यह नया फासिज्म है, नया ढोंग और नया पाखंड है
नरेंद्र मोदी के खिलाफ भी मैं ने बहुत सी टिप्पणियां लिखी हैं । लेख लिखे हैं । जब-तब लिखता ही रहता हूं । कविता आदि भी लिखी है । उपन्यास भी । लेकिन मुझे तो किसी मोदी भक्त ने अभी तक गाली नहीं दी है । न धमकी दी है । वर्ष 2011 में मेरा उपन्यास वे जो हारे हुए छपा था । गोरखनाथ मंदिर के महंत आदित्य नाथ और उन की सांप्रदायिक राजनीति की डट कर धज्जियां उड़ाई हैं इस उपन्यास में मैं ने । कुछ अन्य माफियों की भी । कोई कोर कसर नहीं छोड़ी है । प्रकारांतर से धमकियां मिलीं मुझे । लेकिन खुल कर कोई सामने नहीं आया ।
हां , मैं ने वर्ष 2001 में छपे अपने उपन्यास अपने-अपने युद्ध में हाईकोर्ट के एक न्यायमूर्ति की कुर्सी पर उपन्यास के नायक द्वारा पेशाब करने का चित्रण ज़रूर किया है , न्यायपालिका के अन्याय से आज़िज आ कर न्यायपालिका की मां-बहन भी की है मेरे चरित्र ने । और यह सब लिखने के लिए मैं ने न्यायालय की अवमानना का मुकदमा झेला है । जिस का मुझे आज तक कोई मलाल नहीं है । क्यों कि मैं ने सच लिखा था । वह आज भी सच है । हां मैं ने मंदिर की किसी मूर्ति पर , किसी मस्जिद , चर्च या गुरद्वारे में जा कर पेशाब नहीं किया है । न ही पेशाब कर अपने लेखन में उस का बखान किया है। इस लिए मेरे साथ ऐसा कुछ नहीं हुआ है । जिस दिन मैं ऐसा करूंगा , तय मानिए मेरे साथ भी कुछ अप्रिय ज़रूर होगा । और मुझे इस के लिए तैयार रहना ही चाहिए । क्यों कि अभी दुनिया का कोई भी समाज इतना सहिष्णु और उदार नहीं हुआ है । कि मैं उस के पूजा स्थल के भीतर मूर्ति पर पेशाब करूं और फिर उस का लिख कर बखान करूं । और वह समाज चुप रहे । बल्कि दुनिया में ऐसे लोग ज़्यादा हैं जो एक कार्टून बना देने भर से ही किसी देश में , किसी शहर में आग लगा देते हैं । कत्ले आम कर देते हैं । संसद ठप्प कर देते हैं । और यही वह लोग हैं कि किसी धर्म स्थल में पेशाब करने की नीच हरकत पर खामोशी की लंबी चादर ओढ़ कर सो जाते हैं , जो लोग अभी भारत में हिटलर का उदय देख रहे हैं । भारत में उन्हें असहिष्णुता ज़्यादा दिखती है । यह नया फासिज्म है। नया ढोंग और नया पाखंड है । विचारधारा , व्यवस्था की लड़ाई लड़ने में कोई हर्ज़ नहीं है , खुल कर लड़िए । हम भी इस लड़ाई में शरीक हैं । कौन रोक रहा है भला ? लेकिन आंख में धूल झोंक कर किसी समाज को , किसी समाज कि भावना को आहत तो मत कीजिए । किसी को आहत कर के अपनी ज़िद , अपनी नपुंसकता को विरोध का बाना मत पहनाइए। विचारधारा के नाम पर अराजकता और एकतरफा बात किसी सूरत में उचित नहीं है । आप पार्टी बन कर लिखना भी चाहेंगे , पार्टी बन कर मलाई भी खाएंगे, निष्पक्ष हो नहीं पाएंगे और चाहेंगे की आप को निष्पक्षता की माला पहना दी जाए तो यह दौर अब निश्चित ही नहीं रहा है । वैसे भी लेखक , लेखक होता है । भाजपाई , कांग्रेसी और वामपंथी नहीं । विचार , विचारधारा , प्रतिबद्धता भी लेखक की अपनी पसंद है । वह जो चाहे अख्तियार करे । यह लेखक का अपना विवेक है । लेकिन अगर श्रीमान क , श्रीमान ख की विचारधारा और प्रतिबद्धता सहमत नहीं हैं तो छुआछूत बरतेंगे , दुनिया में आग लगा देंगे , यह कौन सा विवेक है ? यह तो ठेकेदारी वाली बात हो गई । कि हम को ठेका नहीं मिला , हमारा टेंडर नहीं खुला तो हम अगले को गोली मार देंगे । साहित्य और समाज ऐसे तो नहीं चलता । और फिर साहित्य तो समाज का सेतु है । सब को जोड़ने का काम करता है , तोड़ने का नहीं । तो यह गैंगबाज़ी लेखकों के बीच नहीं होनी चाहिए ।
कुछ दिन पहले मेरे प्रिय गीतकार और फिल्मकार गुलज़ार ने कहा था कि अब कुछ
बोलने में भी डर लगता है। गुलज़ार साहब से पूछने का मन होता है कि आपातकाल
में जब आप की आंधी जैसी मकबूल फिल्म भी संजय गांधी ने सिनेमा घरों से उतरवा
दी थी , फिल्म के प्रिंट जलवा दिए थे , तब आप ने कौन सा बयान जारी किया था
? संजय गांधी को लगा था कि सुचित्रा सेन वाली भूमिका में इंदिरा गांधी का
चित्रण है। ठीक है एक निर्वाचित सरकार का सम्मान करना नहीं सीख सकते तो
गलतबयानी करनी भी ज़रूरी है क्या ? जनता पर भरोसा करना भी इतनी बुरी बात
नहीं है ।
ज़िद और नपुंसकता की भी एक हद होती है। पुरस्कार वापसी की इस नौटंकी का क्या
मोल है ? लेखकों की नौटंकी ज़रा थमी तो फिल्मकारों की नौटंकी शुरू हो गई।
सवाल है कि आप की इस नौटंकी की नोटिस भी कौन ले रहा है ? जिन के खिलाफ आप
यह नौटंकी बघार रहे हैं , वह आप से बड़े नौटंकीबाज़ हैं । उन की नौटंकी के
आगे आप टिकने वाले भी नहीं हैं । लेकिन हां फासिज़्म का यह नया चेहरा आप ने
परोस दिया है। एक निर्वाचित सरकार को बर्दाश्त करने का माद्दा आप में नहीं
है । बंद कीजिए अपनी इस ज़िद और नपुंसकता का बेहूदा प्रदर्शन। यह अतिवादी लेखक ऐसे ही चूकते-चूकते चुक गए । न यह पाठक के रहे न पाठक इन
के हुए । बहुत नुकसान किया है इन लोगों ने साहित्य और समाज का।
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क्या कहा आपने ? तब और अब ? अब और तब ? वैसे ही जैसे कि बीफ़ और बड़ा या बड़ा और बीफ़ ? अरे भाई साहब !! अब आप भी दुनिया को चक्कर खिलाने लगे। देखते नहीं हैं देश में कितना बड़ा आपातकाल लग गया है? अभिव्यक्ति की आज़ादी को केंद्रीय राजसत्ता कितनी बुरी तरह कुचल रही है? बुद्धिजीवियों को जेल में ठूँसा जा रहा है। उनकी किताबें ज़ब्त की जा रही हैं। उन्हें तमाम प्रतिष्ठानों में महत्त्वपूर्ण पदों पर बैठने नहीं दिया जा रहा है, जिनके वह कई दशकों से आदी रहे हैं। एक ऐसा आदमी गुजरात से चलकर दिल्ली पहुँच गया जिसके हाथ ख़ून से रंगे थे परंतु वह खून देश के सर्वोच्च न्यायालय ने भी नोटिस नहीं किया जबकि बारंबार नोटिस कराने के भगीरथ प्रयत्न इन सताए हुए बुद्धिजीवियों और सीतलवाड़ी समाजसेवियों ने किये। 272 सीटें देश की नादान जनता ने इन सबके बावजूद इसी आदमी को दिलाकर हिमालयन ब्लंडर कमिट कर दी है। अब यह आदमी दिन रात काम में जुटा रहता है। देश का खून पी रहा है। विदेशों में भी सैंकड़ों चक्कर मार रहा सिर्फ अपने पर्यटन के लिए। इसे देश की कोई फ़िकर नहीं है। यह विदेश यात्राओं में भी देश की बेहतरी के लिए नहीं अपने भाई बिरादरों के निजी लाभ के लिए ही अनेक कपटपूर्ण सन्धियाँ करता फिर रहा है। पता नहीं ये खाता क्या है ? इसका एक पाँव किसी विदेश में रहता है दूसरा दिल्ली में मुँह बिहार के किसी चुनावी मंच पर। मुँह से याद आया ये आदमी कितना बोलता है सार्वजनिक रूप से मगर जब पीड़ित प्रताड़ित बुद्धिजीवियों के मनोनुकूल कोई मुद्दा उछलता है तो यह आदमी मौन हो जाता है। यह तत्काल बोलकर उन्हें भरपूर अवसर भी नहीं देता कि वह इसके कहे शब्दों की अपनी मनचाही व्याख्या करके जनमत का रुख मोड़कर अपने पसंदीदा पराजित आक़ाओं को थोड़ा मरहम लगा सकें। अरे ये आदमी तो इतना शातिर है कि अपने मन की बात कहते समय भी विवादित मुद्दों पर खुलकर नहीं बोलता। यह इसका इतना बड़ा अपराध है कि पिछली सरकारों के समय दिए गए इनाम इकरामों को भी इसके मुँह पर फेंक कर ही कुछ माहौल ऐसा बनाना संभव दीखता है कि ये जो आपातकाल चल रहा है न उसे जनता जनार्दन एक न एक दिन वास्तविक आपातकाल की संज्ञा दे ही दे। जीना हराम कर दिया है इस हत्यारे असहिष्णु फासिस्ट तानाशाह स्वार्थी अयोग्य किन्तु परले दर्जे के भाग्यशाली आदमी ने। पाँच वर्ष की प्रतीक्षा क्यों यह व्यक्ति पाँच मिनट के लिए भी बर्दाश्त के क़ाबिल नहीं। दुनिया के बुद्धिजीवियो ! आओ एक हो जाओ। इस आदमी को हटाओ। क्योंकि खोने के लिए तुम्हारे पास कुछ भी नहीं तुम्हारे मान सम्मान के सिवा। अगर ये नामुराद हट गया तो फिर से धरती पर रामराज लौट आएगा। क्या कहा रामराज ? ओह नो, हमारा मतलब है हमारा खोया हुआ साम्राज्य।
ReplyDeleteDivya! Sudhakarji apka jawaab nahi. Haste haste paet me dard ho gaya.
Deleteआपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन राजनैतिक प्रवक्ता बनते जा रहे हैं हम - ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है.... आपके सादर संज्ञान की प्रतीक्षा रहेगी..... आभार...
ReplyDeleteआप की ये समझ आप की गहराइयो से ये ...पर ये देश तो उन ९०% लोगो से चलता हे : जिन्हे गहराइयो से दर लगता हे .
ReplyDeletedada............bahut khoob linksmai padh rahe hain............aaeena dikhate rahna nihayat hi jaroori hai
ReplyDeletepranam.
विडंबना देखिए कि एक लोकतान्त्रिक ढंग से चुनी गयी सरकार को बर्दाश्त न कर पाने वाले इन लोगों द्वारा जो मुद्दा उठाया गया है वह है - "समाज में बढ़ती असहिष्णुता".
ReplyDeleteविरोध करने वाले कितने सहिष्णु है इस का छोटा सा प्रयोग करके देख लो इनके घर के अंदर जाकर पेशाब कर के आप आ जाउ देखते है ये आपको इसके बदले मे शरबत पिलाते है / हार पिनाते है/आपका सम्मान करते है या आपको मारते है अगर ये आपको मारे तो समझो ये असहिष्णु लोग है
ReplyDeleteधन्यवाद..
ReplyDeleteये बताने के लिए कि वास्तव में समस्या क्या और क्यों है..।
जो पुरस्कार लौटा रहे है वो अपने आकाओं को ये बताने के लिए ऐसा कर कि हम आपके साथ है ..योग्यता अयोग्यता से इनको कभी परिचित ही नहीं कराया गया है और न ही इन चीजों से इनका पला पड़ा है।
अगर इनकी योग्यता पर इनको पुरस्कार मिला होता और ये भी पुरस्रोंका के योग्य मानते तो.. पुरस्कार मांगने पर भी नहीं वापस करते और सुप्रीम कोर्ट तक मामला ले जाते ...।
लेकिन ऐसा रहा होता तब तो...।