सुधाकर अदीब
दारिया और विनय की इस दैहिक कहानी को एक अनोखी प्रेम-कथा
वरिष्ठ कवि-कथाकार और पत्रकार भाई दयानंद पांडेय के लेखन और उनके व्यक्तित्व से हम सभी भली भांति परिचित हैं। उनके अब तक प्रकाशित 13 उपन्यास, 13 कहानी संग्रह समेत हिन्दी साहित्य की विविध विधाओं की अनेक पुस्तकें उनके सक्रिय एवं श्रेष्ठ लेखन की स्वतः परिचायक हैं।
'अपने अपने युद्ध' 'बांसगांव की मुनमुन' 'लोककवि अब गाते नहीं' 'हारमोनियम के हज़ार टुकड़े' 'यादों का मधुबन' जैसी एक से बढ़ कर एक साहित्यिक कृतियां उन्होंने हिंदी साहित्य जगत को दी हैं।
आज से लगभग दो दशक पूर्व उनका एक अत्यंत चर्चित और बोल्ड उपन्यास *अपने अपने युद्ध* लीक से हट कर रचा गया और प्रकाशित हुआ था। इस का लेखक भारतीय समाज की विकृतियों का चित्रण करते समय हमारी न्याय व्यवस्था को भी कठघरे में खड़ा करने से नहीं हिचकता। दयानंद पांडेय ने अपने उस दुस्साहस के लिए वर्षों उच्च न्यायालय के चक्कर काटे और वे अंततः बरी हुए।
उनका एक अन्य बेहद महत्त्वपूर्ण उपन्यास 2012 में प्रकाशित हुआ था - *बांसगांव की मुनमुन*, एक अत्यंत संवेदनशील उपन्यास जिसमें लेखक का स्त्री-अस्मिता पर केंद्रित चिंतन इसमें अपनी सम्पूर्ण गरिमा और सकारात्मकता के साथ व्यक्त हुआ है। चार-चार उच्च पदस्थ अफसर बेटों (जज, एसडीएम, बैंक अफसर और एनआरआई) के होते हुए भी एक नितांत उपेक्षित पिता मुनक्का राय, जिन की कभी वकालत में तूती बोलती थी और जो अपने एक पट्टीदार के षड्यंत्रों के चलते बाद में आर्थिक रूप से विपन्न हो चले थे, उनका दयनीय चित्रण लेखक 'बांसगांव की मुनमुन' में करता है और आख़िर में अपने वृद्ध माता-पिता का सहारा बनती है तो उन की एक स्वयं पीड़ित, प्रताड़ित किंतु दुर्दमनीय हौसले वाली उनकी सबसे छोटी बेटी मुनमुन राय ही। एक ऐसी संघर्षरत लड़की जिसके उत्कर्ष की गाथा इस उपन्यास को एक क्लासिक कृति बना देती है। क्यों कि आज की हर पढ़ी लिखी और स्वप्नदर्शी लड़की उस मुनमुन में निश्चित रूप से अपना आदर्श खोज सकती है।
अंत में हम भाई दयानंद पांडेय के नवीनतम उपन्यास की चर्चा करेंगे। इस विषय पर अपने आपमें कदाचित प्रथम उपन्यास *विपश्यना में प्रेम* के लिए समर्थ कथाकार दयानंद पांडेय और वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली दोनों को मेरी हार्दिक बधाई।
यह उपन्यास आकार में छोटा होते हुए भी अपने कथ्य में बहुत बड़ा है। इसे पढ़ते हुए एक ओर ओशो के ध्यान शिविर की ओर हमारा ध्यान जाता है, दूसरी ओर इस बात पर भी हम चिंतन के लिए विवश होते हैं कि आज जिस समय और समाज में हम सब रह रहे हैं, उसमें विपश्यना अर्थात_ आत्मनिरीक्षण और आत्मशुद्धि के लिए ध्यान पर मन को एकाग्र कर पाना स्वयं में ही कितनी बड़ी चुनौती है? विनय और मल्लिका का प्रेम जिस गुपचुप तरीके से एक ध्यान शिविर में पनपता है और उनका ध्यानयोग जिस तरीके से अपने लक्ष्य से विचलित होता है, उसे उपन्यासकार का अभिव्यक्ति-कौशल एक अलग ही धरातल पर चित्रित करने में सफल हुआ है। और मज़े की बात यह भी कि 'विपश्यना में प्रेम' उपन्यास अपने पाठ में जितना डेंजरस है, उतना ही सरस भी।
कोई भी कृति अपने कथ्य से खड़ी होती है, किंतु अपने उद्देश्य की ऊंचाई से सार्थक एवं कालजयी होती है। कथा और कल्पना में मणिकांचन संयोग होना अनिवार्य है। अतः कल्पना,चाहे वह कोई यथार्थवादी उपन्यास हो चाहे ऐतिहासिक, यदि इतनी स्वाभाविक न होगी कि पाठक उसके साथ अपना तादात्म्य बैठा सके तो वह कथा कालजयी नहीं हो सकती। दरअसल यह उपन्यास लगभग अपने अंत तक जो विपश्यना केंद्र के भीतर एक भारतीय साधक विनय और एक अज्ञात रूसी साधिका (जिसको अपनी ओर से कथानायक विनय ने काल्पनिक नाम 'मल्लिका' दे रखा था और जिसका वास्तविक नाम 'दारिया' था) के गुप्त वासनामय प्रेमप्रसंगों को अनेक बार संगीत की सरगम की भाँति दोहराते हुए, काफ़ी कुछ विचित्र ढंग से दोनों प्रेमियों को तरंगित भी कर रहा था और आतंकित भी, अंत में लेखक अचानक दारिया और विनय की इस दैहिक कहानी को एक अनोखी प्रेम-कथा में परिवर्तित कर *विपश्यना* को एक नवीन अर्थ देकर इस पुस्तक को एक विशिष्ट उद्देश्यपूर्ण औपन्यासिक कृति में तब्दील कर देता है। इसके लिए लेखक को, उसी के शब्दों में --
साधु! - साधु !
विपश्यना में प्रेम उपन्यास पढ़ने के लिए इस लिंक को क्लिक कीजिए
समीक्ष्य पुस्तक :
विपश्यना में प्रेम
लेखक : दयानंद पांडेय
प्रकाशक : वाणी प्रकाशन
4695 , 21 - ए , दरियागंज , नई दिल्ली - 110002
आवरण पेंटिंग : अवधेश मिश्र
हार्ड बाऊंड : 499 रुपए
पेपरबैक : 299 रुपए
पृष्ठ : 106
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