दयानंद पांडेय
कचहरी तो बेवा का तन देखती है / कहां से खुलेगा बटन देखती है। बात 1991 की है। लखनऊ के चीफ़ ज्यूडिशियल मजिस्ट्रेट की अदालत में एक धनपशु के बेटे का मामला सामने आया। लड़का छुरेबाजी में गिरफ़्तार हुआ था। धनपशु ने लखनऊ के सब से मंहगे क्रिमिनल लॉयर को हायर किया। सस्ता लॉयर भी हायर करता तो भी ज़मानत मिल जाती। क्यों कि छुरेबाजी बहुत गंभीर अपराध नहीं है क़ानून की राय में। पहली ही पेशी में ज़मानत मिल जाती है। अगर इस बाबत मृत्यु न हुई हो। पर यह तो स्कूली लड़कों के बीच मामूली छुरेबाजी थी। फिर लड़के का पिता धनपशु था। बड़ा बिजनेसमैन होने के कारण बड़ा वकील तय किया। अब सी जे एम के पास चूंकि दस्तूर पहुंचा नहीं था और कि उस बड़े वकील से भी चीफ़ ज्यूडिशियल मजिस्ट्रेट के संबंध तब के दिनों छत्तीस वाले थे। पैसे वाले का मामला है , यह बात जज साहब भी जानते थे। ख़ैर , क़ानूनन ज़मानत के लिए मना भी नहीं कर सकते थे। सो जज साहब ने ठीक शाम चार बजे केस टेकअप किया और घड़ी देखते हुए बोले अब तो शाम के चार बज गए हैं सो फ़ाइल पर लिख दिया पुट-अप टुमारो !
अकड़े खड़े वकील साहब तुरंत ढीले पड़े और हाथ जोड़ कर गिड़गिड़ाए भी , प्लीज़ अभी देख लें। क्यों कि आगे दो दिन छुट्टी है। जज साहब बोले , बेल देने से मना तो कर नहीं रहा। और उठ कर खड़े हो गए। वकील साहब तैश में आ गए। लपक कर जज की मेज पर चढ़ कर उन की कॉलर पकड़ ली। बोले , बेल तो देनी ही होगी आज ही और अभी। जाने मुवक्किल से मिले पैसे की गरमी थी या कुछ और। पर वकील साहब यह अपराध कर बैठे। जो भी हो जज साहब ने भी पलट कर वकील साहब को तड़ातड़ थप्पड़ रसीद किए। अर्दली और पेशकार को इशारा किया। दोनों ने वकील साहब को दबोच लिया। तब तक पुलिस भी जज साहब की रक्षा में आ गई। पुलिस ने भी वकील साहब को पकड़ लिया। जज साहब चैंबर में चले गए। तब मोबाइल का ज़माना नहीं था सो वीडियोग्राफी और फोटोशूट से वंचित रह गए यह सारे दृश्य। लेकिन लोगों की आंखों और बातों में आज भी यह दृश्य ताज़ा हैं। अब हुआ यह कि अगले दिन सेकेण्ड सैटरडे था। फिर संडे भी। मतलब धनपशु के बेटे को जैसे भी हो तीन दिन जेल में ही बिताना था। अलग बात है उस धनपशु के बेटे को तीन हफ्ते से अधिक जेल में बिताना पड़ गया।
हुआ यह कि वकील साहब बड़े क्रिमिनल लॉयर ही नहीं बार के भी बड़े ख़ामख़ा थे। सो बार की मीटिंग में जज के इस रवैए के ख़िलाफ़ निंदा प्रस्ताव पारित कर वकील लोग हड़ताल पर चले गए। उधर जज साहब भी चीफ ज्यूडिशियल मजिस्ट्रेट थे। सो न्यायाधीश लोगों ने भी मीटिंग की और जज लोग भी हड़ताल पर चले गए। दोनों पक्ष की हड़ताल लंबी खिंच गई। कोई तीन महीने से ज़्यादा। लखनऊ के रोजाना के रुटीन अदालती कामकाज उन्नाव ट्रांसफर कर दिए गए। अब अपराधियों की पेशी लखनऊ के बजाय उन्नाव में होने लगी। पुलिस , अपराधी सभी परेशान। पूरा सिस्टम चरमरा गया। अंतत: तब के लखनऊ के संसद अटल बिहारी वाजपेयी ने वकीलों और जजों के बीच मध्यस्तता कर के यह हड़ताल खत्म करवाई।
ऐसे और कई मामले हुए हैं। अदालती कारोबार में। बेलपालिका में तब्दील हुई न्यायपालिका के। इस लिए भी कि अब यह पूरी तरह सिद्ध है कि न्याय भी लक्ष्मी की दासी है।
आज भी जो मुंबई की अदालत में आर्यन ख़ान के साथ हुआ उसे न्यायिक टैक्टिस भी कह सकते हैं आप। न्यायिक बदमाशी भी। और यह और ऐसा कोई पहली बार नहीं हुआ है। पहले भी होता रहा है जब-तब। इस होने के पीछे दो-तीन कारण अनुमानित हैं। अव्वल तो यह कि संबंधित जज साहब शत-प्रतिशत ईमानदार हैं। या फिर आर्यन ख़ान के दोनों वकील साहबान ने उन्हें उन का हिस्सा नहीं पहुंचाया। या फिर आर्यन ख़ान के वकील साहबान से जज साहब के रिश्ते बहुत ख़राब हैं। सो जज साहब ने इन वकीलों को सबक़ सिखा दिया है। बता दिया है कि ऑर्डर रिजर्व। 20 अक्टूबर को सुनाएंगे। मतलब धनपशु शाहरुख़ ख़ान के बिगड़ैल और नशेबाज़ साहबजादे आर्यन ख़ान पांच दिन और जेल की ख़ातिरदारी में गुज़ारेंगे। क्यों कि सभी आरोपी सलमान ख़ान की तरह भाग्यशाली और जुगाड़ू नहीं होते। कि इधर सेशन जज ने ज़मानत ख़ारिज की और उधर हाईकोर्ट पहले ही से ज़मानत देने के लिए तैयार बैठी हो। शाहरुख़ खान को अपने दोस्त सलमान ख़ान से उन के तजुर्बे के मद्देनज़र इस बाबत सलाह समय रहते ले लेनी चाहिए थी। एक नहीं दो-दो मंहगा वकील रखने , फर्जी शूटिंग के बहाने एन सी बी आफिस को कैमरे से वाच करने , करोड़ो रुपए पानी की तरह बहाने भर से बात नहीं बनती। प्रियंका गांधी वाड्रा का ब्वाय फ्रेंड बनने से भी नहीं बनती। एक नहीं , दो टिकट ले लेने से प्लेन या ट्रेन की स्पीड नहीं तेज़ हो जाती। यह समझने की चीज़ है। पान मसाला का विज्ञापन कर करोड़ो नौजवानों का जीवन बर्बाद करने से समझ नहीं विकसित होती। फिर ड्रग आर्यन ख़ान लेता है , शाहरुख़ ख़ान नहीं। या कि शाहरुख़ ख़ान भी ड्रग लेता है ?
क्या पता ?
बहरहाल , अमूमन ऐसे मामलों में वकील साहब लोग जज से सेटिंग रखते हैं। और कई बार अपनी फीस से भी बहुत ज़्यादा जज साहब के पास समय रहते पहुंचा देते हैं। कैसे भी। चूंकि मैं जज और वकीलों के बीच बहुत ज़्यादा समय से हूं सो इस बात को बहुत बेहतर जानता हूं। पत्रकारिता और राजनीति की तरह अदालतों में भी नब्बे प्रतिशत मामले इसी दलाली के सिपुर्द हैं। इसी दलाली का परिणाम है कि मैं अब से नहीं बरसों बरस से न्यायपालिका को न्यायपालिका नहीं बेल पालिका लिखता और कहता रहा हूं। कोई 22 बरस पहले छपे अपने उपन्यास अपने-अपने युद्ध में न्यायपालिका को बेल पालिका में तब्दील कई संदर्भों के साथ लिखा था। मुझ पर कंटेम्पट आफ कोर्ट भी हुआ था तब।
तो हमारी विभिन्न अदालतें आम आदमी को न्याय दें न दें , हत्यारों , बलात्कारियों और भ्रष्टाचारियों को बेल यानी ज़मानत देने का काम बड़ी फुर्ती से करती हैं। क्यों कि यहां पैसा जुड़ा रहता है। रात में अदालत का दरवाज़ा खोल कर , छुट्टी के दिन भी अदालत खोल कर ज़मानत देने में हमारी न्यायपालिकाएं चीते की फुर्ती से काम करती हैं। निचली अदालतों से लगायत सर्वोच्च अदालत तक यह खेल निर्बाध जारी है। ऐसे अनेक क़िस्से हैं मेरे पास। काश ज़मानत देने में चीते सी फुर्ती दिखाने वाली यह अदालतें न्याय देने में भी यही फुर्ती दिखातीं। काश ! यहां तो आलम यह है कि अमूमन हर अपराधी छाती तान कर कहता है कि न्यायपालिका में मेरी अटूट आस्था है। और ग़रीब , निरपराध आदमी न्यायपालिका से भी वैसे ही घबराता है जैसे पुलिस से। जैसे अस्पताल से। जैसे सिस्टम से। जैसे सरकार से। तो न्यायपालिका का यह अजीबोग़रीब तिलिस्म है। अजब तिज़ारत है।
रही बात आर्यन ख़ान के ज़मानत की तो बड़े-बड़े हत्यारों , बलात्कारियों , भ्रष्टाचारियों को चुटकी बजाते ही ज़मानत मिल जाती है। तो यह तो मामूली नशेड़ी है। रिया चक्रवर्ती , दीपिका वग़ैरह को मिल गई तो इस को क्यों नहीं मिलेगी भला। सोनिया , राहुल , रावर्ट वाड्रा , चिदंबरम जैसे तमाम लोग ज़मानत का छप्पन भोग जीम रहे हैं , आर्यन ख़ान भी जीमेगा। आर्यन ख़ान , अरे लखीमपुर का मंत्री पुत्र आशीष मिश्र भी आप देखेंगे जल्दी ही ज़मानत का छप्पन भोग खा कर डकार लेगा। आख़िर हमारी न्यायपालिका , न्यायपालिका नहीं बेलपालिका है। यक़ीन न हो तो हमारे मित्र कवि कैलाश गौतम की चार दशक से भी ज़्यादा पुरानी यह कविता पढ़िए , यक़ीन हो जाएगा।
कचहरी न जाना / कैलाश गौतम
भले डांट घर में तू बीबी की खाना
भले जैसे-तैसे गिरस्ती चलाना
भले जा के जंगल में धूनी रमाना
मगर मेरे बेटे कचहरी न जाना
कचहरी न जाना
कचहरी न जाना
कचहरी हमारी तुम्हारी नहीं है
कहीं से कोई रिश्तेदारी नहीं है
अहलमद से भी कोरी यारी नहीं है
तिवारी था पहले तिवारी नहीं है
कचहरी की महिमा निराली है बेटे
कचहरी वकीलों की थाली है बेटे
पुलिस के लिए छोटी साली है बेटे
यहाँ पैरवी अब दलाली है बेटे
कचहरी ही गुंडों की खेती है बेटे
यही ज़िन्दगी उनको देती है बेटे
खुले आम कातिल यहाँ घूमते हैं
सिपाही दरोगा चरण चूमते है
कचहरी में सच की बड़ी दुर्दशा है
भला आदमी किस तरह से फँसा है
यहाँ झूठ की ही कमाई है बेटे
यहाँ झूठ का रेट हाई है बेटे
कचहरी का मारा कचहरी में भागे
कचहरी में सोये कचहरी में जागे
मर जी रहा है गवाही में ऐसे
है तांबे का हंडा सुराही में जैसे
लगाते-बुझाते सिखाते मिलेंगे
हथेली पर सरसों उगाते मिलेंगे
कचहरी तो बेवा का तन देखती है
कहाँ से खुलेगा बटन देखती है
कचहरी शरीफों की खातिर नहीं है
उसी की कसम लो जो हाज़िर नहीं है
है बासी मुँह घर से बुलाती कचहरी
बुलाकर के दिन भर रुलाती कचहरी
मुकदमें की फाइल दबाती कचहरी
हमेशा नया गुल खिलाती कचहरी
कचहरी का पानी जहर से भरा है
कचहरी के नल पर मुवक्किल मरा है
मुकदमा बहुत पैसा खाता है बेटे
मेरे जैसा कैसे निभाता है बेटे
दलालों नें घेरा सुझाया-बुझाया
वकीलों नें हाकिम से सटकर दिखाया
धनुष हो गया हूँ मैं टूटा नहीं हूँ
मैं मुट्ठी हूँ केवल अंगूंठा नहीं हूँ
नहीं कर सका मैं मुकदमें का सौदा
जहाँ था करौदा वहीं है करौदा
कचहरी का पानी कचहरी का दाना
तुम्हे लग न जाये तू बचना बचाना
भले और कोई मुसीबत बुलाना
कचहरी की नौबत कभी घर न लाना
कभी भूल कर भी न आँखें उठाना
न आँखें उठाना न गर्दन फँसाना
जहाँ पांडवों को नरक है कचहरी
वहीं कौरवों को सरग है कचहरी। ।
बेहतरीन प्रस्तुति
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