डॉ राम बहादुर मिश्रा
दयानंद पांडेय का रचना संसार बहुत ही व्यापक है। पत्रकारिता, साहित्य और सोशल मीडिया की त्रिवेणी का संगम है उन की रचनाधर्मिला में। एक पत्रकार के रूप में वे जब तथ्यों और तर्कों के माध्यम से अपनी लेखनी को विस्तार देते हैं तो उन के समक्ष कोई टिक नहीं पाता। अपने ब्लाग सरोकारनामा के जरिए उन की जनव्याप्ति औरों के लिए ईर्ष्या का विषय हो सकती है। लेखन के क्षेत्र में वे अद्भुत एवं अप्रतिम हैं। उन्हों ने साहित्य सृजन ही नहीं किया अपितु अपने पाठकों का विस्तार किया है। यद्यपि मैं ने उनको बहुत कम पढ़ा है लेकिन सोशल मीडिया के जरिए उन की बौद्धिक क्षमता और वैचारिक दृष्टि का क़ायल रहा हूं। हाल ही में वाणी प्रकाशन से प्रकाशित पांडेय जी के उपन्यास 'विपश्यना में प्रेम' की पृष्ठभूमि में मेरी यह लघुतम भूमिका है।
विपश्यना शिविर की पृष्ठ भूमि में सृजित लघु कलेवर के इस उपन्यास की विशेषता है कि जब पाठक इसे पढ़ना प्रारंभ करता है तो समापन कर के ही दम लेता है। आज का कथा साहित्य इतना बोझिल, बौद्धिक और उबाऊ हो चुका है कि कभी-कभी उसे बीच में ही छोड़ना पड़ता है। इस उपन्यास में कथारस पाठक मन को बांधे रहता है। भाषा बहुत ही सरल, बोधगम्य और संप्रेषणीय है। विपश्यना शिविर में नायक विनय और रूसी नायिका मल्लिका के बीच उपजे प्रेम को वासना कहना अधिक समीचीन होगा। नायिका का निजी स्वार्थ प्रेम और वासना से थोड़ा हट कर है जिसे वह स्वीकार भी करती है ," बीच विपश्यना में तुम क्लिक कर गए , तो ट्राई कर लिया।" सारा रिस्क ले कर ट्राई किया और सक्सेस रही। थैंक यू माई लव माई लव।" जाहिर सी बात है कि यह थैंक लव के लिए नहीं अपितु संतानहीनता का दंश झेलती, स्त्री द्वारा संतान सुख प्राप्त करने के लिए है।
जहां तक नायक विनय की बात है तो इस क्लिक के संदर्भ मे उस में अपराधबोध की आत्म स्वीकृति है , " बेशर्म हो गया है विनय उस में इस विपश्यता शिविर में .......स्त्रियों को जब-तब नज़र बचा कर देखना, उन की मांसलता को निहारना । तिस पर वासना में संलग्न हो जाना। यह तो बहुत बड़ी बेशर्मी है । जिस शिविर में बोलना मना हो। संकेतों में कुछ कहना मना हो वहां पर यह वासना ! हद बर्जे की बेशर्मी है....... पर क्या करे विनय ! खेल वासना विषय ही ऐसा है। आग का दरिया है। सारे ख़तरे खेल कर यह खेल खेला जा सकता है। ताज तख़्त सब बेमानी हैं इस के सामने ।
विनय और मल्लिका के बीच जो कुछ हो रहा है उसे वासना का खेल कहना अधिक उपयुक्त होगा, प्रेम तो कतई नहीं। नेपथ्य में भले ही मल्लिका संतान सुख पाने के लिए विजय को अपना तन समर्पित करती है किंतु रति सुख उस के लिए सर्वोपरि है। पहले दिन का संसर्ग आकस्मिक कहा जा सकता है लेकिन दूसरे दिन वह अभिसारिका नायिका की भांति प्रस्तुत होती है - टहलते टहलते वह फिर लिपट गई है। लिपट कर बेतहाशा चूमने लगी है, ऐसे जैसे वह स्त्री नहीं पुरुष हो। एक ही बार के अनुभव में दूसरी बार सारे संकोच, झिझक और मनुहार की सारी देहरी, सारी सरहद लांघ गई है......एक रात के विरह में बौराई मल्लिका अपने भीतर बसी कामना के सारे हिमालय जैसे खंड-खंड कर पिघला देना चाहती है। पिघला कर पानी-पानी होना चाहती है। मल्लिका के भीतर जैसे मेघ बरस रहा है। उमड़-घुमड़ कर बरस रहा है। इस सर्दी में भी वह अपनी देह में समंदर लिए मचल रही है।"
मल्लिका की काम पिपासा नदी की भांति है - " मल्लिका नदी की तरह विकल है। इस विकलता में पूरे वेग से बहती हुई धारा किनारा तोड़ती हुई विनय के गांव में दाखिल हो जाना चाहती है। सुख की नदी की तरह। पानी- पानी हो कर विनय के गांव से गुज़र जाना चाहती है।
विनय आलंबन है, मल्लिका उद्दीपन और स्थायी भाव रति है। कुच, केश और नितंब स्त्री के सब से आकर्षक सेक्सी और उद्दीपक अंग हैं। मल्लिका के केश अवश्य छोटे हैं किंतु कुच और नितंब दोनों ही सेक्सी और आकर्षक हैं। रति प्रसंग में विनय मल्लिका के दोनों विशाल वक्षों की संधि में समा जाता है। लगता है जैसे फूलों के गद्द्दे पर है वह । मल्लिका की देह में गुझिया सा स्वाद है । बांसुरी बनी मल्लिका की देह अपनी मंजिल पा गई है। विनय की मंजिल भी धार पर है। विपश्यना और वासना की यह शानदार जुगलबंदी विनय को भा गई है।
उपन्यास में वासना अपने पूरे वैभव के साथ उपस्थित है। विनय और मल्लिका के मिलन के क्षण कितने मादक हैं- "दो जुड़वा होठों में राग है, सांसों में राग। बेतहाशा चूमती है और इस सर्द रात में निर्वसन हो जाती है, बिना किसी नखरे के। असंभव भी संभव बन जाता है। संभोग के आवेग में वह बह जाता है। आज फिर वही रात है और वही मल्लिका। उस की बांहों में मल्लिका कसमसा रही है। वासना की लहरों का मेला लगा हुआ है। मल्लिका उसे चूम रही है। विनय की देह पर मल्लिका के अधर और जिह्वा इधर उधर घूम रहे हैं जैसे लांग ड्राइव पर हों ।"
पूरे उपन्यास के केंद्र में विनय और मल्लिका ही हैं किंतु कुछ ऐसी भी स्त्रियां हैं जो " संध्याकाल में देह के बिना भी प्रेम की परिकल्पना करती हैं। बल्कि अपने इस अमूर्त प्रेम की पैरवी भी करती हैं। इन स्त्रियों के लिए इस पड़ाव पर आध्यात्मिक प्रेम प्रमुख है किंतु देह के बिना प्रेम की परिकल्पना करना पलायन काल है। देह के बिना प्रेम सोचना अपने आप में प्रेम को खंडित करना है। बिना देह के प्रेम मुकम्मल नहीं होता। " इस कथन के प्रमाण में यह तर्क कितना व्यावहारिक है- "भोजन कैसा भी हो, कितना भी स्वादिष्ट हो देखकर पेट नहीं भरता। देह सामने हो, प्रेम भी हो आप फिर भी अमूर्त की कल्पना करें तो आप से बड़ा अभागा कोई नहीं। '
इस उपन्यास का सारांश यही है। यह कहना अत्युक्ति न होगी कि प्रेम और वासना के रसायन का अद्भुत आख्यान है यह उपन्यास।
विपश्यना में प्रेम उपन्यास पढ़ने के लिए इस लिंक को क्लिक कीजिए
समीक्ष्य पुस्तक :
विपश्यना में प्रेम
लेखक : दयानंद पांडेय
प्रकाशक : वाणी प्रकाशन
4695 , 21 - ए , दरियागंज , नई दिल्ली - 110002
आवरण पेंटिंग : अवधेश मिश्र
हार्ड बाऊंड : 499 रुपए
पेपरबैक : 299 रुपए
पृष्ठ : 106
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