ग़ज़ल / दयानंद पांडेय
कामरेड अंतर्विरोध बहुत गहरे हैं आप के आंख मूंद पालते पोसते कैसे हैं
फ़ेसबुक गूगल अमरीकी हैं पूंजीवादी हैं फिर आप यहां उपस्थित कैसे हैं
यह अंतर्विरोध है मौकापरस्ती है हृदय परिवर्तन या कि कोरी फैशनपरस्ती
मालूम भी है फेसबुक पर आप की लफ्फाज़ी को लोग देखते भला कैसे हैं
पर आप तो अपने ही में मगरूर देखें भी भला कैसे चौहद्दी तोड़ें भी कैसे
कामरेड यह तो बताएं आप इस बंद कुएं में इतने चैन से रहते कैसे हैं
माना कि आप का बना बनाया सुचिंतित गैंग है कुतर्क के हथियारों से लैस भी
साथी कामगार तो फेसबुक पर हैं ही नहीं फिर उन को एड्रेस करते भी कैसे हैं
जो कम्यूनिस्ट नहीं है वह आदमी भी नहीं है अजब है यह फ़िलासफ़ी भी
इस फासिज़्म पर कौन न फ़िदा हो इस मासूमियत पर कुर्बान सारे सदक़े हैं
सभी विचारधारा के लोग हैं यहां संघी भी हैं ब्राह्मण भी रिएक्शनरी भी
आप तो हर किसी के साथ मंच साझा करते नहीं पर यहां करते कैसे हैं
अच्छा-अच्छा ब्लाक करते हैं लेकिन आप तो सर्वहारा के अलंबरदार ठहरे
इस भरी डेमोक्रसी में तानाशाही का बूट पहने खुले आम घूमते-फिरते कैसे हैं
छुआछूत तो ब्राह्मणों की बपौती थी यह बताने की दुकानदारी ठहरी आप की
पर अब तो छुआछूत आप का स्थाई भाव हो गया इस को मेनटेन करते कैसे हैं
घर में घंटी बजा कर आरती बाहर धर्म की ऐसी-तैसी की नौटंकी का पाखंड
कुर्बान जाऊं ऐसी मासूमियत पर इस फासिज़्म पर जां -निसार कैसे-कैसे हैं
सामाजिक परिवर्तन शोषक शोषित वर्ग संघर्ष जैसे सरोकार कब का भूल गए
जाति और धर्म का जहर घोलने के अलावा कोई और काम आप करते कैसे हैं
धर्म अफ़ीम है मार्क्स कहता है जानते मानते इस सचाई को हम सब भी हैं
कमाल यह कि धर्म की राजनीति कर मार्क्स को भी आप पानी पिलाते कैसे हैं
अच्छी लाइन
ReplyDeleteBahut badhai umda
ReplyDeletebahut sundar.
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