पवन कुमार की ग़ज़लों में जो सादगी , सलोनापन और सलाहियत है वो हमें ज़िंदगी के शोर से एक नामुमकिन सी मुक्ति देती मिलती है । इन ग़ज़लों की कहन में जो तड़प , जो तेवर , जो तंज और जो तग़ाफ़ुल है वह नसों को तड़का-तड़का देती है । एक खामोश चीख को जैसे ज़ुबान परोसती चलती हैं पवन कुमार की ग़ज़लें । एक आह , एक सिलवट , एक बेज़ुबानी जैसे धड़कती हुई सी दिलो-दिमाग में पसर कर घर बनाती ये गज़लें जैसे कोई एक क़िला तामीर कर देती हैं कि लो पढ़ो और बचो इन तनाव के तंबुओं से , निजात लो इन घबराहटों और झंझावातों से । पवन कुमार की इन ग़ज़लों के आंचल में , इन ग़ज़लों की गोद में , इन ग़ज़लों की पलकों में इत्मीनान की वह धरती और वह आसमान इस आसानी से विस्तार लेता जाता है कि आप बहुत मुतमइन हो कर अपने आप को इन के हवाले कर देते हैं । पवन कुमार के शेर, आप के शेर बन कर आप की जुबान पर अपना रास्ता तय करते मिलते हैं । लगता है यह बात पवन कुमार की ही नहीं आप की अपनी भी है । यह दुःख , यह ज़ज़्बात , यह टीस और चुभन जो फरियाद बन कर पवन कुमार के शेरों में उपस्थित मिलती है, वह तो इस घबराई और सताई हुई दुनिया के हर किसी शख्स की है । स्पीचलेस को स्पीच देना भी कह सकते हैं । पवन कुमार की ग़ज़लों की एक खासियत यह भी है कि तमाम मुश्किलों और झंझावातों के बावजूद उन के यहां एक उम्मीद की लौ निरंतर जलती , सुलगती और रोशनी देती मिलती है :
यूँ तो हर पल इन्हें भिगोना ठीक नहीं
फिर भी आँख का बंजर होना ठीक नहीं
हर आँसू की अपनी कीमत होती है
छोटी-छोटी बात पे रोना ठीक नहीं
बेहतर कल की आस में जीने की ख़ातिर
अच्छे ख़ासे आज को खोना ठीक नहीं
और जब इसी ग़ज़ल में वह यह भी लिखते हैं तो बात बोल पड़ती है , भेद खुल जाता है अनायास ही :
मुख़्तारी तो ऐसे भी दिख जाती है
आंगन में बंदूकें बोना ठीक नहीं
दिये के जैसी रोशन तेरी आँखें हैं
फस्ले-आब को इनमें बोना ठीक नहीं
पवन कुमार की ग़ज़लों में मुफलिसी और मुंसिफ़ी की जो इबारत एक साथ मिलती है वह न सिर्फ़ सामाजिक तकलीफों और उन की सचाई से रूबरू करवाती है बल्कि मुसलसल एक गुस्सा भी दर्ज करती मिलती है । वह गुस्सा जो कई सारे हलकों में फूट रहा है । न सिर्फ फूट रहा है बल्कि कैंसर की तरह फैल रहा है और वही दर्द , वही चुभन , वही संशय भी उपस्थित कर रहा है जो किसी भी कैंसर में लाजमी होता है ।
हमसे न पूछ यार यहाँ हाल-ए-मुंसिफी
अच्छे नहीं है अपने ख़यालात क्या कहें
दो-तीन रोटियों के सवाली थे आठ-दस
सहरा में चार बूंद की बरसात, क्या कहें
लेकिन उम्मीद की एक खामख्याली भी जैसे कि एक सामान्य आदमी की तबीयत में पानी की तरह समाई हुई होती है वह पवन की ग़ज़लों में भी समाई हुई साफ दीखती है ।
सुना है फिर नया सूरज उगेगा
यही इक रात बस काँटों भरी है
ऐसे भी दोस्त हैं कि जो मुश्किल के दौर में
सच्चाईयों से आँख मिलाना सिखा गए
जिस रोज़ जी में ठान लिया, जीत जायेंगे
यूँ तो हज़ार मर्तबा हम मात खा गए
रहें महरूम रोटी से उगायें उम्र भर फस्लें
मज़ाक ऐसा भी होता है किसानों के पसीने से
इक तुम ही मेरे मोहसिन बदले हुए नहीं हो
जब से निज़ाम बदला बदली हुई हवा है
पवन कुमार की ग़ज़लों की आब इस बात में भी है कि :
कुछ लतीफों को सुनते सुनाते हुए
उम्र गुजरेगी हंसते हंसाते हुए
जिंदगी क्या है क्यों है पता ही नहीं
उम्र गुजरी मगर सर खपाते हुए
याद आती रहीं चंद नदियाँ हमें
कुछ पहाड़ों में रस्ते बनाते हुए
गुज़ारी ज़िन्दगी हमने भी अपनी इस करीने से
पियाला सामने रखकर किया परहेज पीने से
अजब ये दौर है लगते हैं दुश्मन दोस्तों जैसे
कि लहरें भी मुसलसल रब्त रखती हैं सफ़ीने से
न पूछो कैसे हमने हिज्र की रातें गुज़ारी हैं
गिरे हैं आँख से आँसू उठा है दर्द सीने से
यहां हर शख़्स बेशक भीड़ का हिस्सा ही लगता है
मगर इस भीड़ में कुछ लोग हैं अब भी नगीने से
लेकिन जीवन की जो फांस है , जो मन में बंधी किरचे हैं , जो बनते - बिगड़ते ख़्वाब हैं , दिन के बदलने और उस के साथ ही बदलते हालत हैं उन की दास्तानगोई भी , उन की तरतीब का सिलसिला भी बहुत दिलचस्प है । बल खाती नदियों की तरह कभी मुड़ - मुड़ कर तो कभी आड़ी - तिरछी । पर नदियों सी रवानी लिए पवन कुमार के शेर बोलते बहुत हैं ।
मैं हूँ मुश्किल में, याद करते ही
दोस्त बदले हैं दिन बदलते ही
कोरों-कोरों में कांच चुभते हैं
ख़्वाब टूटे हैं आँख खुलते ही
पवन कुमार की ग़ज़लों का रंग सर्वदा एक सा नहीं होता । गोया ग़ज़ल न हों पानी हों । कि जैसा मिजाज देखा उसी में ढल जाए । पुराने समय की यह दस्तक और खारे पानी को भी मीठा बना लेने की ललक में सराबोर नई आंखों के ख़्वाब पवन की ग़ज़लों में भी जब बस जाते हैं तो समय की दीवार पर लिखी चटक इबारत बन कर उपस्थित हो जाते हैं ।
पकती उम्रों को ये एहसास दिलाने होंगे
नई आँखों में नए ख़्वाब सजाने होंगे
खारा पानी है सो आओ इसे मीठा कर लें
अब तो दरिया में समन्दर भी बहाने होंगे
वक्त मुश्किल हो तो ये सोच के चुप रहता हूँ
कुछ ही लम्हों में ये लम्हे भी पुराने होंगे
पवन कुमार के यहां रिश्ते , रिश्ते की बुनावट और इन की तफ़सील इस तरह उपस्थित होते हैं जैसे आंख में कोई तिनका पड़ जाए और आप बेचैन हो जाएं ।
जरा सी चोट को महसूस करके टूट जाते हैं
सलामत आईने रहते हैं चेहरे टूट जाते हैं
पनपते हैं यहाँ रिश्ते हिजाबों एहतियातों में
बहुत बेबाक होते हैं तो रिश्ते टूट जाते हैं
यही इक आखिरी सच है जो हर रिश्ते पे चस्पां है
ज़रूरत के समय अक्सर भरोसे टूट जाते हैं
गुज़ारिश अब बुजुर्गों से यही करना मुनासिब है
जियादा हों जो उम्मीदें तो बच्चे टूट जाते हैं
पवन कुमार की गज़लें प्रेम से भी वाबस्ता मिलती हैं । ऐसे जैसे आंख में काजल , जैसे सांस में धड़कन , जैसे बिस्तर पर सिलवट , जैसे फूल पर तितली। जैसे गरम तावे पर पानी की बूंद गिरे और छन्न से बोल जाए । प्रेम में कसमसाहट और उस की जद्दोजहद का ज़र्ब भी आकुलता मिलता है पवन कुमार की तबीयत में । वह प्रेम की छटपटाहट को इस तड़प के साथ दर्ज करते हैं गोया उन के प्रेम की नदी में बाढ़ आई हुई हो और वह उस बाढ़ में डूब गए हों ।
तुम्हें पाने की धुन इस दिल को यूँ अक्सर सताती है
बंधी मुट्ठी में जैसे कोई तितली फड़फड़ाती है
कबीलों की रिवायत, बंदिशें, तफरीक नस्लों की
मुहब्बत इन झमेलों में पड़े तो हार जाती है
प्रेम के चित्र भी पवन के यहां कैसे-कैसे मिलते हैं । ज़रा गौर करें :
हमारे दोस्तों के खेलने को
हमारा दिल भी चौसर हो गया है
बिना मकसद सहर से शाम करना
यही अपना मुकद्दर हो गया है
ख़लाओं में उतरना चाहता हूँ
बहुत दिलकश ये मंजर हो गया है
वह यहीं नहीं ठहरते :
मुझे भी ख़्वाब होना था उसी का
मेरी किस्मत कि वो सोया नहीं है
न जाने उसको कितने गम मिले हैं
हुई मुद्दत कि वो रोया नहीं है
और कि :
इश्क में लज्ज़तें मिला देखूँ
उससे करके कोई गिला देखूँ
कुछ तो ख़ामोशियाँ सिमट जाएँ
परदा-ए-दर को ले हिला देखूँ
प्रेम उन के यहां भी आग का दरिया ही है जिस में से वह अलग तरीके से , अलहदा अंदाज़ और अल्हणता बोते हुए , अहदे वफ़ा से मुकर जाने की जो इबारत बांचते हैं वह उतनी ही दिलफ़रेब , उतनी ही दिलकश और उतनी ही ज़िद की मुंतज़िर है जितनी कि होती आई है और कि होनी भी चाहिए ।
सिर्फ ज़रा सी जिद की ख़ातिर अपनी जाँ से गुजर गए
एक शिकस्ता कश्ती लेकर हम दरिया में उतर गए
मज़हब, दौलत,जात घराना, सरहद, गैरत, ख़ुद्दारी
एक मुहब्बत की चादर को कितने चूहे कुतर गए
हर पल अब भी इन आँखों में उसका चेहरा रहता है
कहने को मुद्दत गुज़री है उसकी जानिब नज़र गए
हीरें भी क्यूँ शर्मिंदा हों नयी कहानी लिखने में
जब इस दौर के सब राँझे ही अहदे-वफा से मुकर गए
और कि उन के यहां प्रेम की मासूमियत के सदके भी उतने ही दिलफरेब और दंश की डाह में डूबे हुए हैं :
तेरी ख़ातिर ख़ुद को मिटा के देख लिया
दिल को यूं नादान बना के देख लिया
जब जब पलकें बन्द करूँ कुछ चुभता है
आँखों में इक ख़्वाब सजा के देख लिया
खुद्दारी और ग़ैरत कैसे जाती है
बुत के आगे सर को झुका के देख लिया
वस्ल के इक लम्हे में अक्सर हमने भी
सदियों का एहसास जगा के देख लिया
प्रेम के रंग यादों , ख्वाहिशों के सदके में कभी सुर्खरू हैं तो कभी मायूसी के तलब में ग़मज़दा भी खूब हैं :
सांसों में लोबान जलाना आखि़र क्यों
पल पल तेरी याद का आना आखि़र क्यों
यूँ भी हम अपनी हर इक रात बसर करते हैं
आपकी याद के साये में सफर करते हैं
एक ही लम्हा गुज़र जाये तेरे साथ कभी
इसी ख़्वाहिश में यहाँ उम्र बसर करते हैं
यक तरफा फैसला मुझे मंजूर हो गया
मैं उसकी जिन्दगी से बहुत दूर हो गया
या फिर :
ये कसक दिल में रह-रह के उठती रही
ज़िंदगी इस तरह क्यूँ भटकती रही
बन गई गुल कभी और ख़ुश्बू कभी
और कभी जिस्म बनकर सुलगती रही
एक रिश्ता यही उससे मेरा रहा
मैं चला शह्र को वो सिसकती रही
वो दिखायी न देगी, ख़बर थी मगर
क्यूँ नज़र उस दरीचे को तकती रही
ये मेरे इश्क की थी गवाही ‘पवन’
उसके हाथों की मेंहदी महकती रही
और इस मेंहदी की खुशबू भी प्रेम की रातरानी , प्रेम की चंपा , प्रेम की बेला और प्रेम की जूही के साथ मिल और कैसे तो खिल कर , फिर थक और मुरझा कर जीवन के भीतर घाव बन कर उपस्थित होती जाती है। पवन कुमार की ग़ज़लों में इस घाव की तरतीब भी पूरी तबीअत से , पूरी कायनात में , पूरी ज़र्रानवाज़ी के साथ यमुना की रवानी की तरह ठाट मारती हुई रूबरू होती है:
मुंतजिर सी रात थी, थक हार के अब सो गई
आस जो आने की थी, वीरानियों में खो गई
चाँद से इक बार फिर, क्यूँ हो गया झगड़ा मेरा
एक वही तो दोस्त था, अब दुश्मनी सी हो गई
जुर्म बस इतना सा था, ये दिल किसी पे आ गया
और फिर ये उम्र अपनी इक सजा सी हो गई
हादसे होते रहे और लब पे शिकवा भी न था
रिस रहे थे ज़ख़्म इतने, पीर मरहम हो गई
रात तेरे जिस्म की खुशबू से हम लिपटे रहे
सुब्ह बैरन सी लगी जैसे ही आए होश में
हम उसकी जिन्दगी से इस कदर मानूस हैं या रब
किताबे-ज़िंदगी उसकी हमारी दास्तां चाहे
मंजर भी आज देखिए नादिर हुआ जनाब
सजदे को मैं भी आपके हाजिर हुआ जनाब
बेबस थे दिन तो सहमी हुई रात क्या कहें
गुज़रे तेरे बगैर जो लम्हात, क्या कहें
आमद थी उसकी जैसे कि खुशबू बिखर गई
अल्फाज़ , ख़ुशबुओं के पयामात, क्या कहें
पवन कुमार की नज़्मों में भी प्रेम के इसी ठाट और इसी याद में डूबी तसवीरें उपस्थित हैं :
समेटता रहता हूँ
सहेज-सहेज के
महफूज जगहों
पर रखता रहता हूँ
बस यही कहते हुए
बड़ी बेशऊर हैं
तुम्हारी यादें।
चुनी है राह जो काँटो भरी है
डरें क्यूँ हम तुम्हारी रहबरी है
हर इक शय में तुझी को सोचता हूँ
तिरे जलवों की सब जादूगरी है
खुला रहता है दरवाजा सभी पर
तुम्हारा दिल है या बारहदरी है
दिखावा किस लिए फिर दोस्ती का
अगर दिल में फकत नफरत भरी है
ये दिल है इसको बन्द आँखों से समझो
कोई तहरीर या अर्ज़ी नहीं है
प्रेम में आंख , नींद , तितली , ख़्वाब और विसाल की बात न हों तो प्रेम का दामन अधूरा लगता है । सो पवन कुमार भी इन से मुक्त नहीं हैं । पूरी तरह लैस हैं ।
आँखों में जज़्ब हो गया है इस तरह से तू
नींदों के साथ ख़्वाब भी दामन छुड़ा गए
नादानियों की नज्ऱ हुआ लम्ह-ए-विसाल
गुंचों से लिपटी तितलियाँ बच्चे उड़ा गए
तुम क्या गए कि जीने की वज्हें चली गयीं
वो कैफ़ो रंगो नूर वो साजो सदा गए
ख़फा मुझसे हो तो मुझको सज़ा दो
जमाने भर से क्या नाराजगी है
कभी-कभी तो वह मुनव्वर राना की मां की याद दिलाते भी मिल जाते हैं :
किसी मुश्किल में वो ताकत कहाँ जो रास्ता रोके
मैं जब घर से निकलता हूँ तो माँ टीका लगाती है
न जाने किस तरह का कजर् वाजिब था बुजुर्गों पर
हमारी नस्ल जिसकी आज तक किस्तें चुकाती है
हवाला दे के त्योहारों का रस्मों का रिवाजों का
अभी तक गांव की मिट्टी इशारों से बुलाती है
कभी दर्ज़ी कभी आया, कभी हाकिम बनी है माँ
नहीं है उज्ऱ उसको कोई भी किरदार जीने से
वक्त के मेले में
जब भी रात घूमने निकलती है
न जाने क्यूँ
हर बार
अपने कुछ बेटों को
जिन्हें ‘लम्हा’ कहते हैं
छोड़ आती है।
ये गुमशुदा लम्हे
हर रात
अपनी माँ की तलाश
में जुगनू की शक्ल
इख़्तियार करके
भटकते रहते हैं,
मचलते रहते हैं।
मां ही नहीं रिश्तों की कायनात में उन की बेटी भी है लेकिन अंदाज़ ज़रा दहशतज़दा है । न सिर्फ दहशतज़दा है बल्कि फ़िक्रमंद भी है :
अब
दुनिया के मैदान-ए-जंग में
जब आ ही गई हो तुम,
तो
कुछ मसअले
कुछ नसीहतें
कुछ फिकरें
कुछ अक़ीदतें
कुछ फन
कुछ शरीअतें
अपने बटुए में रख लो।
ये सारी मुहरें
मैंने
और तुम्हारी माँ ने
वक्त को ख़र्च करके
ख़रीदी हैं।
पिता भी कैसे न आएं उन के शेर में :
अब्बा के बाद घर की बदली हुई हवा है
सहमा हुआ है आंगन सिमटी हुई हवा है
यहीं उन की इस सादा बयानी का भी जवाब नहीं :
सिवा उसके हमारे पास अब कुछ भी नहीं बाकी
वो इक तावीज जो अम्मा ने सौंपा था निशानी में
शिकायत क्या करें उससे कि लहजे में बनावट है
हमें तो लुत्फ आता है फकत सादा बयानी में
ज़िंदगी नींद भी कहानी भी
हाय क्या चीज़ है जवानी भी ।
मुख़्तारी तो ऐसे भी दिख जाती है
आंगन में बंदूकें बोना ठीक नहीं
Bahut hi sundr....sarthak koshish. Hirdesh
ReplyDeleteबहुत सुंदर प्रस्तुति हेै सटीक ओर विश्लेषण किया गया हेै,मेरी तरफ से बहुत बहुत बधाई शुभकामनाएँ
ReplyDeleteसच मेँ समकालीन जितने भी रचनाएँ मेन्ने पढ़ी हे बाबस्ता एक कम शब्दोँ मेँ बहुत ज्यादा अर्थो को समेटे है.स् जीवन के तमाम झंझावात मुश्किलेँ चुनोतियाँ ओर उनके बीच मेँ एक आशा की किरण एक सही रास्ता खोजती सामाजिक सरोकारोँ रिश्तो ओर जज्बात हो का मुकम्मल ख़याल रखती स्नेह वात्सल्य कभी भर पूर ओर माता पिता के प्रति श्रद्धा भाव प्रेम की गहराइयोँ को अभिव्यक्ति देने की कला इन सभी मामलोँ मेँ ये अपने अपने बेमिशाल ओर हमेशा तारीफ के योग्य रचना हे में पवन कुमार साहबको ओर उनके पूरे परिवार को बहुत बहुत बधाई शुभकामनाएँ देता हूँ ओर आगे उनसे आशा करता हूँ इस प्रकार की विशाल रचना जल्द ही देखने को मिले
Vaabasta se Vaabasta hone aur saahib e Vaabasta ki shairi ki dunia me zehn o dil ko raqs karane ki khwahish mein mazeed izaafa is tabsire ko padhkar hua...Badi mubarkeN sahiba e Vaabasta aur Tabsira nigaar ko....Zindabaad
ReplyDeleteEk mukammal tabsirah ke sakte hain is articale ko.....bahot khoob !!!
ReplyDeleteComment no.3 is by me...Zia Zameer
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