त्रिलोचना कौर
मौन से महामौन की यात्रा
उपन्यास का पहला पृष्ठ खुलते ही एक ऐसा वाक्य जो अलंकार के गहने पहने "चुप की राजधानी" का पर्दा उठाता है और ले चलता है श्वांस दर श्वांस एक अद्भुत दुनिया की ओर...जहां मौन द्वारा 'ध्यान के भीतर ध्यान को देखने की प्रकिया प्रारंभ होती है।
उपन्यास में मुख्य पात्र के माध्यम से लेखक ने ध्यान योग में घटित होने वाले बाहर-भीतर के घटनाक्रम को मूक वार्तालाप से अंतर्मन के कोलाहल की गहराइयों मे उठते अनेक भाव-विचारों और छोटी-बड़ी प्रश्नोत्तर गुत्थियों को उलझाते-सुलझाते अकथनीय अनुभूतियों का वर्णन बेहद सूक्ष्म रुप से किया है। मौन जब आत्ममंथन के द्वारा मुखरित होता है तो तर्क के बीज आंखों में उग आते है और लहलहाने लगती है साक्षीभाव की फसल..
"तब गुज़र क्या जाता है सिर्फ दुख या सुख? कि कुछ और ?
"मन के भीतर मचे शोर को मौन दबा सकता है?
"भूलने का स्वांग चल रहा है यह ध्यान अभिनय है या कि साधना"
"लगता था शोर का ही निवास हो मन में"
"क्या मौन मन को जला डालता है"
"साधना और साधन में इतना संघर्ष क्या हमारे सारे जीवन में ही उथल पुथल नही मचाए है?
वर्तमान जीवन की आपाधापी में विचारशील मानव कभी न कभी अपने अंतस चेतना के संसार को जानने की चाह रखता है। उपन्यास के मुख्य पात्र विनय की विपश्यना यात्रा उसे ध्यान शिविर तक ले आती है। लेकिन इस शिविर में सम्मिलित होने वाले कई प्रतिभागियों का उद्देश्य ध्यान योग के प्रति केंद्र बिंदु नहीं था। सब के अपने क़िस्से थे और सब अपने क़िस्से के हिस्से को जी रहे थे। इस समग्र परिदृश्य में अन्य पात्रों के मनोभावों का विश्लेषण बहुत चकित करता है। इस अचेतन से चैतन्य की यात्रा में क्षण-क्षण परिवर्तित अनित्य घटित होने वाले अनुभव को गहन प्रज्ञा दृष्टि की क़लम ही आत्मसात कर सकती है।
स्त्री के विलाप का विराट स्वर-में स्त्रियोचित मनोविश्लेषण बेहद मर्मस्पर्शी, संवेदनात्मक गहन चिंतन के दृष्टिकोण से मुखरित हो रहा है इस अतुल्य भाव से-"विराट दुनिया है स्त्री की देह । स्त्री का मन उस की देह से भी विराट। "
"यह तुम्हारा तप था बुद्ध या यशोधरा का त्याग। "
"क्या यशोधरा के शोक में संलग्न हुई थी लुंबिनी। "
" वह अभागे होते हैं जो स्त्री को उपभोग की वस्तु मानने वाले होते हैं। "
ध्यान शिविर में उस गंवई स्त्री का विलाप सुन कर मुख्य पात्र ने नारी मन की अनुभूतियों को गहरे भीतर तक झिंझोड़ लिया हो "स्त्रियों का मानसिक संताप चुड़ैल के बहाने विगलित होता है। "
नारी मन की पीड़ा, दमित कुंठाओं, सामाजिक बंधन, अव्यक्त भावनाओं का वेग, बिना देह की प्रेम कल्पना और कुछ न कर पाने की विवशता में नारी के मानसिक पतन की पीड़ा का मर्म उपन्यास में सकारात्मक पक्ष में प्रस्तुत किया गया है । नारी के प्रति ये सम्मानजनक भावनाएं पाठक के मन को कही भीतर तक छू लेती हैं।
नारी पीड़ा के कई मूल तत्वों पर चिंतन मनन के बाद भी मुख्य पात्र के मन को ये विचार द्रवित करता है कि कहीं न कहीं स्त्री अबूझ है सागर की भांति उस के मन को मापना पुरुष के लिए कठिन है। स्त्री को समझना धरती के संगीत को समझने जैसा है।
उपन्यास का मुख्यतः कथावस्तु तीन पड़ाव से गुज़रता है। विपश्यना में प्रेम का तीसरा मुख्य पड़ाव है कामवासना।कामवासना मानव जीवन का अनिवार्य अंश है। आना-पान के क्षणों में चेतन-अवचेतन मन के द्वंद्व का घर्षण कि ऐंद्रिक सुख या आध्यात्मिक सुख या परस्पर अतुलनीय आंनद के लिए जीवन में शारीरिक-मानसिक दोनों भोग मानव के लिए पर्याप्त होने चाहिए। बुद्धावस्था के अंतर्जगत में प्रवेश की प्रारंभिक ध्यानावस्था में मानसिक एकरसता का पूर्णरूपेण साक्षात्कार उदासीनता और ऊबाऊ की ओर अग्रसर होना क्या जीवन आंनद को हतोत्साहित होने जैसा नहीं है ? शरीर के सभी अंग ऊतक की स्पंदना जीवन में महत्वपूर्ण है। ध्यान शिविर में विनय और कथित मल्लिका के यौन आकर्षण का मिलन संयोग दैहिक संबंधों का जीवंत चित्रण है। मौन भरे स्पर्श रुप,रस,गंध की रूमानियत के कोलाहल की अनुभूतियां शब्दों के मुक्ताकाश में स्वच्छंद विचरण करती हैं। इस देहाकर्षण में मौन आत्मस्वीकृति अलौकिक आंनद की मधुर प्रेमिल रागात्मक लीला का शोर तीव्र से अति तीव्र है।देह समर्पण के विषय सुख का संसर्ग व्यापक शिखर तक ले जाता है। "जब मन में देह का ध्यान आ जाए तो सारी विपश्यना बिला जाती है। " ..इस कामरुपी दबे ढंके विषय का विस्तृत विवेचन प्रभावी ढंग से उकेरना किसी प्रतिष्ठित लेखनी द्वारा ही संभव है।
"विपश्यना में प्रेम" मन अंतस की यात्रा में अंतरद्वंद्व की दुरुह अनुभूतियों को विशिष्ट शिल्प शैली तथा सहज स्वाभाविक भाषा में व्यक्त करना उत्कृष्ट सृजनात्मक संपन्नता का पर्याप्त परिचय प्रकट करता है। उपन्यास में आंचलिक भाषा, कहावतें, उचित प्रतीक , शिविर के मनमोहक प्रकृति दृश्य पर भी लेखक की व्यापक मनोरम दृष्टि है।
बहुमुखी प्रतिभा संपन्न सिद्धहस्त साहित्यकार दयानंद पांडेय जी के रचना संसार में साहित्य की शायद ही कोई ऐसी विधा हो जिस में आप की क़लम न चली हो। नवीनतम उपन्यास "विपश्यना में प्रेम" अधिकांशत: ध्यान योग जैसे नीरस विषय पर लिखने का संकल्प और संवाद रहित वार्तालाप में भी उपन्यास का इतना रोचक होना कि शुरु करने के बाद अनवरत पढ़ते जाना लेखन की बहुत बड़ी विशेषता है। उपन्यास का अंत एक नवीनतम मोड़ ले कर पाठकों को विस्मित कर लेखनी को सार्थकता प्रदान करता है। "विपश्यना में प्रेम" उपन्यास पठनीय और संग्रहणीय है। हार्दिक शुभकामनाएं।
विपश्यना में प्रेम उपन्यास पढ़ने के लिए इस लिंक को क्लिक कीजिए
समीक्ष्य पुस्तक :
विपश्यना में प्रेम
लेखक : दयानंद पांडेय
प्रकाशक : वाणी प्रकाशन
4695 , 21 - ए , दरियागंज , नई दिल्ली - 110002
आवरण पेंटिंग : अवधेश मिश्र
हार्ड बाऊंड : 499 रुपए
पेपरबैक : 299 रुपए
पृष्ठ : 106
No comments:
Post a Comment