हाथरस की पीड़िता ने बयान दिया था कि संदीप ने उस का गला दबाया। अब कंफ्यूजन यह है कि कौन वाला संदीप। संदीप पीड़िता के भाई का भी नाम है और जेल में बंद आरोपी का भी नाम संदीप है। जिस तरह पीड़िता के गांव के कुछ लोगों के वीडियो और कुछ पत्रकारों के आडियो तथा पीड़िता के भाई संदीप , माता , पिता के आडियो वायरल हो रहे हैं , वह कुछ और कहानी कह रहे हैं। भाई संदीप पर संदेह गहरा रहा है।
तिस पर कोढ़ में खाज यह कि विभिन्न राजनीतिक पार्टियों के लोगों ने हाथरस को राजनीतिक तीर्थाटन का केंद्र बना लिया है , यह तीर्थाटन भी सवाल तो खड़ा करता है। अगर मुख्य मंत्री योगी पर हमला ही एक कारण होता तो यह राजनीतिक तीर्थयात्री बलरामपुर और आजमगढ़ की तरफ भी कूच कर गए होते। पर सिर्फ़ हाथरस में ही खूंटा गाड़ कर तंबू तान लेना बताता है कि मसला योगी पर हमला भर नहीं है। कुछ और ही है।
पीड़िता के परिवारीजन की धन की लालसा ने इस में और इजाफा किया है। पीड़िता के भाई संदीप ने तो एक चैनल की रिपोर्टर से भी आन कैमरा , अपनी खुशी छलकाते हुए कहा कि आप भी कुछ दीजिएगा तो मैं ले लूंगा। रिपोर्टर ने असल में पूछ लिया था कि राहुल गांधी ने कितने का चेक दिया है ? तो संदीप धनराशि बताने से कतरा गया और बोला कि आप भी कुछ देंगी तो ले लूंगा। संदीप जिस बेतकल्लुफ अंदाज़ में यह बोल रहा था , रिपोर्टर से कि प्रेमचंद की कहानी कफ़न के घीसू और माधव याद आ गए। आप को याद ही होगा कि कफ़न के घीसू और माधव भी दलित हैं। घर की स्त्री के मर जाने पर कफ़न आदि का इंतज़ाम भी वह नहीं कर पाते। तो गांव के लोग कफ़न आदि के इंतज़ाम खातिर सहयोग करते हैं। और घीसू , माधव कफ़न के लिए मिले पैसों से शराब की दावत का इंतज़ाम कर बैठते हैं।
इतना ही नहीं एक चैनल की रिपोर्टर से जिस ठाट से संदीप बहुत विस्तार से आगे की रणनीति डिसकस कर रहा है , वह आडियो भी हैरत में डालता है। लगता ही नहीं कि वह शोक में है। उस की बहन के साथ बलात्कार भी हुआ है। बहरहाल , रात में अफरा तफरी में चिता जलने के बाद मामला बिगड़ते देख उत्तर प्रदेश सरकार ने दूसरे ही दिन सहायता राशि दस लाख से बढ़ा कर पचीस लाख करते हुए , एक व्यक्ति को नौकरी और पक्का मकान का ऐलान कर ही दिया था। जिसे कुछ पत्रकार और राजनीतिक पचास लाख तक बढ़वाने का लालच दे कर परिवारीजन को बरगलाने में पूरी तरह कामयाब रहे हैं।
नतीज़तन मामला अब भड़क कर चिंगारी से शोला बन ही चुका है। सारे आरोपी जेल जा चुके हैं। एस आई टी की जांच चल ही रही है। पुलिस के तमाम लोग निलंबित हो चुके हैं। सी बी आई इंक्वायरी की सिफारिश हो चुकी है। सभी पार्टियों के लोग राजनीतिक और आर्थिक मदद दे चुके हैं। फिर भी परिवारीजन जाने कौन सा इंसाफ अभी भी मांग रहे हैं। फिर समाज और सरकार को ब्लैकमेल करने की भी एक सीमा होती है। इस ब्लैकमेल की बिसात पर एक न्यायिक जांच की मांग उन की अभी शेष ज़रूर है।
हो सकता है आर्थिक मदद के झोंक में झुलस कर वह हैदराबाद वाला न्याय नहीं मांग पा रहे हों। जो भी हो अब परिवारीजन को इंसाफ़ के लिए अब दो ही रास्ते शेष रह गए हैं। या तो आरोपियों के साथ हैदराबाद हो जाए , विकास दूबे हो जाए या फिर संसद में क़ानून बना कर बलात्कारियों के लिए इस्लामिक क़ानून तय कर दिए जाएं। सीधे चौराहे पर खड़ा कर गोली मार दी जाए , या फांसी दे दी जाए। नो कोर्ट , नो सुनवाई। या फिर जैसे इन दिनों सोशल मीडिया पर चीन में माओ द्वारा एक बलात्कारी को तीन घंटे के भीतर तलाश कर गोली मार देने की कहानी चल रही है। वह तानाशाही हो जाए। हां , फिर पीड़िता के परिवारीजन को आर्थिक मदद का तिलिस्म खत्म होने का खतरा हो तो हो। मानवाधिकार के कुत्ते भौंके तो भौंके। जो भी हो , पर यह हाथरस , बलरामपुर और आजमगढ़ के फर्क का कोढ़ तो मिट ही जाना चाहिए। बहुत हुआ। बहुत हुआ चुनी हुई चुप्पी , चुने हुए विरोध की आंच में समाज में आग लगाने की रवायत। इस रवायत में आग लगा कर बलात्कारियों को गोली मार दीजिए। जो भी संगठन और उस के लोग इस आग को सुलगाने में कुसूरवार पाए जाएं , उन्हें भी गोली मार देनी चाहिए।
असल में योगी सरकार भी इस में बराबर की दोषी है। सी ए ए के दंगाइयों की फोटो वाले पोस्टर लगा कर योगी सरकार कोरोना की आड़ ले कर सो गई। अगर इन दंगाइयों से वसूली हो गई होती , इन्हें सज़ा मिल गई होती तो ऐसे अपराधियों के हाड़ कांप जाते। एक कड़ा संदेश चला गया होता। तो आए दिन यह और ऐसी वारदातें न देखने को न मिलतीं। शासन सिर्फ घोषणाओं और पोस्टरों से नहीं चलता। इकबाल और धमक से चलता है। इकबाल और धमक होता तो हाथरस पुलिस रात के अंधेरे में , परिवारीजनों की बिना सहमति के पीड़िता की चिता नहीं जलाती। इकबाल और धमक होता तो हाथरस प्रशासन इस बात से नहीं डरता कि सुबह तो पीड़िता की चिता पर रोटी सेकने वाले आ जाएंगे। आग लगाने वाले आ जाएंगे। तूफ़ान आ जाएगा। अरे जैसे आप अब हाथरस को सील कर रहे हैं , ऐसे ही सीमाएं सील कर , परिवारीजन की सहमति से दिन में चिता जलवाते। हो सकता है , कुछ बवाल होता , पर ऐसा तो नहीं ही होता। प्रशासन और सरकार की नाक बची रहती। हनक बनी रहती।
विचार करने की बात
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