अख़लाक अहमद ज़ई
" सच बताना बुद्ध तुम इसे कैसे स्वीकार कर पाए थे? कैसे सीख पाए थे? क्या सिर्फ़ विपश्यना से? अच्छा, जो सीख ही गए थे, भूल ही गए थे अपने-आप को तो क्या करने गए थे बरसों बाद अपने उस राजमहल……?" यह विचारों का द्वंद्व , कल्पनाओं के पछियाव में हम एक अध्यापक की तरह अनुशासित शब्दों का चयन नहीं कर पाते। यह एक अल्हड़ भाषा की सोच होती है जो छंद-लय-तुकबद्ध से मुक्त होती है।
विनय के मन में भी द्वंद्व मचा हुआ होता है अपने-आप को समझ न पाने के कारण। वह लगातार बुद्ध से मन ही मन सवाल पर सवाल करता रहता है। आचार्य कहते हैं– 'कुछ ख़ास नहीं, यह विकार निकल रहा है।' विनय फिर उलझ जाता है– ' मैंने कोई पाप किया है जो विकार निकल रहा है?' यह सारी उलझन कुछ पाने की इच्छा और बहुत कुछ खोने के डर में निहित है।
मैं बात कर रहा हूं "बांसगांव की मुनमुन" जैसे चर्चित उपन्यास के लेखक दयानंद पांडेय की सद्य: प्रकाशित उपन्यास "विपश्यना में प्रेम " की। विपश्यना मतलब साक्षी भाव। आज में जीने की साधना। न भूत, न भविष्य। लेकिन सवाल उठता है कि क्या विपश्यना शिविर में जाने वाला हर शख़्स अपने अंदर झांकने में सफल हो पाता है? क्या उपन्यास का नायक विनय भी? जवाब मिलता है–नहीं। विनय के लिए भी विपश्यना का ध्यान मारीचिका साबित होती है। उसे शिविर में आने के बाद एहसास होता है कि वह तो रेगिस्तान में पानी तलाशने आया है। उसे याद आती हैं बुद्ध की यशोधरा। अपने ख़ुद के बच्चे-बीवी, कमीने दोस्त। वह फिर अपने-आप से सवाल करता है– साधना और साधन में इतना संघर्ष! क्या हमारे जीवन में ही उथल-पुथल नहीं मचाए हुए है?
जिस विपश्यना को आत्मसात करके बुद्ध महात्मा बन गए उसी विपश्यना को साधने में विनय के लिए इतनी मुश्किलें दरपेश आ रही हैं! आचार्य के जवाब भी उसे संतुष्ट नहीं कर पा रहे हैं। बुद्ध के लिए भी इतना आसान नहीं था सब कुछ छोड़ना। वर्षों भटकते रहे तब तक, जब तक उन के साथियों ने सुजाता की खीर बुद्ध द्वारा खा लेने के बाद उन को पथभ्रष्ट मान कर साथ छोड़ नहीं दिया। जिस वृक्ष की पूजा के लिए सुजाता खीर लायी थी उसी पेड़ के नीचे बैठ कर बुद्ध को बुद्धत्व प्राप्त हुआ। लेकिन इस युग में ऐसा संभव नहीं है। शायद यही विनय की छटपटाहट है। इस भौतिक युग में हर शख़्स परेशांहाल है। ऐसे में उस के लिए मेडिटेशन जैसी क्रियाएं बेमानी साबित होती हैं या फिर स्वार्थ-सिद्ध का ज़रिया। विनय ने विपश्यना शिविर में यह शिद्दत से महसूस किया है।
बेशक, ज़िंदगी इतनी आसान नहीं होती। ये ज़िंदगी की परेशानियां इबादत के प्रवाह को भी खंडित कर देती हैं। लेकिन जब स्त्री की देह उस की साधना में शामिल हो जाय तब तो मन के बिखराव का ज़रिया बन ही जाता है। तब हर साधना मुश्किल से मुश्किलतर लगने लगती है। विनय का भी विपश्यना शिविर में आई रशियन महिला दारिया की देह के प्रति आकर्षण बढ़ना उपन्यास में एक नया मोड़ लेता है और यहीं से विपश्यना शिविर में आए लोगों की हक़ीक़त भी सामने आनी शुरू होती है।
पुरुष के रूप में विनय का चरित्र एक आदर्श सोच वाला उभर कर आता है पर सिर्फ़ दूसरों के लिए। अपने लिए वह आदर्श को लपेट कर बगल में दबाए हुए खड़ा मिलता है।
" प्यार एक उत्तेजना है पर उत्तेजना के लिए ज़रूरी शर्त है आकर्षण और इन्हीं दोनों का मिश्रित रूप है अपनत्व का एक अटूट सिलसिला। यानी उत्तेजना से उपजी भावना का ही नाम प्यार है।" मेरे इस परिभाषा में देह शून्य है। अब यह और बात है कि उपन्यास के नायक के विचार मेरे विचार से मेल नहीं खाते। विनय के नज़रिए से प्रेम की राजधानी में यदि शरीर शामिल ना हो तो वह प्रेम नहीं होता। मतलब प्रेम भी एक शराब है। यह प्रियंवद, जया जादवानी के पात्रों का प्यार नहीं है। यह कुणाल सिंह के पात्रों का प्यार है। आचार्य रजनीश के सिद्धांत का प्यार है। विपश्यना शिविर में आई रशियन स्त्री दारिया यानी विनय की मल्लिका को भी विनय से कहां प्यार है! उस को तो बस, उसे अपने हित में इस्तेमाल करने वाला प्यार है। विनय को भी –'पेट और पेट के नीचे तृप्ति रहे तो सब कुछ अच्छा लगता है। विनय विपश्यना शिविर में रह कर साधना की आड़ में सभी को धोखा तो दे ही रहा होता है साथ में अपने-आप को भी।
दारिया हालां कि पश्चिमी परिवेश में पली-बढ़ी औरत है तो स्वाभाविक ही है कि उस के लिए अधखुला शरीर कोई मायने नहीं रखता और न ही परपुरुष गमन लज्जा का कारण है। दारिया आगे चल कर विनय से शारीरिक संबंध स्थापित करती है। यहां लेखक ने स्त्री मन को बड़े ही सशक्त ढंग से रेखांकित किया है। दारिया के मामले में पितृसत्तात्मक दबाव बिलकुल नज़र नहीं आता । दारिया का शारीरिक संबंध स्थापित करने के पीछे उस के मां बनने की लालसा उजागर होती है तो नायक के साथ पाठक भी चौंक जाते हैं। जब वह कहती है–"तुम्हें मालूम नहीं विनय, मैं बहुत परेशान थी मां बनने के लिए। बहुत ट्राई किया। इलाज पर इलाज। पर हार गयी थी……।" यहां स्त्री मन को समझने की ज़रूरत है। उस की स्थितियों, परिस्थितियों और जीवन के सलीक़े को। यहां दारिया का प्रसंग आप की समूची सोच पर प्रश्न चिन्ह लगा देता है और एक पैग़ाम देता है कि आप सामने वाले को किस नज़रिए से देखते हैं! यदि आप कपड़ा पहने हुए को नंगा होने की कल्पना करते हैं तो भले ही उस का शरीर कितने ही कपड़ों की तह में लिपटा हो, वह आपको नंगा ही नज़र आएगा। यहां दारिया का ममत्व उस के हर कृत्य पर भारी पड़ जाता है।
यहां विपश्यना शिविर में ध्यान सत्र के दौरान हुई एक घटना का ज़िक्र करना भी बेहद ज़रूरी है। अचानक मेडिटेशन के दौरान एक औरत चीख़ने लगती है – " का करबे रे! का कै लेबे हमार! हमें जिए देबे कि नाहीं! हमहूं तोके नाई रहे देब! मारि देब! मारि देब! अब हमार टाइम आ गइल! अब हमार टाइम आ गइल!"
इस महिला की भाषा से इतना तो पता चल जाता है कि यह औरत उत्तर प्रदेश के किसी गांव -गिरावं की है पर उस का यह चीख़ना-चिल्लाना उसके अपने पति के लिए है या बेटे के लिए है या रिश्तेदारों -पट्टीदारों के लिए है, स्पष्ट नहीं हो पाता है। लेकिन ध्यान सत्र में बैठे सभी लोगों का उस स्त्री के प्रति तटस्थ रहना किसी अचंभे से कम नहीं है। इसे लेखक सिद्धार्थ के वियोग में यशोधरा के विलाप की संज्ञा देता है।
"तो क्या जब सिद्धार्थ यशोधरा को छोड़ कर गए तो लुंबनी भी यशोधरा के साथ विलाप में डूबीं थी? यशोधरा के शोक में संलग्न हुई थी लुंबनी? कोई उत्तर नहीं है।
"फिर अभी-अभी ध्यान कक्ष में जब वह स्त्री विलाप कर रही थी तब कितने लोग उस स्त्री के विलाप में शामिल हुए? क्यों नहीं हुए? क्या इतने तटस्थ हो गए ? विपश्यना के रंग में इतने रंग गए ? सांस में इतना रम गए कि विलाप की संवेदना भी सुन्न हो गई। इतनी सफल विपश्यना?" यहां लेखक एक तरफ जहां संवेदनहीनता का प्रश्न उठाता है वहीं दूसरी तरफ स्त्री विमर्श के प्रोपेगंडा को नकारते हुए पुरुष विमर्श के पक्ष को भी उठाता है–
सखी वह मुझसे कह कर जाते
कह, तो क्या मुझको वे अपनी पग-बाधा ही पाते
मुझको बहुत उन्होंने माना
फिर भी क्या पूरा पहचाना?
मैंने मुख्य उसी को जाना
जो वे मन में लाते।
सखी, वे मुझसे कह कर जाते।
यशोधरा की संवेदना में मैथिलीशरण गुप्त इतना खो जाते हैं कि एक कविता के मार्फत वह बुद्ध को भगोड़ा साबित कर देते हैं। लोक बुद्ध को भगोड़ा मान लेता है तब, जब कि सिद्धार्थ महीनों तैयारी करते हैं, संन्यास की। यशोधरा के साथ मिल कर तैयारी करते हैं। जब रात घर छोड़ते हैं तो यशोधरा जाग रही हैं। लेकिन एक कवि की कविता की ताक़त उसे भगोड़ा घोषित कर देती है। सिद्धार्थ को पत्नी का त्याग नहीं करना था, यह सही है पर भगोड़ा?"
"विपश्यना में प्रेम" का कथानक ज़बरदस्त तो है ही, इस का कथोपकथन और भाषा शैली अद्वितीय है। कहन की रवानी पाठक को पूरी तरह बांध कर रखती है। दरअसल रोचक होना और रोचकता बनाए रखना, यह दोनों अलग-अलग चीज़ें हैं। इस उपन्यास में ये दोनों तत्व मौजूद हैं। एक तरह से इस रचना को भोगा हुआ यथार्थ कह सकते हैं, उपन्यास के हर पात्र का सूक्ष्म विश्लेषण लेखक ने किया है। दयानंद पांडेय ने उपन्यास में बड़े ही ईमानदाराना ढंग से सभी पात्रों के इंसानी फितरत को उकेरा है। उपन्यास में यदा-कदा आंचलिक और स्थानीय प्रचलित शब्दों का ख़ूबसूरत पुट भी देखने को मिलता है जैसे – पगहा तुड़ा कर, भूसी छूटना, मुंह बा कर, इत्यादि।
वाणी प्रकाशन से प्रकाशित दयानंद पांडेय का उपन्यास "विपश्यना में प्रेम" निश्चित तौर पर एक पठनीय पुस्तक है।
विपश्यना में प्रेम उपन्यास पढ़ने के लिए इस लिंक को क्लिक कीजिए
समीक्ष्य पुस्तक :
विपश्यना में प्रेम
लेखक : दयानंद पांडेय
प्रकाशक : वाणी प्रकाशन
4695 , 21 - ए , दरियागंज , नई दिल्ली - 110002
आवरण पेंटिंग : अवधेश मिश्र
हार्ड बाऊंड : 499 रुपए
पेपरबैक : 299 रुपए
पृष्ठ : 106
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