Sunday, 17 January 2016

हम इतने बुजदिल हैं कि टुकुर-टुकुर सिर्फ़ ताकते रह गए



ग़ज़ल / दयानंद पांडेय 

भडुए दलाल हमारे सिर पर पैर रख कर आगे  निकल गए
हम इतने बुजदिल हैं कि टुकुर-टुकुर सिर्फ़ ताकते रह गए 

राजनीति भी उन्हीं की प्रशासन भी मीडिया में भी वही हैं 
हर जगह यही काबिज हैं ईमानदार लोग टापते रह गए

हिस्ट्री शीटर रहे हैं हत्या डकैती अपहरण के मुकदमे भी बहुत 
लेकिन खनन माफ़िया को शरण देते-देते वह नेता जी बन गए 

बड़ी आग थी सरोकार भी थे पर पार्टी में सर्वदा अनफिट रहे
सिद्धांत बघारते-बघारते वह कार्यक्रमों  में दरी बिछाते रह गए 

ठेकेदार थे बिल्डर हुए कालोनी बनाते-बनाते मीडिया मालिक भी 
लड़कियां सप्लाई करते-करते वह सब के भाग्य विधाता बन गए 

आई ए एस हैं बड़ी-बड़ी डील करते हैं मिलते नहीं जल्दी किसी से 
बच्चे विदेश में  स्विस बैंक में खाता लूट-पाट कर देश बेचने लग गए 

चार सौ बीस विद्वान हो कर  विद्वता की किसिम-किसिम दुकान चला रहे 
विपन्नता में डूबे आचार्य लोग घर-घर सत्यनारायन की कथा बांचते रह गए

दलाली करते-करते पैर छूते-छूते वह चीफ एडिटर और सी ई ओ हो गया 
लिखने-पढ़ने वाले समझदार लोग अपमानित हो नौकरी से वंचित रह गए

 [ 17 जनवरी , 2016 ]

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