दयानंद पांडेय
समंदर उफनता है पूरे चांद को देख कर
रात देखा नदी उफन रही थी
तुम को देख कर
तो क्या मैं नदी हो गया था
तुम्हारे प्रेम में
प्रेम के इस शुक्ल पक्ष में
क्या तुम चांद हो गई थी
पूरा चांद
कहीं नदी भी उफनती है भला
चांद को देख कर
लेकिन मैं तो उफन रहा था
तुम्हें देख कर
ऐसी ही किसी एक पूर्णमासी की रात
गेहूं और सरसो के खेत में खड़ा
तुम्हारी याद में झुलसता
घने कोहरे में खोए पूरे चांद को देखा था
देखता ही रह गया था
लगा था जैसे गेहूं का खेत उफन रहा हो
मेरे स्पर्श से , मेरी अकुलाहट और चाहत से
गेहूं का खेत भी जैसे समंदर हो गया था
तो क्या तुम तब भी चांद बन गई थी
अपनी याद की उपस्थिति मात्र से
हम बीच नदी में खड़े थे
पूर्णमासी का पूरा चांद देखते हुए
चांद , नदी और तुम
जैसे खो गए थे
पुल के उस पथ पर खड़े
एक दूसरे को जीते हुए
डूब गए थे प्रेम में
जैसे डूब गया था चांद नदी के जल में
लोगों की आवाजाही थी
रौशनी की चकाचौंध थी
सिहरती-सकुचाती चांदनी सी लजाती
मेरा हाथ थामे तुम थी चांद को निहारती
लेकिन इस पूरे चांद को निहारने को
किसी और के पास फुर्सत कहां थी
बस आती-जाती मोटरें थीं
प्रेम नहीं था किसी के पास
कि अपनी प्रेयसी के साथ खड़ा हो कर
पूरा चांद निहारे
करे प्रेम और डूब जाए
प्रेयसी के देह जाल में
चूम ले ऐसे
कि चांदनी लजा जाए
नदी नहा जाए
मेरे भीतर का समंदर उफनता है
तो उफन जाए तुम्हारे प्यार में
हो जाए धराशाई
मैं हूं , तुम हो
नदी की बीच धार है, पूरा चांद है
हम दोनों डूब रहे हैं
आहिस्ता-अहिस्ता
जैसे चांद नदी के जल में
अलमस्त बुदबुदा रही हो तुम
पूरे चांद का प्रेम से बड़ा गहरा रिश्ता है
हमारा प्यार अमृत बन गया है
चांदनी की इस रात में
प्रेम का यह शुक्ल पक्ष है
कि पूरा होता हुआ कोई सपना है
तुम्हारा
शरद पूर्णिमा की चांदनी रात में
प्रेम के इस खीर की मिठास को
वह मोमो बेचने वाला क्या जाने
जो पुल पर खड़े-खड़े
कनखियों से हमें देख रहा था
उस के हिस्से में देखना ही था
हमारे हिस्से में जीना
प्रेम का यह शुक्ल पक्ष
सब के हिस्से में नहीं होता
[ 28 अक्टूबर , 2015 ]
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