बदलते समाज का एक दस्तावेज है बांसगांव की मुनमुन
डॉ० कृपाशंकर पांडेय
मध्यमवर्गीय परिवार की जद्दोजहद, पारिवारिक ईर्ष्या-द्वेष , मां-बाप का अपने बच्चों की खुशी के लिए तिल-तिल संघर्ष, एक हुस्न और नजाकत से भरी हुई लड़की की अल्हड़ता और फिर आगे चल कर ज़िंदगी के थपेड़ों के साथ संघर्ष के सामने उस का बिल्कुल ही दूसरा क्रांतिकारी रूप, निम्न मध्यवर्गीय परिवार की मुसीबतों ,विवशताओं और मिथ्या मान-सम्मान आदि के लिए हर स्तर तक जाने की सनक , नारी-संघर्ष की तपन , उच्च पदों पर पहुंचने के बाद लड़कों का माता-पिता के प्रति सर्वथा अमानुषिक व्यवहार आदि मर्मान्तक-मर्मस्पर्शी भाव प्रवाहों का एक साथ दिग्दर्शन करना हो तो आप को वरिष्ठ साहित्यकार , पत्रकार, कवि, राजनीतिक विश्लेषक, कहानीकार, उपन्यासकार और सब से बड़ी बात एक निर्भीक संवेदनशील व्यक्तित्व आदरणीय दयानंद पांडेय जी का उपन्यास बांसगांव की मुनमुन पढ़ना चाहिए। बहुत दिनों से मैं ने कोई पुस्तक नहीं पढ़ी थी । कल अचानक दयानन्द जी के फेसबुक वाल पर बांसगांव की मुनमुन पढ़ते हुए उन के ब्लॉग सरोकारनामा तक पहुँच गया और फिर जो पढ़ा तो पूरा पढ़ ही डाला । मेरी पढ़ने की गति अत्यल्प है सो मुझे लगभग सात घण्टे लग गए लेकिन उससे जो स्वाद आया उस का हिसाब लगाना जरा मुश्किल है। लेखक की धारदार लेखनी पाठक को अपने प्रवाह के साथ बहा ले जाने में समर्थ है और अपने संवेदनाओं के समुंदर में डुबा देने भी सर्वथा सक्षम । एक लेखक की सफलता भी इसी तथ्य पर निर्भर होती है कि वह अपने पाठक के मानस में प्रवेश कर उसे कितना अपना बना लेता है। दरअसल वह पाठक के अंदर उतना ही प्रवेश कर पाता है जितना कि वह अपने आप में तपा होता है । आदरणीय दयानंद जी की लेखनी से लगा कि वे तपे-तपाये तो हैं ही साथ ही पाठक को भी तपाने की पूरी क्षमता रखते हैं।
मुनक्का राय की महत्वाकांक्षाओं की उछालों ने उन के लड़कोंं को उच्च पदों तक पहुँचाया साथ ही उन की मूर्खताओं को भी उनके परिवार ने बखूबी भोगा और सब से अधिक मुनमुन ने भोगा। रमेश की ज़िंदगी में जो शुरुआती संघर्ष दिखता है वह मुनक्का की बेवकूफी की वजह से ही था। अच्छे खासे प्रतिभावान लड़के पिता की तथाकथित पट्टीदारी की दुर्भावनाओं की भेंट चढ़ जाते हैं। परंतु "जब जागो तभी सवेरा" का भाव भी हमें इस उपन्यास में कई जगह देखने को मिलता है। बढ़ी हुई उम्र में रमेश का स्वाध्याय के बल पर जज की कुर्सी तक पहुंचना अपने आप में किसी के लिए भी प्रेरणादायक है। उपन्यास की जो मुख्य पात्र मुनमुन है वह ज्वलंत नारी संघर्ष की अमर प्रेरणागाथा है। उस के जीवन के शुरुआती दिनों में यौवन-जनित अल्हड़ता है जो अमूमन सब में न्यूनाधिक मात्रा में रहती ही है। लेकिन बाद का उस का संघर्ष पाठक को अंदर तक झकझोर कर रख देता है। वह समाज की विसंगतियों के विरुद्ध जो अकेले खड़ी हुई तो फिर बैठी नहीं और जब आगे बढ़ी तो रुकी नहीं। उस ने अपने आप को तपा कर मजबूत किया और तराश कर समाज के लिए रोलमॉडल भी बनी।दहेज का दानव किस तरह से मध्यवर्ग को प्रताड़ित करता है और लोग कितने छलछद्म से परिपूर्ण होते हैं यह घनश्याम राय का व्यकितत्व हमें बताता है।शराब की लत किस तरह से निजी जीवन को नष्ट-भ्रष्ट कर के रख देती है , आदमी को पागलपन के स्तर तक पहुंचा देती है,पत्नी से विच्छेद तक करा देती है यह सब राधेश्याम का व्यक्तित्व बड़ी ही संजीदगी से हमें बताता है। शिक्षा की जीवन में बड़ी अहमियत है। लेखक ने उपन्यास में इस की अलख जगाई है । मुनक्का राय अपने सारे बच्चों की शिक्षा में कोई कसर नहीं रखते हैंं और शायद इसी लिये मुनमुन अपने जीवन में संघर्ष कर पाई। अन्याय के विरुद्ध ताल ठोंक के खड़ी हो सकी। आतताइयों को पानी पिला सकी। समाज के लिए रोलमॉडल बन सकी। अन्यथा अपने परिवार की बेवकूफी का जिस तरह से वह शिकार बनी थी , वह भी संघर्ष के सामने , शराबी पति के सामने घुटने टेक ही देती, अपनी नियति ही मान लेती । परंतु शिक्षा के कारण ही उसके जीवन में स्वाभिमान आ सका और उस में अपने ही परिवार की नादानियों के खिलाफ, अपने पिता और स्वार्थी भाइयों के गलत निर्णय के खिलाफ उठ खड़े होने का साहस आ सका। बेटियों के प्रति लेखक की संवेदनशीलता अनुकरणीय है। ऐसा लगता है कि वह सारे संसार की बेटियों का पिता होना चाहता है। वह किसी भी स्थिति में बेटी मुनमुन की खुशियों से समझौता करने को तैयार नहीं है और शायद इसी लिए उस ने मुनमुन को तपाया,ख़ूब तपाया है। अन्याय से लड़ना सिखाया है अपने पांव पर खड़ी होना सिखाया, तर्क करना सिखाया और स्वाभिमान से जीना सिखाया है। मुनमुन आजिज आ कर अपने शराबी और सनकी पति को जब लाठी से पीटना शुरु करती है तो फिर वह रुकने का नाम नहीं लेती और लगता है कि उसे आज वह मार ही डालेगी। यह दिखाता है कि लेखक के अंदर कितना गुस्सा है बेटियों के उत्पीड़कों के खिलाफ..! मुनमुन अपने संघर्ष से अपना पथ विनिर्मित करती है और एक बार जब वह चलने की जिद करती है तो पीछे मुड़ कर नहीं देखती।
लेखक ने उत्तर प्रदेश के प्राथमिक विद्यालयों के भ्रष्टाचार की भी पोल खोल के रख दी है। एमडीएम के नाम पर जो कमाई की जाती है तथा बीएसए की जो कारस्तानियां होती हैंं, यह सब लेखक की नज़र में है। बेसिक शिक्षा अधिकारी के रौब-रुतबा आदि का बड़ा संजीदा वर्णन किया गया है। मेरे जाने शिक्षा मित्रों की मजबूरियों को रेखांकित कर के लेखक ने इस वर्ग पर बड़ा उपकार सा किया है क्यों कि कुछ वर्षों में शिक्षा मित्रों ने जितना भुगता है, भुगत रहे हैं वह बहुत मर्माहत कर जाता है। शिक्षा मित्र की नौकरी भी स्वाभिमानपूर्वक की जा सकती है, उस का भी अपना सम्मान होता है, लेखक ने कहीं न कहीं इसे प्रतिस्थापित किया है । ठीक-ठाक लड़के भी पद पा कर अपने परिवार के प्रति कैसे नालायक हो जाते हैं यह रमेश, धीरज और तरुण जैसे पात्रों को देख कर पता चलता है...और इधर मजबूरियों का नाम मुनक्का राय कहने का जी चाहता है। मां-बाप लड़कोंं के लिए क्या नहीं करते परंतु लड़के किस तरह से एक समय के बाद औपचारिक हो जाते हैं यह मर्माहत कर जाता है। मां बाप की इज्ज़त से अलग उन की इज्ज़त हो जाती है और वे उसी की सुरक्षा करते हैं। मां-बाप उन के लिए बेगाने हो जाते हैं । परंतु दीपक जैसे लड़के भी समाज में हैं जो अपनी ममेरी बहन की खुशी के लिए भी कितना कुछ करते हैं ऐसे लड़के समाज के लिए एक आशा की किरण छोड़ जाते हैं। जमीन जायदाद के लिए आदमी कितना गिर सकता है और अपने बनाए गड्ढे में गिर कर स्वयं ही तबाह होते हैं , रामकिशोर और गिरधारी राय जैसे पात्र इस बात की सूचना दे जाते हैं। पूरे उपन्यास को पढ़ कर लगता है कि लेखक का कचहरी से खूब मुकाबला पड़ा है। कानूनी दांव-पेंच और बारीकियों की जो चर्चा चलती है तो लगता है कि लेखक वकील भी है, नहीं तो वकील से कम भी नहीं है।
कुल मिला कर इस उपन्यास ने हंसाया भी, रुलाया भी और सोचने पर मजबूर भी किया कि आज हमें अपनी लड़कियों को क्यों आगे बढ़ाना चाहिए , क्यों पढ़ाना चाहिए और क्यों उसे उस के पांव पर खड़े करना चाहिए। मुनमुन अपने संकल्प और स्वाध्याय के बल पर एसडीएम बन जाती है तो न जाने क्यों इतना अच्छा सा लगता है। लगता है कि कहीं अपनी ही बहन , अपनी ही बेटी का संघर्ष सफल हुआ है... । और शायद लेखक अपने पाठकों के अंदर यही जागृति लाना चाहता है जिस में कि वह पूरा सफल होता है। मुनमुन अपने संघर्षों से , अपने तप से, अपने स्वाध्याय से खिलती है , पूरा गुलाब बन कर खिलती है , महक उठती है और पूरे समाज को महका देती है। जो एक संतोष देता है , एक सकून देता है। उपन्यास का अंत बड़ा सुखद है, बहुत मीठा है।
इसे पढ़ कर कोई भी हो, विद्वान् लेखक की संवेदनशीलता और भावप्रवणता को नमस्कार किए बगैर नहीं रह सकता । मैं भी आदरणीय दयानंद पांडेय जी की लेखनी को नमस्कार करते हुए उन के उत्तम स्वास्थ्य की कामना करता हूं ।
समीक्ष्य पुस्तक:
पृष्ठ सं.176
मूल्य-300 रुपए
प्रकाशक - संस्कृति साहित्य
30/35-ए,शाप न.2, गली नंबर- 9, विश्वास नगर
दिल्ली- 110032
प्रकाशन वर्ष-2012
सर ! आपका लेखन समुद्रवत् अद्भुत है जिसमें से कुछ बूँदों का पान करके मैं अभिभूत हूँ...!सादर प्रणाम!💐💐💐
ReplyDeleteLovely post thanks for posting
ReplyDelete