अब वह कलम के पुजारी। दरअसल सर विद्याधर सूरज प्रसाद नायपाल उन विरले लेखकों में हैं जो अपनी जड़ों को भूल कर भी नहीं भूलते, न सिर्फ नहीं भूलते बल्कि बार-बार अपनी रचनाओं में उन जड़ों को जोड़ते हैं। वह रचनाओं में ही नहीं वास्तव में भी भारत आते रहते हैं। भले ही रचनाओं की तरह हरदम नहीं, कभी कभार ही सही पर आते तो हैं। और गोरखपुर के अपने उस गांव भी जाते हैं जहां से उन के बाबा त्रिनिदाद गए थे। फिर वहीं बस गए। विद्याधर सूरज प्रसाद नायपाल अपने नाम के आगे जो नायपाल लिखते हैं, यह नायपाल कोई जाति नहीं है, कोई उपनाम भी नहीं है। जाति से तो वह ब्राह्मणों में दुबे हैं।(हालां कि खुशवंत सिंह ने तो अपनी कलम से उन्हें पांडेय लिखा है।) और यह नायपाल तो त्रिनिदाद की उस सड़क का नाम है जहां नायपाल कभी अपने पिता के साथ रहते थे। बाद में तो वह यायावर हो गए लेकिन नायपाल रोड वह नहीं भूले। नाम के साथ जोड़े रहे। और अपने नाम के पहले जो सर लिखते हैं यह उपाधि 1990 में उन्हें ब्रिटेन ने उन्हें दी। वह ब्रिटेन जिस के लिए वह कहते हैं कि, ‘ब्रिटेन दोयम दर्जे के नागरिकों का देश है।’ अब तो वह यायावरी लगभग बिसार कर अपनी पाकिस्तानी पत्नी नादिरा के साथ इंगलैंड के पश्चिम में बसे विल्टशायर में रहते हैं। और अंगरेजी में बेहतरीन गद्य लिखने का सिलसिला यायावरी से ले कर उपन्यास तक चलाए हुए हैं।
बेहतरीन अंगरेजी गद्य के लिए जाने जाने और भव्य एकांत का लेखक माने जाने वाले सर विद्याधर सूरज प्रसाद नायपाल अपनी जड़ों से कितना गहरे जुड़े हुए हैं, गोरखपुर का वह गांव उन में अभी तक कैसे जीवित है उस की थाह आप इसी बात से लगा सकते हैं कि वह अंगरेजी के बाद सीधे भोजपुरी ही बोलते हैं, हिंदी वह जानते ही नहीं। कई बार लोग कहते हैं कि नायपाल के यहां भारत के प्रति हिकारत है। खास कर नायपाल की पहली दो किताबों में। पर नायपाल कहते हैं, ‘वह हिकारत नहीं थी। एक निजी वेदना थी।’ आलोचकों की राय में ‘एन एरिया ऑफ डार्कनेस’ तथा ‘इंडिया: ए वुंडेड सिविलाइजेशन’ में भारत के प्रति बड़ी हिकारत है। हां, ‘इंडिया: ए मिलियन म्युटिनीज़ नाऊ’ में भारत के प्रति नायपाल का नकारात्मक स्वर कुछ नरम पड़ता है। 1998 में जब नायपाल भारत आए थे तब हिंदी फ़िल्मों के सुपरिचित निर्देशक श्याम बेनेगल, पत्रकार राहुल सिंह तथा संबीत बाल ने उन से एक लंबी बातचीत की थी। इस बातचीत में नायपाल से उन की पहले की दोनों किताबों में भारत के प्रति उन की हिकारत पर भी सवाल पूछा गया था। तब नायपाल बोले थे, ‘वह हिकारत नहीं थी। एक निजी वेदना थी।’ यह वेदना ही शायद उन्हें अभी तक दुनिया भर में ‘आउटसाइडर’ बनाए हुई है। वह मानते हैं कि उन का कोई देश नहीं है। नायपाल का अपनी जड़ों से उखड़ना ही अंशत: उन के जीनियस होने का श्रोत है। ऐसा श्याम बेनेगल कहते हैं।
लेकिन फिर भी विस्थापित होने का दंश और इस की कैफ़ियत अगर किसी को जाननी हो तो वह नायपाल से पूछे। वह दुनिया भर घूमे हैं, घर तलाशा है, पर घर उन्हें नहीं मिला है। वह ‘आउटसाइडर’ ही बने रहे हैं। उन के उपन्यास ‘हाफ ए लाइफ’ पर गौर करें तो उन की इस तकलीफ के बीज पसरे मिलते हैं, ‘मुझे ज़रूर लौटना चाहिए, हम पुजारियों के वंश से हैं, हम एक खास मंदिर से जुड़े हुए थे, मैं नहीं जानता कि उस मंदिर का निर्माण कब हुआ, उसे किस राजा ने बनवाया या कब से हम इस से जुड़े हुए हैं, हम लोगों को इन सब के बारे में कोई जानकारी नहीं थी। हम मंदिर के पुजारी थे और हमारा परिवार इतना बड़ा हो गया था जितना एक समुदाय का आकार होता है। एक समय, मुझे ऐसा लगता है, हमारा समुदाय काफी धनी और समृद्ध था। लोग कई तरह से हमारी सेवा करते थे। लेकिन जब मुसलमान जीत गए तो हम गरीब बन गए। जिन लोगों की हमने सेवा की वे अब हमें सहारा नहीं दे सकते थे। अंगरेजों के आने के बाद स्थितियां और बदतर हो गईं। तब कानून का राज तो था मगर जनसंख्या बढ़ गई। मंदिर के हमारे समुदाय में हम भी अनेक लोग थे। यही मेरे दादा ने मुझे बताया था। समुदाय के सारे पेचीदा नियम तो कायम थे पर खाने को बहुत कम था। लोग दुबले, कमज़ोर और बीमार पड़ने लगे। हमारे पुजारियों के समुदाय के लोगों की कैसी नियति थी! मैं 1890 के दौर के बारे में अपने दादा की इन कहानियों को सुनना पसंद नहीं करता था।’
और शायद इसी लिए अभी अपने विस्थापित होने का कारण वह भूल नहीं पाते और इस विस्थापित होने की नींव भारत पर मुगलों के आक्रमण और मंदिरों को लूटने, मूर्तियों को तोड़ने में वह देखते हैं, वह इतिहास उन्हें सालता है। वह इस्लाम के नाम पर हुए ज़ुल्म को बेपर्दा करते हैं। इस ज़ुल्म को बेपर्दा करने में वह विवादित हो इस्लाम विरोधी होने का फतवा भुगतने को विवश हो जाते हैं। तो भी नायपाल लिखते हैं, ‘भारत में कला और इतिहास की किताबें लिखने वालों ने इस्लामी आक्रमण के इतिहास को सही नहीं लिखा है।’ वह लिखते हैं, ‘भारत में कला और इतिहास लिखने वालों का मानना है कि मुसलमान पर्यटकों की तरह भारत आए और लौट गए। इस बारे में मुसलमानों के अपने विचार सच के ज्यादा करीब हैं। मुसलमान मानते हैं कि मुस्लिम आक्रमण के दौरान मुसलमानों ने अपनी आस्था का प्रचार किया, मूर्तियां और मंदिर तोड़े, लूटपाट की और स्थानीय लोगों को दास बना कर रखा।’
एक इंटरवयू में नायपाल कहते हैं, ‘मेरे विचार से भारतीय मुसलमानों को भी इतिहास की जानकारी होनी चाहिए और वास्तव में सीमा पार के लोग इतिहास खूब समझते हैं। वे इस पर बड़ी बातें भी करते हैं। फिर क्यों वे ऐसा जताते हैं कि भारतवर्ष या उस से जुड़े इतिहास का कोई अस्तित्व ही नहीं है। यह कैसा विरोधाभास है। उन के यहां छोटी कक्षाओं में पढ़ाया जाता है कि हमने हमले किए, लूटमार की और तबाही मचाई। हमने मूर्तियां तोड़ीं और ढेरों मंदिर गिराए। यकीनन ये ज़मीन हमारी है। पाकिस्तान का आज भी यह सपना है कि किसी दिन इस्लामी प्रभुत्व स्थापित होगा और दिल्ली की जामा मस्जिद में जो अजान होगी वह पाकिस्तान तक सुनाई देगी।’ पर दिक्कत यह है कि वह सच की नस पकड़ते हैं तो विवादित हो इस्लाम विरोधी कह दिए जाते हैं। हालां कि भारत पर ईसाइयत के हमले को भी वह नुकसानदेह मानते हैं लेकिन वह कहते हैं, ‘ईसाइयत के हमले ने भारत को जितना नुकसान पहुंचाया है उस से कहीं ज़्यादा नुकसान इस्लाम ने पहुंचाया है।’
खैर अभी तो वह एक साथ दो उपन्यासों की योजना बनाए हुए हैं जिस में एक आत्मकथात्मक है और दूसरा इंगलैंड पर आधारित है। उन से एक इंटरव्यू में पूछा गया कि, ‘आत्मकथात्मक उपन्यास पर लोगों से कैसी प्रतिक्रिया की अपेक्षा रखते हैं?’ जानते हैं वह क्या बोले? वह बोले, ‘यह बिलकुल निजी उपन्यास है, जिस पर किसी दूसरे की प्रतिक्रिया मेरे लिए बेमानी है।’ यह बेलौस और बेबाक बात नायपाल ही कह सकते हैं।
स्वीडन की रॉयल अकादमी ने जब साहित्य का नॉबेल पुरस्कार सर विद्याधर सूरज प्रसाद नायपाल को देने की घोषणा की, तो भारतीयों को यह सुखद लगा था। इस लिए भी की श्री नायपाल भारतीय मूल के दूसरे ऐसे लेखक हैं जिन्हें साहित्य का नोबेल पुरस्कार मिला है। इस के पहले 1913 में गीतांजलि के लिए रवींद्र नाथ टैगोर को नोबेल पुरस्कार दिया गया था। श्री नायपाल को 10 लाख डॉलर पुरस्कार राशि के तौर पर मिला।
भारतीय मूल के श्री नायपाल अंगरेजी में अपने अनूठे गद्य के लिए विख्यात हैं। जैसे किसी को फटे हुए कुर्ते को बार-बार सिलना पड़ता है शायद ठीक वैसी ही विवशता जीते हुए नायपाल भारत भूमि पर लौटते हैं अपनी रचनाओं में। शायद अपनी पुरखों को हेरने, अपनी विरासत को टटोलने। यहां की तकलीफ यहां का अंधेरा, यहां की यातना उन्हें तोड़ती है, उन की पैतृक विरासत यहां से उन्हें जोड़ती है तो वह लिखते हैं ‘ऐन एरिया ऑफ डार्कनेस!’ वह और आगे बढ़ते हैं तो ‘इंडिया: ए वुंडेड सिविलाइजेशन’ लिखते हैं।
‘ए हाउस फॉर मिस्टर विश्वास’ में वह पहले ही अपने पत्रकार लेखक पिता की यातना लिख कर औपन्यासिक दुनिया में अपना प्रताप दिखा चुके थे। ‘इंडिया: ए मिलियन म्युटिनीज नाऊ’ में भी वह भारत-भूमि में अपने पितामह की तकलीफों का तार छूते दीखते हैं। ‘हाफ ए लाइफ’ में भी वह अपने पुरखों-पुजारियों की त्रासदी और उन का तनाव तंबू तानते हैं। तो शायद इस लिए कि उन के पुरखे मंदिर के पुजारी थे और अब वह कलम के पुजारी। दरअसल सर विद्याधर सूरज प्रसाद नायपाल उन विरले लेखकों में हैं जो अपनी जड़ों को भूल कर भी नहीं भूलते, न सिर्फ नहीं भूलते बल्कि बार-बार अपनी रचनाओं में उन जड़ों को जोड़ते हैं। वह रचनाओं में ही नहीं वास्तव में भी भारत आते रहते हैं। भले ही रचनाओं की तरह हरदम नहीं, कभी कभार ही सही पर आते तो हैं। और गोरखपुर के अपने उस गांव भी जाते हैं जहां से उन के बाबा त्रिनिदाद गए थे। फिर वहीं बस गए। विद्याधर सूरज प्रसाद नायपाल अपने नाम के आगे जो नायपाल लिखते हैं, यह नायपाल कोई जाति नहीं है, कोई उपनाम भी नहीं है। जाति से तो वह ब्राह्मणों में दुबे हैं।(हालां कि खुशवंत सिंह ने तो अपनी कलम से उन्हें पांडेय लिखा है।) और यह नायपाल तो त्रिनिदाद की उस सड़क का नाम है जहां नायपाल कभी अपने पिता के साथ रहते थे। बाद में तो वह यायावर हो गए लेकिन नायपाल रोड वह नहीं भूले। नाम के साथ जोड़े रहे। और अपने नाम के पहले जो सर लिखते हैं यह उपाधि 1990 में उन्हें ब्रिटेन ने उन्हें दी। वह ब्रिटेन जिस के लिए वह कहते हैं कि, ‘ब्रिटेन दोयम दर्जे के नागरिकों का देश है।’ अब तो वह यायावरी लगभग बिसार कर अपनी पाकिस्तानी पत्नी नादिरा के साथ इंगलैंड के पश्चिम में बसे विल्टशायर में रहते हैं। और अंगरेजी में बेहतरीन गद्य लिखने का सिलसिला यायावरी से ले कर उपन्यास तक चलाए हुए हैं।
बेहतरीन अंगरेजी गद्य के लिए जाने जाने और भव्य एकांत का लेखक माने जाने वाले सर विद्याधर सूरज प्रसाद नायपाल अपनी जड़ों से कितना गहरे जुड़े हुए हैं, गोरखपुर का वह गांव उन में अभी तक कैसे जीवित है उस की थाह आप इसी बात से लगा सकते हैं कि वह अंगरेजी के बाद सीधे भोजपुरी ही बोलते हैं, हिंदी वह जानते ही नहीं। कई बार लोग कहते हैं कि नायपाल के यहां भारत के प्रति हिकारत है। खास कर नायपाल की पहली दो किताबों में। पर नायपाल कहते हैं, ‘वह हिकारत नहीं थी। एक निजी वेदना थी।’ आलोचकों की राय में ‘एन एरिया ऑफ डार्कनेस’ तथा ‘इंडिया: ए वुंडेड सिविलाइजेशन’ में भारत के प्रति बड़ी हिकारत है। हां, ‘इंडिया: ए मिलियन म्युटिनीज़ नाऊ’ में भारत के प्रति नायपाल का नकारात्मक स्वर कुछ नरम पड़ता है। 1998 में जब नायपाल भारत आए थे तब हिंदी फ़िल्मों के सुपरिचित निर्देशक श्याम बेनेगल, पत्रकार राहुल सिंह तथा संबीत बाल ने उन से एक लंबी बातचीत की थी। इस बातचीत में नायपाल से उन की पहले की दोनों किताबों में भारत के प्रति उन की हिकारत पर भी सवाल पूछा गया था। तब नायपाल बोले थे, ‘वह हिकारत नहीं थी। एक निजी वेदना थी।’ यह वेदना ही शायद उन्हें अभी तक दुनिया भर में ‘आउटसाइडर’ बनाए हुई है। वह मानते हैं कि उन का कोई देश नहीं है। नायपाल का अपनी जड़ों से उखड़ना ही अंशत: उन के जीनियस होने का श्रोत है। ऐसा श्याम बेनेगल कहते हैं।
लेकिन फिर भी विस्थापित होने का दंश और इस की कैफ़ियत अगर किसी को जाननी हो तो वह नायपाल से पूछे। वह दुनिया भर घूमे हैं, घर तलाशा है, पर घर उन्हें नहीं मिला है। वह ‘आउटसाइडर’ ही बने रहे हैं। उन के उपन्यास ‘हाफ ए लाइफ’ पर गौर करें तो उन की इस तकलीफ के बीज पसरे मिलते हैं, ‘मुझे ज़रूर लौटना चाहिए, हम पुजारियों के वंश से हैं, हम एक खास मंदिर से जुड़े हुए थे, मैं नहीं जानता कि उस मंदिर का निर्माण कब हुआ, उसे किस राजा ने बनवाया या कब से हम इस से जुड़े हुए हैं, हम लोगों को इन सब के बारे में कोई जानकारी नहीं थी। हम मंदिर के पुजारी थे और हमारा परिवार इतना बड़ा हो गया था जितना एक समुदाय का आकार होता है। एक समय, मुझे ऐसा लगता है, हमारा समुदाय काफी धनी और समृद्ध था। लोग कई तरह से हमारी सेवा करते थे। लेकिन जब मुसलमान जीत गए तो हम गरीब बन गए। जिन लोगों की हमने सेवा की वे अब हमें सहारा नहीं दे सकते थे। अंगरेजों के आने के बाद स्थितियां और बदतर हो गईं। तब कानून का राज तो था मगर जनसंख्या बढ़ गई। मंदिर के हमारे समुदाय में हम भी अनेक लोग थे। यही मेरे दादा ने मुझे बताया था। समुदाय के सारे पेचीदा नियम तो कायम थे पर खाने को बहुत कम था। लोग दुबले, कमज़ोर और बीमार पड़ने लगे। हमारे पुजारियों के समुदाय के लोगों की कैसी नियति थी! मैं 1890 के दौर के बारे में अपने दादा की इन कहानियों को सुनना पसंद नहीं करता था।’
और शायद इसी लिए अभी अपने विस्थापित होने का कारण वह भूल नहीं पाते और इस विस्थापित होने की नींव भारत पर मुगलों के आक्रमण और मंदिरों को लूटने, मूर्तियों को तोड़ने में वह देखते हैं, वह इतिहास उन्हें सालता है। वह इस्लाम के नाम पर हुए ज़ुल्म को बेपर्दा करते हैं। इस ज़ुल्म को बेपर्दा करने में वह विवादित हो इस्लाम विरोधी होने का फतवा भुगतने को विवश हो जाते हैं। तो भी नायपाल लिखते हैं, ‘भारत में कला और इतिहास की किताबें लिखने वालों ने इस्लामी आक्रमण के इतिहास को सही नहीं लिखा है।’ वह लिखते हैं, ‘भारत में कला और इतिहास लिखने वालों का मानना है कि मुसलमान पर्यटकों की तरह भारत आए और लौट गए। इस बारे में मुसलमानों के अपने विचार सच के ज्यादा करीब हैं। मुसलमान मानते हैं कि मुस्लिम आक्रमण के दौरान मुसलमानों ने अपनी आस्था का प्रचार किया, मूर्तियां और मंदिर तोड़े, लूटपाट की और स्थानीय लोगों को दास बना कर रखा।’
एक इंटरवयू में नायपाल कहते हैं, ‘मेरे विचार से भारतीय मुसलमानों को भी इतिहास की जानकारी होनी चाहिए और वास्तव में सीमा पार के लोग इतिहास खूब समझते हैं। वे इस पर बड़ी बातें भी करते हैं। फिर क्यों वे ऐसा जताते हैं कि भारतवर्ष या उस से जुड़े इतिहास का कोई अस्तित्व ही नहीं है। यह कैसा विरोधाभास है। उन के यहां छोटी कक्षाओं में पढ़ाया जाता है कि हमने हमले किए, लूटमार की और तबाही मचाई। हमने मूर्तियां तोड़ीं और ढेरों मंदिर गिराए। यकीनन ये ज़मीन हमारी है। पाकिस्तान का आज भी यह सपना है कि किसी दिन इस्लामी प्रभुत्व स्थापित होगा और दिल्ली की जामा मस्जिद में जो अजान होगी वह पाकिस्तान तक सुनाई देगी।’ पर दिक्कत यह है कि वह सच की नस पकड़ते हैं तो विवादित हो इस्लाम विरोधी कह दिए जाते हैं। हालां कि भारत पर ईसाइयत के हमले को भी वह नुकसानदेह मानते हैं लेकिन वह कहते हैं, ‘ईसाइयत के हमले ने भारत को जितना नुकसान पहुंचाया है उस से कहीं ज़्यादा नुकसान इस्लाम ने पहुंचाया है।’
खैर अभी तो वह एक साथ दो उपन्यासों की योजना बनाए हुए हैं जिस में एक आत्मकथात्मक है और दूसरा इंगलैंड पर आधारित है। उन से एक इंटरव्यू में पूछा गया कि, ‘आत्मकथात्मक उपन्यास पर लोगों से कैसी प्रतिक्रिया की अपेक्षा रखते हैं?’ जानते हैं वह क्या बोले? वह बोले, ‘यह बिलकुल निजी उपन्यास है, जिस पर किसी दूसरे की प्रतिक्रिया मेरे लिए बेमानी है।’ यह बेलौस और बेबाक बात नायपाल ही कह सकते हैं।
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