इन दिनों एक नया नैरेटिव रचा जा रहा है , खास कर कांग्रेस द्वारा कि योगी सरकार दलित विरोधी है। इसी हाथरस समेत तमाम जगह दलित स्त्रियों से बलात्कार की घटनाएं बढ़ गई हैं। यह हाल तब है जब दलित स्त्रियों के साथ सब से ज़्यादा बलात्कार कांग्रेस राज में ही हुए हैं। क्या मायावती राज में दलित स्त्रियों के साथ बलात्कार नहीं हुए कि मुलायम और अखिलेश राज में नहीं हुए ? मुलायम राज में तो खुद मायावती के साथ क्या क्या नहीं हुआ। अगर अटल बिहारी वाजपेयी न होते तो मायावती की लाज और जान दोनों नहीं बची होती। सच यही है कि तब सपाई गुंडे मायावती की हत्या पर ही नहीं बलात्कार पर भी आमादा थे। तो क्या यह लोग दलित विरोधी नहीं थे ?
याद कीजिए अभी दो महीने पहले जब कुख्यात हत्यारा विकास दुबे पुलिस इनकाउंटर में मारा गया तो कांग्रेस , सपा , बसपा कहने लगे कि योगी सरकार ब्राह्मण विरोधी है। चुन-चुन कर ब्राह्मणों को मरवा रही है। यही नहीं कभी तिलक , तराजू और तलवार की नारा लगाने वाली मनुवाद का नैरेटिव रच कर ब्राह्मणों को अपमानित करने वाली मायावती तो परशुराम की सब से बड़ी प्रतिमा लगाने की बात करने लगीं। अपने को बहुजन समाज का नेता बताने वाली , अपने चार बार के कार्यकाल में सिर्फ दलितों का ही स्मारक और पार्क बनवाने वाली मायावती ब्राह्मणों की सब से बड़ी हितैषी बन कर उपस्थित हो गईं। सतीश मिश्रा की चाणक्य और कानूनी बुद्धि से सत्ता सुख लूटने वाली , भ्रष्टाचार के आरोप में जेल जाने से निरंतर बची रहने वाली मायावती ने तब तो किसी ब्राह्मण तो छोड़िए , किसी पिछड़े की भी प्रतिमा या उस के नाम से पार्क बनवाने की ज़रूरत नहीं समझी।
मायावती को छोड़िए मुलायम और अखिलेश की सरकार में ब्राह्मण निरंतर अपमानित रहे लेकिन अब अखिलेश भी परशुराम जयंती की छुट्टी सपा ने घोषित की , यह बताते हुए परशुराम की प्रतिमा बनाने की बात करने लगे। सपा , बसपा , कांग्रेस का ज़मीनी राजनीति से निरंतर कटते जाने का नतीजा है। कौन ब्राह्मण , किसी अपराधी ब्राह्मण की इज्जत करता है ? रावण भी ब्राह्मण था , कौन ब्राह्मण उस की पूजा करता है भला। परशुराम की भी ब्राह्मणों में कितनी स्वीकृति है , ब्राह्मण ही जानते हैं। विवादित व्यक्ति की स्वीकृति कोई समाज नहीं देता।
यह ठीक है कि योगी में भी ठाकुरवाद का तत्व है। भरपूर है। यह तथ्य किसी से छुपा नहीं है। अच्छा चंद्रशेखर क्या ठाकुरवादी नहीं थे ? कि वीरबहादुर सिंह ठाकुरवादी नहीं थे ? राजनाथ सिंह ठाकुरवाद नहीं करते ? क्या नरेंद्र मोदी भी आहिस्ता से ही सही बैकवर्ड कार्ड नहीं खेलते ? और तो और रामप्रकाश गुप्ता की याद कीजिए। बेहद लाचार और डमी टाइप के मुख्य मंत्री थे। कल्याण सिंह को ठिकाने लगाने के लिए राजनाथ सिंह के लिए जगह बनाने के लिए वह डमी मुख्य मंत्री बनाए गए थे , कुछ समय के लिए। रामप्रकाश गुप्ता ठीक से कुछ सुन नहीं पाते थे , समझ नहीं पाते थे। लेकिन गुप्तावाद ठीक से समझते थे। इतना कि उन दिनों खुल्ल्मखुल्ला कहा जाता था कि गुप्तकाल चल रहा है।
अरविंद केजरीवाल को लीजिए। ज़बरदस्त बनियावादी हैं। आशुतोष को जब राज्य सभा नहीं मिली तो एक न्यूज़ा चैनल पर एनीमेशन सटायर वाले शो में आशुतोष की तरफ से अरविंद केजरीवाल से पूछा जाता था कि मेरे गुप्ता की स्पेलिंग में कौन सी कमी थी। तब जब कि आम आदमी पार्टी से जो लोग राज्य सभा भेजे गए , उन में दो लोग बनिया ही थे। ऐसे ही बहुत कम राजनीतिज्ञ हुए हैं जो जाति-पाति से विरक्त थे। वह मदन मोहन मालवीय , महात्मा गांधी , सरदार पटेल , राजेंद्र प्रसाद , जवाहरलाल नेहरू , लालबहादुर शास्त्री , अटल बिहारी वाजपेयी और थे। वह गोविंद वल्लभ पंत , वह सुचेता कृपलानी , सम्पूर्णानंद , नारायणदत्त तिवारी और थे। जो जातियों के खाने में जीने से परहेज करते थे। एक समय कमलेश्वर जैसे लेखक ने कांग्रेस के लिए एक नारा लिखा था , न जाति पर न पाति पर , मोहर लगेगी हाथ पर। लेकिन कांग्रेस ने ही राजनीति में जाति-पाति का बिस्मिल्ला किया। बाद में सामाजिक न्याय के नाम पर जातियों का दुर्ग बनाया गया। सोशल इंजीनियरिंग के नाम पर जातियों का ऐसा चक्रव्यूह रचा गया कि जातिवाद बदबू मारने लगा है।
अच्छा मुलायम और अखिलेश में भरपेट यादववाद नहीं है। यादववाद की कितनी आग मूती है बाप , बेटे ने क्या यह भी किसी को बताने की ज़रूरत है ? हर थानेदार यादव , हर ठेकेदार यादव। हर प्राइज पोस्टिंग पर यादव। मायावती ने भी दलितवाद की पराकाष्ठा नहीं दिखाई क्या ? मायावती राज में तो आलम यह था कि सरकारी सेवाओं में सवर्ण और दलित किसी सेना की तरह आमने-सामने थे। लोग भूल गए हैं क्या ?
पर यह लोग ब्राह्मण विरोधी नहीं हुए। योगी हो गए। अजब है यह नैरेटिव भी। हिंदू , मुस्लिम दंगों से पेट नहीं भरा तो अब जातीय घृणा फैलाने का यह कुचक्र भी खूब है। सत्ता पाने की इस हवस का कोई समाज करे भी क्या। सच यह कि भारतीय राजनीति में धर्म और राजनीति एक कटु सत्य है। जिस का बीज कांग्रेस ने ही बोया। अब सब के सब यह फसल काट रहे हैं। कोई किसी से पीछे नहीं है। हां , भाजपा चूंकि हिंदुत्व के सपने में जीती और मरती है सो वह हिंदुओं के बीच जातीय संघर्ष नहीं चाहती। हरगिज नहीं चाहती। और अब तो केंद्र में सत्ताशीन होने के बाद मुस्लिम तुष्टिकरण के कांग्रेस के सारे रिकार्ड भी भाजपा ने तोड़ दिए हैं।
लेकिन मुस्लिम समाज के भीतर भाजपा और संघ के लिए इतनी नफरत और इतना जहर भरा है कि भाजपा का मुस्लिम तुष्टिकरण प्रभावी नहीं हो पा रहा। बस इतना ज़रूर है कि इस तुष्टिकरण से मुस्लिम समाज थोड़ा माइल्ड है। नहीं भाजपा विरोध की जो चिलम कांग्रेस ने मुसलमानों के बीच सुलगा रखी है , अब तक देश में कितनी बार आग लग चुकी होती। फिर हिंसा संभाले नहीं संभलती। आप तबलीगी जमात के मौलाना साद की ही याद कीजिए। तमाम हो हल्ले के बाद भी क्या हुआ इस का ? दिल्ली दंगों में भी तमाम पुख्ता सुबूत के बावजूद पुलिस बहुत संभल-संभल कर चल रही है। बेंगलोर याद कर लीजिए। क्या हुआ ?
इतना कुछ हो जाने पर भी पी एफ ए पर प्रतिबंध क्यों नहीं लग रहा। तो इस लिए कि मुसलमान ही नहीं मोदी से डरते , मोदी भी मुसलमानों से डरते हैं। उन की हिंसा से डरते हैं। आप कहते रहिए अहिंसा परमो धर्म : पर दुनिया में दो समाज ऐसे हैं जो खुल्ल्मखुल्ला हिंसा की बात करते हैं। एक इस्लाम को मानने वाला मुस्लिम समाज दूसरे , वामपंथी समाज। आप अहिंसा परमो धर्म : कहते हैं , वह हिंसा परमो धर्म : कहते हैं। कहते ही नहीं करते भी रहते हैं। करते रहेंगे।
अंबेडकर ने काठमांडू में अपने एक भाषण में कहा था कि दुनिया में दो लोग ऐसे हैं जो सामाजिक समता की बात करते हैं। एक बुद्ध , दूसरे कार्ल मार्क्स। लेकिन सामाजिक समता के लिए दोनों के रास्ते अलग-अलग हैं। बुद्ध सत्य और अहिंसा के रास्ते सामाजिक समता की बात करते हैं। जब कि कार्ल मार्क्स हिंसा और तानाशाही के रास्ते। क्या है कि महाभारत में दुर्योधन की मांग कहीं से नाजायज नहीं थी। अगर दुर्योधन कहता था कि मेरा बाप अंधा है तो इस में मेरा क्या कुसूर ? वह ठीक कहता था। पर दुर्योधन ने अपनी मांग मनवाने के लिए के जो छल-कपट किए , शकुनि , जुआ , द्रौपदी का चीर हरण , लाक्षागृह आदि के रास्ते अपनाए वह ठीक नहीं था। इसी लिए वह मारा गया और कि सभ्य समाज उसे आज भी दोषी मानता है।
गांधी अनायास ही नहीं कहा करते थे कि साध्य ही नहीं , साधन भी पवित्र होने चाहिए। पर दुर्भाग्य कि आज कांग्रेस और अन्य विपक्ष सत्ता हासिल करने के लिए कभी हिंदू , मुसलमान कभी ब्राह्मण , ठाकुर , कभी ठाकुर , दलित का कुचक्र रच कर समाज को निरंतर बांटने के काम में लगे हुए हैं। हांफ रहे हैं सत्ता पाने के लिए पर नागफनी जैसी नफरत और जहर बोने में लगे हैं। गांधी का कहा भूल गए हैं , साध्य ही नहीं , साधन भी पवित्र होने चाहिए। दुर्योधन की राह चल कर नित नए लाक्षागृह बनाने में लगे हुए हैं। इतना कि राजनीति और अपराध के बीच की रेखा भूल गए हैं। यह गुड बात तो नहीं ही है।
बताइए कि हाथरस में पीड़िता के परिजनों को सरकार से 50 लाख रुपए दिलवाने के लिए पी एफ आई को 100 करोड़ की विदेशी फंडिंग हुई। अकेले मारीशस से 50 करोड़ की फंडिंग। ई डी के हवाले से यह खबर आई है। किसी चंडूखाने से नहीं। जाहिर है यह फंडिंग हाथरस में जातीय दंगे करवाने के लिए ही हुई। पी एफ आई , भीम आर्मी की साज़िश भी सामने आ रही है। जिसे कांग्रेस जैसी पार्टी कवर कर रही थी। गज़ब है यह सत्ता पिपासा भी। जातीय राजनीति की यह इंतिहा है।
जब ऐसे लोगों से पाला पडा है तब कभी विचार आता है क्या लोकशाही तरीके से इनका इलाज हो पाएगा?
ReplyDeleteबहुत सही विवेचना वर्तमान परिदृश्य की
ReplyDeleteहम सामयिक लेख।
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