Wednesday, 2 March 2016

आम में बौर देखता हूं और तुम्हें खोजता हूं


फ़ोटो : ह्रदय नारायण शुक्ल

 ग़ज़ल / दयानंद पांडेय

नदी में नाव चलती है और तुम्हें सोचता हूं
आम में बौर देखता हूं और तुम्हें खोजता हूं

इस डाली से उस डाली कूदना एक खेल था
चढ़ गया हूं जैसे पेड़ पर और तुम्हें हेरता हूं 

बाज़ार बहुत विकट है संबंधों का हर कहीं
मंदिर में हाथ जोड़े खड़ा हूं तुम्हें जोहता हूं

नदी में अचानक उछलती मचलती मछली
डुबकी मार जल के भीतर भी तुम्हें देखता हूं

फागुनी हवा बहती है तुम्हारी गंध आती है 
तुम्हारी गंध में डूब कर भी तुम्हें खोजता हूं

खेत में अरहर की छीमी पक कर बजती है 
मह-मह महकती मादक पुकार खोजता हूं

तुम्हारी याद की नदी में बाढ़ आ गई बहुत
बाढ़ में फंस गया अब एक नाव खोजता हूं

तुम्हारे आने की आहट जब कभी होती है
सीढ़ी चढ़ती पायल की झंकार खोजता हूं

[ 3 मार्च , 2016 ]

2 comments:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल शुक्रवार (04-03-2016) को "अँधेरा बढ़ रहा है" (चर्चा अंक-2271) पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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