हिंदी गीतों का इतना बड़ा मछेरा आज के दिन तो कोई और नहीं मिलेगा !
हिंदी गीतों का ऐसा राजकुमार, ऐसा हंस दुर्लभ है
बुद्धिनाथ मिश्र से मेरी पहली मुलाक़ात फैज़ाबाद के एक कवि सम्मेलन में हुई थी । तब मैं विद्यार्थी था, बी ए में पढ़ता था । लेकिन कविता लिखने लगा था। पत्र-पत्रिकाओं में छपने लगा था । आकाशवाणी और कवि सम्मेलनों में कविता पाठ करने लगा था । कवि तो बहुत सारे थे उस कवि सम्मेलन में पर मैं सब से कम उम्र का कवि था । किशोर वय का । ठीक से मूंछें भी नहीं उगी थीं । रेख बस आई ही थी । लेकिन बुद्धिनाथ मिश्र उस कवि सम्मेलन के हीरो थे । आप कह सकते हैं की मैन ऑफ दि मैच ! उन के गीतों का जाल इतना मोहक , इतना दिलकश इतना विस्तार लिए था कि क्या कवि , क्या श्रोता सब उस के लपेटे में थे:
गूंजती गुफाओं में
पिछली सौगंध है
हर चारे में
कोई चुंबकीय गंध है
तो इस चुंबकीय गंध में हर कोई गिरफ़्तार था । तिस पर उन के कविता पाठ में उन की संकोच भरी विनम्रता तो जैसे उस चांदनी रात को सुलगा-सुलगा दे रही थी । पर वह तो गा रहे थे , ' कुमकुम-सी निखरी कुछ / भोरहरी लाज है / बंसी की डोर बहुत कांप रही आज है !' उस चांदनी रात में उन के गीतों में लोग भीग रहे थे । उन का कंठ जैसे माधुर्य बरसा रहा था । वह गीत के बंद पर बंद दुहरा रहे थे लोगों के इसरार पर , लोगों की फरमाइश पर , 'उन का मन आज हो गया / पुरइन पात है / भिंगो नहीं पाती / यह पूरी बरसात है !' उस रात चंदा के इर्द-गिर्द मेघों के घेरे तो नहीं थे पर गुनाह और मौसमी गुनाह की चांदनी जैसे इठला रही थी । और बच्चन जी की वह गीत पंक्ति जैसे साकार हो रही थी , ' इस चांदनी में सब क्षमा है !'
बताइए भला कि किसी मछली में भी बंधन की चाह हो सकती है ? किसी नागिन में भी प्रीति का उछाह हो सकता है ? आप को अगर यह अप्रत्याशित लग रहा हो तो मिलिए बुद्धिनाथ मिश्र से । वह गाते हुए बताएंगे , ' एक बार और जाल / फ़ेंक रे मछेरे !/ जाने किस मछली में बंधन की चाह हो !' सुन कर आप न सिर्फ मदमस्त हो जाएंगे बल्कि उन के मधुर कंठ और मादक मनुहार के जाल में निबद्ध पाएंगे । मैं ने बहुतेरे गीत पढ़े-सुने और गाए हैं पर इतना आशावादी गीत मेरे जीवन में अभी तक तो नहीं आया , नहीं मिला । आगे की राम जानें। आशा और विश्वास का ऐसा उच्छ्वास विरल है । ऐसा मोहक , ऐसा मादक और मनुहार में न्यस्त गीत भी मुझे अभी तक नहीं मिला । और इस की व्यंजना तो बस पूछिए मत ।
सपनों की ओस
गूंथती कुश की नोक है
हर दर्पण में
उभरा एक दिवालोक है
रेत के घरौदों में
सीप के बसेरे
इस अंधेर में
कैसे नेह का निबाह हो !
और इस नेह की बंदिशों की थाह तो देखिए भला :
कैसे दे हंस
झील के अनंत फेरे
पग-पग पर लहरें
जब बांध रही छांह हों !
बताइए कि हंस इस लिए झील के अनंत फेरे नहीं लगा पा रहा कि लहरें उस की छांह बांध-बांध ले रही हैं । प्रेम और कि जीवन में भी यह असमंजस की इबारत इतने ताप और इतने जतन के साथ बुद्धिनाथ ही बांच सकते हैं ।
सो उस रोज कवि सम्मेलन समाप्त होने पर इसी ताप और और इसी जतन को मन में बांध कर मैं उन से बहुत भाव-विह्वल हो कर मिला । और वह भी बड़े भाई की उसी परवाह और उसी स्नेह में बंध कर धधा कर ही मिले । ऐसे जैसे वह मुझे जाने कब से जानते हैं । उन्हों ने बनारस का अपने घर का पता लिख कर दिया और कहा कि बनारस कभी आना तो मिलना ज़रूर । यह भी बताया कि वह आज अखबार में काम करते हैं । और भी औपचारिक बातें हुईं । खैर दूसरी सुबह जब मैं वापस गोरखपुर लौट रहा था तो पाया कि मैं बुद्धिनाथ मिश्र के जाल में पूरी तरह लिपट चुका हूं । उन का मछेरा मुझे अपने बंधन में बांध चुका है । उन का यह गीत अब मेरा ओढ़ना-बिछौना बन चुका था । जब-तब, जिस-तिस को यह सुनाता घूमता रहता। इस लिए भी कि :
कैसे दे हंस
झील के अनंत फेरे
पग-पग पर लहरें
जब बांध रही छांह हों !
वह इन लहरों की ही तरह मन को बांध लेते थे । मन के हंस का उन के गीत के बिना उड़ना हो ही नहीं पाता था । वह इमरजेंसी के दिन थे और हम ने उन के इस प्रेम गीत के इस वंद को इमरजेंसी के
अर्थ में भी बांचा । गो कि यह गीत 1971 का लिखा हुआ है और 1972 में धर्मयुग
में छपा था , यह बात बहुत समय बाद बुद्धिनाथ जी ने ही एक बार बताई । तो भी
यह गीत इस कदर सर्वकालिक और कालजयी बन जाएगा यह बात तब कोई नहीं जानता था ।
बहरहाल तब इस गीत का नशा ताज़ा-ताज़ा था , खुमारी तो आज भी तारी है । कभी
उतरेगी भी , लगता नहीं है । मैं तो आज भी बुद्धिनाथ जी के गीत उन के स्वर
में सी डी में सुनता हूं, घर में, रास्ते में । सुनता हूं , गुनगुनाता हूं ,
गाता हूं । आप कभी लांग ड्राइव पर हों और बुद्धिनाथ जी के गीत उन के स्वर में सुनें । सफ़र सुहाना हो जाएगा। बहुत पहले
वीनस ने उन का कैसेट जारी किया था । तब कैसेट पर उन्हें सुनता था । अब
कैसेट का ज़माना गुज़र गया तो उस कैसेट को सी डी में कनवर्ट करवाया । उस की
कॉपी बनवा कर तमाम मित्रों को भी दिया है । बुद्धिनाथ जी के गीतों की तासीर
में , उन के गीतों के प्रेम पाग में , उस की मादकता में , उस के जाल में
सभी लिपट जाते हैं । बुद्धिनाथ जी के स्वर में जो ठहराव है , गहराई है , उन के गीतों
में जो लास्य है, मिठास है , वह सब को भा जाता है और बुद्धिनाथ का मछेरा उन्हें अपने
जाल में , जाल के बंधन में ले लेता है । यह उन के गीतों के नेह की बंदिश भर
नहीं है , उन के गीतों के चारे में समाई चुंबकीय गंध भी है । श्रोता तो श्रोता, कवियों के बीच भी वह ही सुने जाने की पहली पसंद मान लिए जाते हैं । शायद इसी लिए बुद्धिनाथ जी के गीतों ने मेरा साथ नहीं छोड़ा कभी भी। अब क्या साथ छोड़ेंगे भला ! उन का मछेरा अपने गीतों के जाल में , उस के बंधन में रहने के लिए आकुल-व्याकुल बनाता रहता है । मुझ जैसे उन के प्रशंसक के मन में बंधन की यह चाह हमेशा मन में मिठास घोलती रहती है । यह मिठास जाती ही नहीं , और गहरे मन में पैठ बनाती जाती है । इस लिए भी कि हिंदी गीतों का इतना बड़ा मछेरा आज के दिन तो कोई और नहीं मिलेगा ! हिंदी गीतों का ऐसा राजकुमार , ऐसा हंस दुर्लभ है ।
बुद्धिनाथ मिश्र और मैं |
तो बात शुरुआती दिनों की हो रही थी । बहरहाल मैं तब बनारस तुरंत तो नहीं गया पर जल्दी ही बुद्धिनाथ जी गोरखपुर आए । आकाशवाणी के एक कवि सम्मेलन में । अपने समूचे विनय में लिपटे खड़े वह सुना रहे थे :
ये तुम्हारी कोंपलों-सी नर्म बाहें
और मेरे गुलमुहर के दिन ।
आज कुछ अनहोनियां कर के रहेंगे
प्यार के ये मनचले पल-छिन !
मंदिर में बज रही घंटियों सा उन का मधुर कंठ इस प्रेम गीत को क्या बांच रहा था , जाने कितने प्रेमियों को प्यार की छांव में दुलरा रहा था :
बांधता जब विंध्य सर पर लाल पगड़ी
वारुणी देता नदी में घोल
धुंध के मारे हुए दिनमान को तब
चाहिए दो-चार मीठे बोल
खेत की सरसो हमारे नाम भेजे
रोज पीली चिट्ठियां अनगिन ।
यह गीत सुन कर हमारा एक दोस्त इतना विह्वल हुआ कि अपनी महबूबा को पीले कागज़ पर ही चिट्ठियां लिखने लगा । हां लेकिन हम या हमारे जैसे और भी मित्र , ' एक बौराया हुआ मन , चंद भूलें / और गदराया हुआ यौवन / घेर कर इन मोह की विज्ञप्तियों से / करते हम मृत्यु को जीवन ।' में ही डूबे रहे । बुद्धिनाथ जी को बताना यहां बहुत ज़रूरी है कि उन के गीतों की छांह में तब जाने कितनी प्रेम की नदियां बहती थीं , आज भी बहती हैं , बहती रहेंगी । अब यह अलग बात है कि इन में से कितनी प्रेम नदियों को सागर नसीब हुआ , कितनी को नहीं पर यह ज़रूर है कि , ' बौर की खुशबू हवा में लड़खड़ाए / चरमरायें बंदिशें पल में / क्यों न आओ , हम गिनें , मिल कर लहरियां / फ़ेंक कंकड़ झील के जल में / गुनगुना कर 'गीत गोविंदम ' अधर पर / ज़िंदगी का हम चुकाएं रिन । ' गुनगुना कर यह ऋण बहुतों ने चुकाए हैं , चुकाते रहेंगे । अब यह अलग बात है कि उन दिनों मैं ने इस गीत का एक पैरोडी भी मज़ा लेने की गरज से लिखा था, ' ये तुम्हारी भट्ठियों सी गर्म बाहें/ और मेरे खटमलों से दिन !' और गाता गजगामिनी टाइप कन्याओं को संबोधित करने के लिए । दोस्त लोग खूब मज़े लेते । और हम भी । लेकिन सच यह है कि बुद्धिनाथ जी के गीतों की , उन के गीतों में प्रेम की पुण्य सलिला की सुलगन की जो शिद्दत है न वह सर्दियों के दिनों में बिलकुल तड़के किसी नदी से उठते भाप की मानिंद है ! और वह भाप भी किसी कोहरे से जा कर धीरे से मिल कर एकमेव हो जाए । कि किसी को पता ही नहीं चले । बिलकुल वही छुवन , वही सिहरन और वही पुलक बुद्धिनाथ मिश्र अपने गीतों में बोते मिलते हैं । अनायास । आप खुद देखिए न एक बार और ज़रा हौले से :
चांद , ज़रा धीरे उगना ।
गोरा-गोरा रूप मेरा।
झलके न चाँदनी में
चांद , ज़रा धीरे उगना ।
भूल आई हंसिया मैं गांव के सिवाने
चोरी-चोरी आई यहां उसी के बहाने
पिंजरे में डरा-डरा
प्रान का है सुगना ।
चांद , ज़रा धीरे उगना ।
कभी है असाढ़ और कभी अगहन-सा
मेरा चितचोर है उसांस की छुअन-सा
गहुंवन जैसे यह
सांझ का सरकना ।
चांद , ज़रा धीरे उगना ।
जानी-सुनी आहट
उठी है मेरे मन में
उठी है मेरे मन में
चुपके-से आया है ज़रूर कोई वन में
मुझ को सिखा दे ज़रा
सारी रात जगना ।
चांद , ज़रा धीरे उगना ।
और देखिए कि मेरे मन में भी एक चांद उगा और साध जगी कि एक कविता संग्रह छपवाया जाए । पर लोगों ने कहा कि कम से कम सौ पेज की किताब तो होनी ही चाहिए। अब उतनी
कविताएं तो थीं नहीं। पर किताब की उतावली थी कि मारे जा रही थी। उन्हीं
दिनों लाइब्रेरी में तार सप्तक हाथ आ गई। लगा जैसे जादू की छड़ी हाथ आ गई
है। अब क्या था, दिल बल्लियों उछल गया। साथ के अपनी ही तरह नवोधा कवि
मित्रों से चर्चा की। पता चला कि सब के सब कविता की किताब के लिए छटपटा रहे
हैं। सब की छटपटाहट और ताप एक हुई और तय हुआ कि सात कवियों का एक संग्रह
तैयार किया जाए। सब ने अपनी-अपनी कविताएं लिख कर इकट्ठी की और एक और सप्तक
तैयार हो गया। मान लिया हम लोगों ने कि यह सप्तक भी तहलका मचा कर रहेगा। अब
दूसरी चिंता थी कि इस कविता संग्रह को छपवाया कैसे जाए? तरह-तरह की
योजनाएं बनीं-बिगडीं। अंतत: तय हुआ कि किसी प्रतिष्ठित और बडे लेखक से इस
की भूमिका लिखवाई जाए। फिर तो कोई भी प्रकाशक छाप देगा। और जो नहीं छापेगा
तो जैसे सात लोगों ने कविता इकट्ठी की है, चंदा भी इकट्ठा करेंगे और चाहे
जैसे हो छाप तो लेंगे ही। इम्तहान सामने था पर कविता संग्रह सिर पर था।
किसी बैताल की मानिंद। अंतत: बातचीत और तमाम मंथन के बाद एक नाम तय हुआ
आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का। भूमिका लिखने के लिए।
खैर, तय हुआ कि इम्तहान खत्म होते ही बनारस कूच किया जाए मय पांडुलिपि के।
और आचार्य से मिल कर भूमिका लिखवाई जाए। फिर तो कौन रोक सकता है अब प्यार
करने से! की तर्ज पर मान लिया गया कि कौन रोक सकता है अब किताब छपने से !
इम्तहान खत्म हुआ। गरमियों की छुट्टियां आ गईं। स्टूडेंट कनसेशन के कागज
बनवाए गए। और काशी कूच कर गए दो लोग। एक मैं और एक रामकृष्ण विनायक
सहस्रबुद्धे। सहस्रबुद्धे के साथ सहूलियत यह थी कि एक तो उस के पिता रेलवे
में थे, दूसरे उस का घर भी था बनारस में। सो उस को तो टिकट भी नहीं लेना
था। और रहने-भोजन की व्यवस्था की चिंता भी नहीं थी। मेरे पास सहूलियत यह थी
कि बुद्धिनाथ मिश्र से जान-पहचान हो ही गई
थी। उन्हों ने अपने घर काली मंदिर का पता भी दिया था। वह आज अखबार में भी
थे। सो मान लिया गया कि वह आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी से मिलवा देंगे।
बनारस पहुंचे तो नहा खा कर आज अखबार पहुंचे। पता चला कि बुद्धिनाथ जी तो
शाम को आएंगे। उन के घर काली मंदिर पहुंचे। वह वहां भी नहीं मिले। कहीं
निकल गए थे। शाम को फिर पहुंचे आज। बुद्धिनाथ जी मिले। उन से अपनी मंशा और
योजना बताई। वह हमारी नादानी पर मंद-मंद मुसकुराए। और समझाया कि, 'इतनी
जल्दबाज़ी क्या है किताब के लिए?' मैं ने उन की इस सलाह पर पानी डाला और
कहा कि, 'यह सब छोडिए और आप तो बस हमें मिलवा दीजिए।' वह बोले कि, 'अभी तो
आज मैं एक कवि सम्मेलन में बाहर जा रहा हूं। कल लौटूंगा। और कल ही अभिमन्यु
लाइब्रेरी में शाम को आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के तैल चित्र का
अनावरण है। आचार्य जी ही करेंगे। वहीं आ जाना, मिलवा दूंगा। पर वह भूमिका
इस आसानी से लिख देंगे, मुझे नहीं लगता।' मैं ने छाती फुलाई और कहा कि, 'वह
जब कविताएं देखेंगे तो अपने को रोक नहीं पाएंगे।' बुद्धिनाथ जी फिर
मंद-मंद मुसकुराए। और बोले, 'ठीक है तब।' और तभी श्यामनारायन पांडेय आ गए
उन्हें लेने। वह चले गए।
दूसरे दिन शाम को पहुंच गए अभिमन्यु लाइब्रेरी। बुद्धिनाथ जी ने उन से मिलवाया भी । आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी से मिलने के बाबत बहुत समय पहले विस्तार से लिख चुका हूं । खैर लौट आया वापस गोरखपुर । वह किताब तो नहीं ही छपी । उस की अलग कहानी है । खैर जब आज अखबार गोरखपुर से लांच हुआ तो बुद्धिनाथ जी भी गोरखपुर आ गए लांचिंग टीम में । उन्हीं दिनों एक बड़ा कवि सम्मेलन हुआ गोरखपुर में । स्टेट बैंक ने आयोजित किया था । नीरज , सोम ठाकुर , भारत भूषण जैसे गीतकार आए थे । लेकिन उस कवि सम्मलेन में भी हमारे हीरो तो बुद्धिनाथ जी ही थे । बाद के दिनों में धीरे-धीरे कवि सम्मलेन में भड़ैती और गलेबाज़ी से आजिज़ आ कर पहले कवि सम्मेलन और फिर कविता से भी मैं दूर होता गया । जल्दी ही बुद्धिनाथ जी वापस बनारस लौट गए । फिर पता चला कि वह आज की नौकरी छोड़ कर कोलकाता चले गए यूको बैंक में । और यह देखिए अब उन के गीत के स्वर भी बदलने लगे :
सड़कों पर शीशे की किरचें हैं
और नंगे पाँव हमें चलना है
सरकस के बाघ की तरह हम को
लपटों के बीच से निकलना है ।
वह लिखने लगे थे :
आज सब कुछ है मगर हासिल नहीं
हर थकन के बाद मीठी नींद अब
हर कदम पर बोलियों की बेड़ियाँ
ज़िंदगी घुड़दौड़ की मानिंद अब
आंख में आंसू नहीं काजल नहीं
होठ पर दिखती न वह मुस्कान भी।
कई बार क्या होता है कि समय , शहर और संयोग भी आप के लिखने में आप के साथ हो लेते हैं । रचना उसी रंग में उतरने और बसने लगती है । अब देखिए न कि बुद्धिनाथ जी भी इस से अलग नहीं हैं । वह लिखने लगे :
फिर हिमालय की अटारी पर
उतर आए हैं परेवा मेघ
हंस-जैसे श्वेत
भींगे पंख वाले।
दूर पर्वत पार से मुझ को
है बुलाता-सा पहाड़ी राग
गरम रखने के लिए बाकी
रह गई बस कांगड़ी की आग
ओढ़ कर बैठे सभी ऊंचे शिखर
बहुत महंगी धूप के ऊनी दुशाले।
मौत का आतंक फैलाती हवा
दे गई दस्तक किवाड़ों पर
वे जिन्हें था प्यार झरनों से
अब नहीं दिखते पहाड़ों पर
रात कैसी सरद बीती है
कह रहे किस्से सभी सूने शिवाले।
कभी दावानल, कभी हिमपात
पड़ गया नीला वनों का रंग
दब गये उन लड़कियों के गीत
चिप्पियोंवाली छतों के संग
लोक रंगों में खिले सब फूल
बन गये खूंखार पशुओं के निवाले।
हिमालय की अटारी पर मतलब अब वह देहरादून आ गए हैं । ओ एन जी सी में । और अब तो वह अवकाश प्राप्त कर देहरादून में ही बस गए हैं । लेकिन अपनी माटी मैथिल को उन्हों ने नहीं छोड़ा है । घूम फिर कर वह वहीं पहुंच जाते हैं । अपने गांव देवधा के नाम पर ही उन्हों ने अपने देहरादून वाले घर का नाम रखा है । हिंदी में बहुत कम ऐसे रचनाकार हैं जो हिंदी के साथ-साथ अपनी मातृभाषा में भी निरंतर रचते रहें । बुद्धिनाथ जी इन्हीं थोड़े से लोगों में से एक हैं । वास्तव में बुद्धिनाथ जी के गीतों की ताकत भी मैथिल ही है । एक तो मैथिल उन की मातृभाषा दूसरे , संस्कृत , हिंदी और अंगरेजी का उन का विशद अध्ययन का जो संगम बनता है उन के गीतों में वह सोता बन कर फूट पड़ता है । तिस पर काशी में उन का वास सोने पर सुहागा वाली बात कर देता है । और फिर उन की घुमक्क्ड़ी उन्हें और उन के गीतों को जो परवाज़ दे देती है फिर तो क्या कहने ! इसी लिए गीत में उन की संभावना का जाल इतना उदात्त और इतना धीरोदात्त बन जाता है । शिव तत्व तो उन के गीतों में बारंबार आता ही है , कृष्ण तत्व भी अनायास ही उपस्थित हो जाता है :
मैं तो थी बंसरी अजानी
अर्पित इन अधरों की देहरी ।
तेरी सांसें गूंजी मुझ में
मैं हो गई अमर स्वर लहरी ।
यह कृष्ण तत्व कई बार मीरा के भाव को छूता मिलता है और अनूठा हो जाता है :
जाने क्या तुझ में आकर्षण
मेरा सब कुछ हुआ पराया
पहले नेह-फूल-सा मन
फिर पके पान-सी-कंचन काया
पुलकित मैं नैवेद्य बन गई
रोम-रोम हो गया अर्घ्य है
नयन-नयन आरती दीप हैं
आंचल - आंचल गंगा-लहरी ।
मैं तेरी संगिनी सदा की
सखी हैं यमुना-वृंदावन
यह द्वारिका नहीं जो पूछे
कौन बड़ा है - घन या सावन ?
पल दो पल का नहीं , हमारा
संग-साथ है जनम - जनम का
तू जो है बावरा अहेरी
तो मैं भी बंजारन ठहरी ।
बुद्धिनाथ के गीतों में रोमांस ही नहीं है बल्कि रोमांस का एक भरा-पूरा समूचा गांव है । अनूठी उपमा और विरल व्यंजना के साथ उन के गीतों के गांव में प्रेम की नदी भी है, प्रेम का वह पीपल भी है , बरगद भी और छांह पाने के लिए, सुस्ताने के लिए , ठांव पाने के लिए वह मड़ई भी है जिस की कि प्रेम में बहुत दरकार होती है :
तुम बदले , संबोधन बदले
लेकिन मन की बात वही है ।
जाने क्यों मौसम के पीछे
दिन बदले , पर रात वही है ।
नस -नस में प्रेम का पारा भरते हुए वह लिखते हैं :
जितना पुण्य किया था, पाया
साथ तुम्हारा उतने दिन का
तुम बिछड़े थे जहां , वहीं से
पंथ मुड़ गया चंदन वन का
सब कुछ बदले , पर अपने संग
यादों की बारात वही है ।
उन के गीतों में यह यादों की बारात का ही सुफल है कि , ' जलता रहता सारी रात एक आस में / मेरे आंगन का आकाशदीप । ' उन्हें गाना पड़ता है । और जाने कितने अंतर्विरोध झेल कर नदी के कछार पर संधिपत्र भी लिखने पड़ते हैं । मोह के दीप से वह फिर भी निकल नहीं पाते , ' एक अकेली राधा सांवरी / इतने सारे बंधन गांव के / मन तो मिलने को आतुर हुआ / बरज रहे पर बिछुए पांव के । ' और वह कह पड़ते हैं , ' प्यास हरे, कोई गहन बरसे / तुम बरसो या सावन बरसे ।' क्यों कि , ' मैं ने जीवन भर बैराग जिया है / सच है / लेकिन तुम से प्यार किया है/ सच है ।' तभी तो बुद्धिनाथ यह भी लिख पाते हैं :
धान जब भी फूटता है गांव में
एक बच्चा दुधमुंहा
किलकारियां भरता हुआ
आ लिपट जाता हमारे पांव में ।
बुद्धिनाथ के गीतों में यह धान का फूटना , यह दुधमुंहा बच्चे का पांव से लिपटना, अपनी माटी से लिपटने का यत्न है , मनोरथ है , कुछ और नहीं । और यह गीत भी उसी का विस्तार है :
सुन्नर बाभिन बंजर जोते
इन्नर राजा हो !
आँगन-आँगन छौना लोटे
इन्नर राजा हो !
कितनी बार भगत गुहराए
देवी का चौरा
भरी जवानी जरई सूखे
इन्नर राजा हो !
इन्नर राजा हो !
आँगन-आँगन छौना लोटे
इन्नर राजा हो !
कितनी बार भगत गुहराए
देवी का चौरा
भरी जवानी जरई सूखे
इन्नर राजा हो !
बुद्धिनाथ के यहां समस्याओं का विस्तार भी है और उस पर निरंतर चोट भी :
पहले तुम था, आप हुआ फिर
अब हो गया हुजूर।
पीछे-पीछे चलते-चलते
निकला कितना दूर।
अब हो गया हुजूर।
पीछे-पीछे चलते-चलते
निकला कितना दूर।
कद छोटा है, कुर्सी ऊँची
डैने बड़े-बड़े
डैने बड़े-बड़े
एक महल के लिए न जाने
कितने घर उजड़े
कितने घर उजड़े
लोग हीरा ढूंढने जाते और कोयला ले कर लौटते हैं । लेकिन बुद्धिनाथ मिश्र कोयले में भी हीरा तलाश लेते हैं । और इस तलाश को जब वह अपने गीतों में रुंधते और गूंथते हैं तो वह मादक , मोहक , और दिलकश बन जाता है । फिर वह गीत जब उन की कलम से संवर-निखर कर उन के कंठ में उतरता है तो गीत की वह सुगंध जैसे हमारे मन में बसेरा बना लेती है , बस जाती है जैसे आंगन में धूप , जैसे छत पर चांदनी । उन के गीतों की आग पलाश वन की तरह धधकती है । कचनार की तरह टूट कर कसकती है । उन के प्रेम पाग गीतों की गमक इस कदर है कि उन के जनाकांक्षी गीतों की टेर ज़रा दब जाती है । जब कि उन के इन गीतों में गुस्सा , प्रतिरोध अपने पूरे हस्तक्षेप के साथ अपनी मारक क्षमता में भी भरपूर उपस्थित है । लगता ही नहीं कि प्रेम गीत गाने वाला वही बुद्धिनाथ जो इस तरह व्यवस्था पर भी इतनी ताकत के साथ हमलावर हो सकता है । इतना कि कई बार मेरे जैसे लोगों को कोई राजनीतिक टिप्पणी भी लिखने के लिए उन की इन कविताओं की दरकार अकसर पड़ती रहती है । प्रेम के कोमल और संस्पर्शी गीत लिखने वाला कवि इस ठाट के साथ , इस धार और प्रहार के साथ व्यवस्था को खौला भी सकता है भला ? सोच कर ही मुश्किल होती है । लेकिन वह तो लिखते हैं :
ऊपर ऊपर लाल मछलियां
नीचे ग्राह बसे।
राजा के पोखर में है
पानी की थाह किसे।
जल कर राख हुईं पद्मिनियां
दिखा दिया जौहर
काश कि वे भी डट जातीं
लक्ष्मीबाई बन कर
लहूलुहान पड़ी जनता की
है परवाह किसे।
बुद्धिनाथ अपने गीतों में सिर्फ़ व्यवस्था के पानी की थाह ही नहीं लेते बल्कि उस की नब्ज़ नब्ज़ भी टटोलते चलते हैं :
अपराधों के ज़िला बुलेटिन
हुए सभी अख़बार
सत्यकथाएं पढ़ते-सुनते
देश हुआ बीमार ।
पत्रकार की क़लमें अब
फ़ौलादी कहां रहीं
अलख जगानेवाली आज
मुनादी कहां रही ?
मात कर रहे टी० वी० चैनल
अब मछली बाज़ार ।
इस लिए भी कि बुद्धिनाथ जानते हैं :
बिजली नहीं, पानी नहीं
केवल यहां सरकार है।
इस राज की सानी नहीं
केवल यहां सरकार है।
यह भूमि है देवत्व की
अजरत्व की, अमरत्व की
कर्ता नहीं, ज्ञानी नहीं
केवल यहां सरकार है।
उन के गीतों में कई बार यह चीख़ चीत्कार बन कर उपस्थित मिलती है :
स्तब्ध हैं कोयल कि उन के स्वर
जन्मना कलरव नहीं होंगे ।
वक़्त अपना या पराया हो
शब्द ये उत्सव नहीं होंगे ।
गले लिपटा अधमरा यह साँप
नाम जिस पर है लिखा गणतंत्र
ढो सकेगा कब तलक यह देश
जब कि सब हैं सर्वतंत्र स्वतंत्र
इस अवध के भाग्य में राजा
अब कभी राघव नहीं होंगे ।
बुद्धिनाथ के गीतों में कई बार यह चीख़ , पड़ताल बन कर भी विचरती मिलती हैऔर मन को भिगोती मिलती है :
किस के-किस के नाम
दीप लहरों पर भेजूं
- टूटे-बिखरे शीशे
कितने चित्र सहेजूं
जिस ने चंदा बनने का
- एहसास कराया
बादल बन कर वही भिगोया।
उन का यह भीगना-भिगोना कई बार आर्तनाद में विगलित मिलता है :
देख गोबरधन वर्दी कुर्सी
कपड़ों का सम्मान
और जोर से चिल्ला-
अपना भारत देश महान।
क्या है तेरे पास, कलम का
क्या है यहां वजूद ?
काला अक्षर देख, सभी हैं
लेते आंखें मूँद
इस से अच्छा तबला, घुंघरू
खेलों का मैदान
जिन के आगे दांत निपोरे
पद्मश्री श्रीमान्।
बहुत विस्तार से लिखा बुद्धिनाथ जी के बारे में। अच्छा लगा पढकर।
ReplyDeleteitani gahan janakari ,itani sashakt pakad aur itane sarthk shabd ----vakai vrihad vimb------NAMAN-------"AJAYKUMAR MISHRA "AJAYSHREE"
ReplyDeletekhub jankari mili dhanyvad
ReplyDeleteआपकी अप्रतिम लेखनी और बुद्धिनाथ जी का उत्कृष्ट व्यक्तित्व दोनों का सामन्जस्य अनूठा है। आपने बुद्धिनाथ जी का चित्र बहुत बारीकी से उकेरा है। बुद्धिनाथ जी हिंदी साहित्य जगत के सूर्य है। उनके गीतोँ की आभा से ये धरा आलोकित है।
ReplyDeleteआपकी अप्रतिम लेखनी और बुद्धिनाथ जी का उत्कृष्ट व्यक्तित्व दोनों का सामंजस्य अत्यंत अनूठा है।आपने बुद्धिनाथ जी के चित्र को बहुत बारीकी से उकेरा है।
ReplyDeleteबुद्धिनाथ जी के ग्गेटों को चाहे कितनी बार पढ़ ले ,मन नगी भरता।।अत्यंत आशावादी गीत....एक बार और जाल फेंक रे मछेरे......
सम्पूर्ण तो नहीं कह सकते, पर आ. डा. बुद्धिनाथ जी के व्यक्तित्व और कृतित्व को बहुत गहराई और विस्तार से समेटा गया है इस आलेख में. सचमुच बहुत स्तरीय और रोचक आलेख है ये. पढ़ कर आनन्द आ गया.
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