डॉ अनिल मिश्र
प्रपात का प्रवाह, शांति की चाह, सागर की गहराई, अल्हढ़ की अँगड़ाई, ऋषि की अनुभूति, देह की प्रीति, मौन की हलचल, महकता संदल, दमन की दहक, चिड़ियों की चहक, आना-पान, खंडित ध्यान, रातों की बात, मादक सौगात, प्रश्नों का जाल, आचार्य का हाल, विपश्यना की साधना और काम की आराधना की जानी-अनजानी दुनिया को यदि देखना हो तो 'विपश्यना में प्रेम' अवश्य पढ़िए।
जी, विविध बिधाओं में 75 से अधिक प्रकाशित पुस्तकों की रचना करने वाले विद्रोही कथाकार, निडर पत्रकार और संपादक श्री दयानंद पांडेय जी का वाणी प्रकाशन ग्रुप द्वारा सद्य: प्रकाशित उपन्यास-'विपश्यना में प्रेम'।
इस कृति में आप देख पाएंगे साथ-साथ चलती विपश्यना और वासना को, शांति की चाह और मन के भटकाव को, देह से ध्यान और ध्यान में देह को, अपेक्षा और परिणाम के अंतर को, विपश्यना शिविर के बंद कपाट के अंदर स्थिर दिनचर्या में भी आगे क्या होगा के कौतूहल को और आप की सोच को हैरान करता कथा के परिणाम को।
दारिदा का किरदार गढ़ते हुये उपन्यासकर, पाठक के समक्ष यह सार्वकालिक, सार्वजनिक और सार्वभौमिक सत्य रखना चाहता है कि, "विराट दुनिया है स्त्री की देह और स्त्री का मन उसकी देह से भी विराट। वह जितना दिखाना चाहती है और जितना पढ़ाना चाहती है, उससे अधिक न आप देख सकते हैं, न पढ़ सकते हैं।"
कथा में गोरख बाबा का निर्गुण से लेकर ग़ालिब का सगुण ऐसे घुल गया है, जैसे पानी में चीनी तथा कथा का गला साफ़ रखने के लिये बीच-बीच में माता सीता के वन निर्वासन से लेकर बुद्धत्व का आधार और बौद्ध चीन का व्यवहार, ग्रामीण महिलाओं के भूत और ओझाओं की करतूत, सूडो सेकुलरिज्म पर मुहर्रम का मुबारकबादी व्यंग्य जैसी सह कथाओं का गरारा, उपन्यासकार के कथा प्रबंध और शैली की विशेषता है।
परिस्थिति और पात्र के अनुरूप भाषा का सौष्ठव और शैली का सौंदर्य देखते बनता है। कुछ उदाहरण-
1. वह जैसे चुप की राजधानी थी। आदमी तो आदमी पेड़, पौधे, फूल, पत्ते, प्रकृति, वनस्पति सब चुप थे।... न भीतर की आवाज़ बाहर जाती थी, न बाहर की भीतर। अगर कोई आवाज़ कभी-कभार सुनाई देती थी, तो आचार्य की, या टेप पर आचार्य के निर्देश।
2. ज़्यादातर लोग अनुशासन में वैसे ही निरुद्ध रहते हैं, जैसे सुर में संगीत और उसके साज। होते हैं एकाध विनय जैसे अव्यवस्थित तो उन्हें आचार्य व्यवस्थित कार देते हैं, ठीक वैसे ही जैसे लोकसभा अध्यक्ष, लोकसभा में सांसदों, मंत्रियों को व्यवस्थित करता है।
3. अचानक उसका ध्यान टूटता है। एक गोरी सी रशियन स्त्री के अकुलाये वक्ष पर उसकी निगाह धँस जाती है... जब मन नें देह का ध्यान आ जाये तब सारे ध्यान बिला जाते हैं।
और उपन्यासकार जब शब्दों का पुष्प बाण, मदन के धनुष पर कान तक खींच कर छोड़ता है, तब विनय की विपश्यना, मल्लिका उसी तरह खंडित कर देती है, जैसे मेनका विश्वामित्र की तपस्या।
विश्व की प्रथम यौन-संहिता, 'कामसूत्र' के रूप में, भारत में महर्षि वात्सायन द्वारा रची गई, जिसमें यौन-प्रेम के मनोशारीरिक सिद्धांतों और प्रयोगों की विस्तृत व्याख्या और विवेचना है। पूज्य आदिशंकराचार्य जी को भी, परमविद्वान मंडन मिश्र जी की विदुषी भार्या से शास्त्रार्थ करने के लिये, इन कामसूत्रों को समझने वास्ते, पर काया प्रवेश करना पड़ा था।
1883 में कामसूत्र का पहला संपादित अंग्रेजी अनुवाद, ओरिएंटलिस्ट सर रिचर्ड फ्रांसिस बर्टन द्वारा करके जब निजी तौर पर मुद्रित किया गया था, तब ब्रिटेन में इसे खरीदने के लिये लोग टूट पड़े थे और एक-प्रति 150-150 पाउंड में बिकी थी, जो आज के लाख रुपये से अधिक है।
उपन्यास की नायिका रशियन दारिदा कामसूत्र के मनोशारीरिक सिद्धांतों और प्रयोगों में भारतीय नायक विनय से ज़्यादा पारंगत है और उपन्यासकार उससे भी अधिक पारंगत है, उसके इन क्रिया-कलापों को शब्द देने में। साधु-साधु...
उपन्यास की कथा एक विपश्यना शिविर के प्रारंभ से प्रारंभ होती है और शिविर की समाप्ति के साथ पूरी हो जाती है, कई महीने बाद मास्को से दारिदा का विनय को आये अंतिम फोन के अतिरिक्त, जो पूरे उपन्यास को लगभग पढ़ चुके पाठक की नायिका के चरित्र और उपन्यास के अन्त की सारी कल्पना को ही पलट देता है। मल्लिका कहती है-
"तुम्हें मालूम नहीं विनय! मैं बहुत परेशान थी मां बनने के लिये। बहुत ट्राई किया (पति का) इलाज़ पर इलाज़ पर हार गई। बीच विपश्यना तुम क्लिक कर गये, तो ट्राई कर लिया। सारा रिस्क लेकर ट्राई किया और सक्सेस रही।.... मालूम है बेटे का नाम विपश्यना ही रखा है।"
विनय पूछता है, क्या तुम्हारे हस्बैंड को मालूम है कि विपश्यना किसका बेटा है?"
दारिया बोलती है- हां , मालूम है।
क्या? वह अचकचा जाता है।
दारिया कहती है- उसे मालूम है कि विपश्यना उसी का बेटा है।... पर किसी को क्यों कुछ बताना!"
विपश्यना शिविर में रूस, इंग्लैंड, ऑस्ट्रेलिया और भारत के कई प्रांतों से लोग आये हैं, लगभग 25-30, पर कहानी दो पात्रों के इर्द-गिर्द ही घूमती है- भारतीय अधेड़ विनय और रशियन सुंदरी दारिदा। भूतहा प्रलाप करने वाली महिला, अंग्रेज लड़का, उसकी गर्ल फ्रेंड, शिविर-सेवक और शिविर आचार्य भी अपने-अपने परिस्थिति पर्व पर सामने आते हैं।
चुप की राजधानी का अनुशासित आत्मबोधात्मक विपश्यना ध्यान शिविर, पूर्ण होने के तत्काल बाद विपश्यना के विपरीत आचरण का अखाड़ा बन जाता है। मौन को कोलाहल निगल लेता है और साधना को संभोग। कितने लोग इसके कारण शिविर से निष्कासित किये जाते है और बचे लोग, पता चलता है कि इंग्लैंड का लड़का और उसकी गर्ल फ्रेंड गूगल पर सस्ती रहने कि जगह तलाश करते इस शिविर में आए हैं, और महाराष्ट्र के दर्जन भर लोग हवा-पानी बदलने और घूमने के लिए। इनमे से कोई आना-पान-ध्यान के लिये, विपश्यना की साधना के लिये नहीं आया है।
इस के अतिरिक्त उपन्यास इस ओर भी संकेत कर रहा है कि जिस के पास जो है, वह वही तो दे सकता है, जो है ही नहीं उसे कहाँ से देगा? राजकुमार सिद्धार्थ ने विपश्यना की साधना की, सिद्धि पर बुद्ध बने और जब बुद्ध बन गए , तब बुद्धत्व को बांटा , पर विपश्यना शिविर के आचार्य के अंतस में बुद्धत्व प्रतिष्ठित नहीं है, उनकी विपश्यना की मूर्ति में वासना का प्राण प्रतिष्ठित है, जिसे साधना के मध्य सुंदर साधिका के रूपरस का पान करते विनय देख लेता है, फिर यदि वासना के बासंती बयार में मल्लिका के साथ उसकी रातें गुलजार होती हैं, तो दोषी कौन है? यदि विपश्यना- शिविर की अपेक्षा के विपरीत परिणाम मिलता है, तो अधिक दोषी कौन है, आचार्य या साधक? यह प्रश्न बिना पूछे, पाठक से पूछ लेता है उपन्यासकार।
विपश्यना शिविर में विवाहित भारतीय विनय और पति के संग आई रशियन दारिया के बीच विवाहेतर शारीरिक संबंध स्थापित हो जाता है। यद्यपि यह समाज का नैतिक और स्वीकार्य कृत्य नहीं है, परंतु समाज के अंदर की सच्चाई अवश्य है। विनय घर से पगहा तोड़ कर भाग कर आया है, कारण रूप में पत्नी का व्यवहार इस में छिपा है और दारिदा के अंतस में मां बनने की सुसुप्त अभिलाषा है, जिसे उस का बीमार पति, इलाज़ पर इलाज़ कराने पर भी, पूरा नहीं कर पा रहा है, इस लिए मनोशारीरिक अतृप्ति दोनों के बीच परिस्थितिजन्य विवाहेतर शारीरिक संबंध स्थापित करा देती है। मेरी दृष्टि में न तो यहां शुद्ध वासना है, न ही शुद्ध प्रेम। एक प्रश्न यहाँ फिर पाठकों पर छोड़ता है उपन्यासकार कि पति-पत्नी में एक दूसरे को समझने के प्रयास में शून्यता और एक-दूसरे द्वारा एक-दूसरे की मनोशारीरिक आवश्यकताओं की पूर्ति न करने पर, जो विवाहेतर शारीरिक संबंध बनता है, वह परिहार्य और अनुचित है, अथवा नहीं?
इन मौन प्रश्नों के अतिरिक्त उपन्यासकार बड़ा प्रश्न छोड़ता है पाठकों पर, "कितना आसान है यह बता देना और सिखा देना, पर कितना कठिन है इसे अंगीकार करना!"
मुझे अपना एक शे'र याद आ रहा है-
तूर की वह रौशनी जब हुस्न वेपरवा लगे
जान लेना तुम ख़ुदा से इश्क़ करना आ गया
शायद यही वासना से विपश्यना की ओर प्रेम मार्ग से प्रस्थान है और निर्विकारी आत्मबोधी विपश्यना में प्रेम का साहचर्य...
यही है मेरा बीज-वक्तव्य वाणी प्रकाशन ग्रुप द्वारा श्री दयानंद पांडेय जी के सद्य: प्रकाशित उपन्यास 'विपश्यना में प्रेम' पर परिचर्चा में, जिस की अध्यक्षता श्रेष्ठ कथाकार श्री शिवमूर्ति जी ने किया और वक्ता रहे इतिहासविद् कथाकार भारतीय प्रशासनिक सेवा के पूर्व वरिष्ठ अधिकारी डॉ सुधाकर अदीब जी, प्रसिद्ध कथाकर श्री महेन्द्र भीष्म जी संपादक डॉ हरिराम त्रिपाठी जी, कवयित्री-कहानीकार पूर्व पुलिस अधिकारी डॉ सत्या सिंह जी। अंग्रेजी की प्रवक्ता सुश्री रत्ना श्रीवास्तव जी का संचालन यह संकेत दे रहा है कि वाणी प्रकाशन ग्रुप इस उपन्यास का अंग्रेजी संस्करण अति शीघ्र लाने वाला है।
अग्रिम हार्दिक बधाई आदरणीय श्री दयानन्द पाण्डेय जी को आंग्ल संस्करण के लिये और साधुवाद एक गंभीर चिंतन युक्त कृति को साहित्य-जगत को देने के लिए।
विपश्यना में प्रेम उपन्यास पढ़ने के लिए इस लिंक को क्लिक कीजिए
समीक्ष्य पुस्तक :
विपश्यना में प्रेम
लेखक : दयानंद पांडेय
प्रकाशक : वाणी प्रकाशन
4695 , 21 - ए , दरियागंज , नई दिल्ली - 110002
आवरण पेंटिंग : अवधेश मिश्र
हार्ड बाऊंड : 499 रुपए
पेपरबैक : 299 रुपए
पृष्ठ : 106
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