एक बार एक जंगल में आग लग गई। जंगल का राजा हाथी था। सभी जानवरों ने बैठ कर मंत्रणा की और तय पाया कि अपनी जान बचाने के लिए यह जंगल छोड़ कर किसी और जंगल में शरण ले ली जाए। सो हाथी के नेतृत्व में सारे जानवर किसी दूसरे जंगल की और प्रस्थान कर गए। आगे-आगे हाथी , पीछे-पीछे बाक़ी सभी। लेकिन हाथी के आगे भी एक चूहा था। यह चूहा हाथी का सूड़ पकड़ कर आगे-आगे चल रहा था। किसी ने मजा लेने के लिए चूहे से पूछ लिया कि यह क्या है , भाई ? तो चूहे ने सीना तान कर कहा कि हाथी राजा कहीं रास्ता न भूल जाएं। सो इन को रास्ता दिखाता चल रहा हूं। पूछने वाले ने चूहे से पूछा कि अगर गलती ही से सही हाथी राजा का एक पैर भी तुम्हारे ऊपर पड़ गया तो ?
यही स्थिति कल रात 9 बजे दिया न जलाने वालों की हुई। चूहा बन कर वह बिजली के पावर का ग्रिड फेल होने से बचा रहे थे। कुछ रात से ही तो कुछ सुबह होते ही ग्रिड फेल होने से बचाने की अपनी चूहा होशियारी में अपनी पीठ ठोंकने और मोदी और दिया जलाने वालों के अंध विशवास की लानत-मलामत करने में बड़ी जोर-शोर से जुट गए। पर इन चूहों की संख्या इतनी कम है कि इन की उछल-कूद की तरफ कोई ध्यान ही नहीं दे रहा। तो यह दिया जलाने की बात को बेअसर करने के लिए पटाखे छोड़ने की बात करने पर आ गए हैं। ठीक है कि पटाखे छोड़ने की बात दुरुस्त नहीं है , ऐसे माहौल में। लेकिन इस लॉक डाऊन में भी लोगों को पटाखे दुकानों में तो मिले नहीं होंगे। घरों में भी कितने पटाखे और कितने लोग रखे रहे होंगे भला। लेकिन जाने पटाखों के शोर से यह लोग आहत हैं कि देश भर में जले जगर-मगर दीयों से आहत हैं कि कहना कुछ कठिन है। पर घायल बहुत हैं।
काश कि यह लोग यही सख्ती , यही विरोध तबलीग जमात द्वारा देश भर में कोरोना फ़ैलाने के कैरियर बनने में भी दिखाए होते। तबलीग जमात द्वारा डाक्टरों पर थूकने का विरोध करने में दिखाए होते। नर्सों के सामने तबलीग जमात के लोगों के नंगे हो कर नाचने की दबी जुबान ही सही , निंदा भी किए होते। लेकिन नहीं , उस समय तो इन कमीनों को नींद आ गई थी। जुबान और कलम को लकवा मार गया था। बीच लॉक डाऊन प्रवासी मज़दूरों की भीड़ सड़क पर देख कर , इन की बांछें खिल गई थीं कि चलो विरोध का एक अवसर तो मिला। मज़दूरों का दुःख बेचने की एक दुकान तो मिली। लेकिन तबलीग जमात का मनुष्य विरोधी रुख देखते ही इन की दुकान का शटर गिर गया। शटर खुला है , करोड़ो लोगों द्वारा अरबों दिया जलाने पर , देश की एकजुटता दिखने पर। जाने किस मिट्टी , किस हाड़ मांस के बने हैं , यह मनुष्य विरोधी लोग। विरोध का अवसर और तरीका भी नहीं जानते यह लोग।
ग़ालिब का एक किस्सा याद आता है। ग़ालिब से भी उन के समय के लोग नाराज बहुत रहते थे। खूब गालियां भी देते थे। खत लिख-लिख कर गाली देते थे। एक दिन गालियों वाला खत पढ़ते हुए अपने मित्र से ग़ालिब बोले , बताओ इन लोगों को गालियां देने भी नहीं आतीं। गाली देने का शऊर नहीं मालूम। एक खत दिखाते हुए वह बोले , बताओ यह मुझे मां की गाली लिख रहा है। क्या मिलेगा इसे मेरी मां से ? अरे देनी ही है गाली तो बेटी की देता , बहन की देता ! ठीक यही स्थिति इस समय देश में विरोध की है। कि लोग इस कोरोना की महामारी में भी विरोध की बीमारी की लाश ढो रहे हैं। विरोध का शऊर भी नहीं जानते। मृत्यु और महामारी का समय विरोध का समय नहीं होता। कोई इन बीमार बंधुओं को समझा भी दे। खुदा खैर करे !
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