फ़ोटो : अनिल रिसाल सिंह |
ग़ज़ल
दिल आख़िर दिल है जागीरदारी नहीं है
हमारी मुहब्बत तुम्हारी ज़मींदारी नहीं है
शराफ़त तो एक आदत है कोई बीमारी नहीं है
तुम्हारी हां में हां मिलाना हमारी लाचारी नहीं है
अपनी ज़िद अपना गुरुर अपने पास रखो
दीवार से सिर टकराना समझदारी नहीं है
बहुत चल चुकी है हवा की यह अंधेरगर्दी
इस दिल पर किसी की थानेदारी नहीं है
वफ़ा बेवफ़ा सिर्फ़ लफ्ज़ों की धोखेबाज़ी है
लेकिन हमें किसी वफ़ा की बीमारी नहीं है
मन तो पारा है फिसलता रहता है बेहिसाब
इसे पकड़ कर रखना कोई होशियारी नहीं है
सज गए हैं लोगों के दिल ड्राईंगरुम की तरह
यहां दीवानगी के मारे हैं दुकानदारी नहीं है
मुहब्बत में कभी चुप रहना भी एक नेमत है
किसी कमज़ोर नस की यह दुश्वारी नहीं है
ज़िंदगी से ज़्यादा इम्तहान मुहब्बत में होते हैं
मुहब्बत किसी अभिनेता की अदाकारी नहीं है
[ 29 अप्रैल . 2016 ]
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (30-04-2016) को "मौसम की बात" (चर्चा अंक-2328) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'