दयानंद पांडेय
कुछ लोग कहते ही रहते हैं कि लोगों ने पढ़ना छोड़ दिया है। लोग पढ़ते ही नहीं। किताब लोग ख़रीदते ही नहीं। ऐसा कहने वाले लोग झूठ बोलते हैं। पाठकों से च्युत लोग हैं। अभागे लोग हैं। तीन-तिकड़म के मारे हुए लोग हैं। जनता-जनार्दन और धरती से कटे हुए लोग हैं। क्यों कि मेरा ब्लॉग सरोकारनामा अकसर ही पाठकों के नित नए रिकार्ड बनाता रहता है। लाखों की हिट अनायास तो नहीं ही है। न ही प्रायोजित। सरोकारनामा पर मेरी कहानियां , उपन्यास , कविताएं , लेख , संस्मरण , इंटरव्यू आदि बहुत कुछ है। लोग पढ़ते ही रहते हैं। दुनिया भर में पढ़ते रहते हैं। बताते रहते हैं। संवाद करते रहते हैं। उपन्यास ज़्यादा पढ़ते हैं। मेरे नए उपन्यास विपश्यना में प्रेम ने भी चंद दिनों में पाठकों का अप्रतिम प्रेम हासिल किया है। सरोकारनामा पर तो लोग पढ़ ही रहे हैं , उपन्यास ख़रीद कर भी पढ़ रहे हैं। लिखने वाले लेखक जानते हैं कि पढ़ना और पढ़ कर फिर समीक्षा लिखना , कितना कठिन काम है। आलस रोक-रोक लेता है। [ कुछ-कुछ के लिए अहंकार शब्द भी जोड़ सकते हैं। पर यह कुछ अपवाद हैं। ] पढ़ना , स्थगित होता रहता है। लेखक के आलस्य का भी अपना सौंदर्यशास्त्र होता है। मैं ख़ुद भी इस का बहुत बड़ा शिकार हूं। मेरे आलस का सौंदर्यशास्त्र बहुत विराट है। इतना कि मुझे खा-खा जाता है। तिस पर नींद का महासागर , मुझे अलग डुबोए रखता है।
कई बार पाता हूं कि लिखना आसान है , पढ़ना कठिन। पढ़ कर उस पर लिखना और कठिन। कठिनतम। लिखना पढ़ कर अपनी राय बताना और कठिन। लेकिन बीते दो महीने में ही विपश्यना में प्रेम पर दर्जन भर समीक्षाएं आ गई हैं। यह मेरे लिए सुखद आश्चर्य है। जानता हूं कि आदरणीय लेखकों ने अपने आलस के सौंदर्यशास्त्र के जाल को तार-तार किया है। अपना प्यार और आशीर्वाद दिया है , मुझ अकिंचन को। विपश्यना में प्रेम पर अभी और भी कुछ समीक्षाएं आने के लिए विकल हैं। बेक़रार हैं। आतुर हैं। उम्मीद है कि विपश्यना में प्रेम पर समीक्षाओं की किताब भी जल्दी ही सामने होगी। फिर सामान्य पाठक यानी ग़ैर लेखक पाठक वह भी नितांत अपरिचित जब अपनी प्रतिक्रिया देता है तो और सुखद होता है , जानने वाले यह बात अच्छी तरह जानते हैं। नए तो नए तेईस साल पुराने उपन्यास अपने-अपने युद्ध को अभी भी लोग पढ़ते हैं। प्रतिक्रिया बताते रहते हैं। लोक कवि अब गाते नहीं तथा बांसगांव की मुनमुन उपन्यास भी लोगों के मन में स्थाई रुप से बस गए हैं। अपने-अपने युद्ध के अनगिन संस्करण हो चुके हैं। अब फिर आऊट आफ प्रिंट है। जल्दी ही फिर छपने वाला है।
बांसगांव की मुनमुन के भी अनगिन संस्करण हैं। बांसगांव की मुनमुन भी आऊट आफ प्रिंट हो गई थी। अब पिछले महीने फिर से पेपरबैक में छप कर आ गई है। मैत्रेयी की मुश्किलें पाठकों के लिए सर्वदा ही आसानी से ग्राह्य है। वे जो हारे हुए , हारमोनियम के हज़ार टुकड़े भी पाठकों को निरंतर बांधे हुए हैं। एक सामान्य से मुझ व्यक्ति को जीने को और क्या चाहिए। आदरणीय पाठकों का यह दामन , असीमित प्यार , नित नए उल्लास से भरता रहता है। लोग पढ़ते हैं , चरित्रों को समझते हैं , उन तक पहुंचते हैं , प्यार करते हैं। कहानी , उपन्यास लिखने से कुछ द्रव्य आदि तो मिलता नहीं। द्रव्य के लिए लिखता भी नहीं। हां , पर प्यार बहुत मिलता है। ग़ालिब लिख गए हैं : चंद तस्वीर-ए-बुताँ चंद हसीनों के ख़ुतूत / बा'द मरने के मिरे घर से ये सामाँ निकला। मैं लिखना चाहता हूं बाद मरने के मिरे , आदरणीय पाठकों का प्रेम और आशीर्वाद निकला। लेखक जीते-मरते रहते हैं , पाठक कभी नहीं मरते। कभी नहीं मरेंगे ! सभी आदरणीय पाठकों को अविकल प्रणाम ! सादर प्रणाम ! बहुत-बहुत प्रणाम !
शुभ समाचार यह भी है कि आदरणीया प्रिया जलतारे जी विपश्यना में प्रेम का मराठी अनुवाद शुरू कर चुकी हैं। अंगरेजी अनुवाद की भी बात है।
बहुत बहुत बधाई, ऐसे ही लिखते रहें
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