ग़ज़ल
कुछ बिक गए कुछ बाक़ी हैं पर बिकने को सारे होशियार खड़े हैं
संसद मीडिया अदालत अफ़सर सब सज धज कर तैयार खड़े हैं
जंगल नदी समंदर धरती बेच चुके जाने किस मुगालते में हैं आप
आप खरीदिए राष्ट्रपति भवन यह रजिस्ट्री करने को तैयार खड़े हैं
लालीपाप आश्वासन का बांट बांट कर ज़न्नत में वह दिन काट रहे
आप का टिकट जहन्नुम का है क्यों जन्नत ख़ातिर बेकरार खड़े हैं
ठाट बाट से रहते हैं तो आंख बंद सो मुश्किल कभी नहीं दिखती
पांचों अंगुली घी में लेकिन सिर कड़ाही में तलने को तैयार खड़े हैं
आप बहुत फ़ुर्सत में दिखते अच्छा दलाल हैं फिर तो आप की चांदी
हम किसान हैं भगवान भरोसे रहने के आदी इसी लिए हैरान खड़े हैं
घुल मिल कर घाव कर रहे देश में आग लगा वह सुख सारा ताप रहे
कुत्ता बन फंडिंग चाट कर बहुत इत्मिनान से यह सारे बेईमान खड़े हैं
आत्म मुग्धता भी बहुत बेशर्म होती है बेच खाती है यह तो बड़े बड़ों को
कोई इन को यश दिला दे व्याकुल भारत बन कर बहुत परेशान खड़े हैं
[ 13 मार्च , 2016 ]
आपकी प्रत्येक रचना की प्रशंसक हूं । निवेदन है जनाब इमरान प्रतापगढ़ी पर भी कुछ लिखें आजकल YouTube पर मुशायरे में उनकी नज्में, मिसरे बहुत देखे जा रहें हैं।
ReplyDeleteसार्थक व प्रशंसनीय रचना...
ReplyDeleteमेरे ब्लॉग की नई पोस्ट पर आपका स्वागत है।