कृष्ण बिहारी
अपने- अपने युद्ध के बाद
दयानंद पांडेय का यह दूसरा उपन्यास है। घनघोर वास्तविकताओं के नंगे सच या यह कहें
कि सामाजिक नंगे नाच को शब्दों की जुबान देने वाला यह उपन्यास भोजपुरी भाषा के
लुप्त होते अस्तित्व पर तो सवाल उठाता ही है, साथ ही बाजारवाद के सुरसा होते जाने पर भी इस की चिंताएं कम
नहीं हैं। समीक्षकों की दृष्टि में इस उपन्यास
का न आना किसी अच्छे दौर का संकेत नहीं है। एक महत्वपूर्ण सवाल यह भी उठता है कि
किसी कृति की चर्चा का क्राइटेरिया क्या है? कारण उपन्यास पर अश्लीलता का आरोप नहीं है। अश्लीलता को
नापने का तो कोई पैमाना ही नहीं है। कारण शायद यह है कि उपन्यास सशक्त है और सशक्त
उपन्यासों की चर्चा करने से डरने वाले इस आतंक से पीड़ित हैं कि सच कैसे कहें?
उन के स्थापितों पर दूसरा स्थापित नहीं हो
जाएगा! अगर अश्लीलता कारण होती तो न जाने कितने परंपराभंजक ही नहीं परंपरापालक
रचनाकार भी चर्चाओं से बाहर होते। मैत्रेयी पुष्पा ने अभी कहीं लिखा है कि परंपरा
तोड़ कर लिखने वालों पर अश्लीलता का आरोप सहजता से लग जाता है।
लोक कवि अब गाते नहीं
उपन्यास में वर्णित भोजपुरी समाज की वे सामाजिक वास्तविकताएं हैं जिन्हें उस
परिवेश में लोग आए दिन देख, भुगत और जी रहे
हैं। पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार प्रांत के लगभग 12 से 15 करोड़ लोग भोजपुरी भाषी हैं। जाहिर है कि इतनी विशाल
जनसंख्या के लोगों का एक सांस्कृतिक परिवेश भी होगा। तो, इस परिवेश में चइता, कजरी, सोहर के अलावा
धोबिऔआ, कहरवा और चमरौआ के अलावा
बिरहा ही नहीं और भी बहुत कुछ है। लोगों का अपनी नियति के साथ जीना और मरना है।
उपन्यास में जो कुछ है वो उस परिवेश, उस की भाषा और उस की संस्कृति की निजता है लेकिन आज के बाज़ार में उस निजता का जो
निहायत अपनापन है वो खो गया है और उस के नाम पर परिवेश समेत सभी क्षेत्रों में जो
घालमेल हुआ है वो नई सभ्यता का विकास न हो कर उस का वह फुहड़पन है जिसे हर कोई
परहेज रखते हुए अपनाये जा रहा है। अगर ऐसा न होता तो क्या कारण है कि इस क्षेत्र
में प्रयुक्त भाषा लगभग मरघटी, अंतिम सफर पर
है। भोजपुरी भाषा के कुछ शब्दों का घालमेल करते हुए कोई रचना न तो भोजपुरी का
प्रतिनिधित्व कर रही है और न उस समाज की पहचान बन रही है। एक भरे पूरे परिवेश का
कितना अहित हो रहा है यह बात उस के अपने लोगों की समझ से ही गायब है। कितना तकलीफ
देह है अपनी आत्मीयता को मरते हुए देखना। उपन्यास का प्रमुख सवाल यही है और ये चंद
पाठकों और लेखकों से ही नहीं बल्कि उन पंद्रह करोड़ लोगों से है, जिन का उस भाषा और बोली से सरोकार है। अपने घर को राख होते
हुए देखने से बेहतर उसे बचाने की कोशिश मे मर जाना है मगर क्या यह संभव है?
क्यों कि यह वही क्षेत्र है जहां सूंघने के लिए
एक चुटकी सूर्ती के लिए बेकरार लोग गांव को फूंकता हुआ तो देखते रहते हैं मगर गांव
तो गांव अपने घर को भी आग की लपटों से बचाने की किसी कोशिश में तब तक नहीं जुटते
जब तक सूर्ती नहीं सूंघ लेते। फलस्वरूप गांव राख हो जाता है। भोजपुरी भाषा के राख
होते जाने का कारण इस से कुछ अलग नहीं है।
15 करोड़ लोगों की बोली और
भाषा में न तो कोई चर्चित अखबार निकलता है और न कोई रचनाकार अपनी सामर्थ्य का
प्रयोग करते हुए कोई रचना देता है। प्रश्न माकूल है मगर माहौल नामाकूल। 2-3 करोड़ लोग पंजाबी बोलते हैं किंतु उस का साहित्य है। ऐसा
ही देश की अनेक बोलियों और भाषाओं के साथ है। किंतु भोजपुरी के दयनीय होते जाने
वाले इस बेहाल पन पर कोई रोने वाला नहीं है। लेखक ने इस संबंध में कई सवाल उठाए
हैं। मसलन, चंद्रशेखर और लालबहादुर
शास्त्री जैसे दो-दो प्रधानमंत्री तो इसी भाषायी क्षेत्र से हुए मगर भोजपुरी का
नामलेवा कोई भी नहीं बना। इतना ही नहीं देश के प्रथम राष्ट्रपति राजेंद्र बाबू भी
भोजपुरी भाषी थे किंतु सूर्ती की बावन चुटकी तिरपन ताल के अलावा भोजपुरी का कोई
दूसरा ठेका नहीं लगा सके। इस के अलावा पंडित नेहरू से ले कर वीपी सिंह तक क्या कम
लोग प्रधानमंत्री हुए जो उत्तरप्रदेश के ही थे मगर भोजपुरी को उन भाषाओं की सूची
में भी स्थान नहीं मिला। जिस में नेपाली तक को जगह मिली हुई है। भाषा की ऐसी मृत्यु
के जो कारण हैं वही कारण इस भाषा के लिए भी उत्तरदायी हैं। सच यही है कि भोजपुरी हिंदी प्रदेश के कामकाज की भाषा नहीं है। इस से दो वक्त की रोटी अब न तो बिरहिया
पा सकता है और अल्हइत। एक तारा वाले जोगी जी रात के भोजन के लिए आटा भी शायद ही पा
सकें। सहजो सिंह कहती हैं कि उन के बच्चे हिंदी नहीं पढ़ते। उन्ही के स्वर में मैं
भी कहता हूं कि मेरे बच्चे भोजपुरी को सुनते ही इसे दादा जी वाली बोली कह कर मुंह
बिचुकाते हैं। मेरे जीवन काल में ही मातृभाषा की यह हालत मुझे कितनी पीड़ा देती है
इसे व्यक्त करते हुए आंसू भी शायद सूख गए हैं। संस्कृत को भी मरने में बहुत वक्त
लगा होगा मगर भाोजपुरी का कत्ल तो सायनाइड दे कर हुआ है। भाषा के अस्तित्व का यही
मूल प्रश्न उपन्यास का नायक वो भर गायक भी उठाता है जो अपने उरूज के दिनों से आखिर
तक अपनी जाति को छिपाते हुए यादव के बाने में रई रई रई रई करते हुए हर तरह के लाभ
लेने की जुगत भिड़ाता और पाता रहा।
पूर्वांचल के किसी दलित
परिवार में पैदा हुए एक अनपढ़ और अनगढ़ किशोर गायक की कुंडली में राहु और शनि का
ऐसा योग बैठा कि वह राजयोग का भोक्ता हो गया।
कहानी उसी किशोर गायक के
अपने संघर्षों के साथ सत्ता के मिलते जाने वाले समीकरणों के बल पर न केवल बरगद
बनते जाने की है बल्कि बरगद बन कर 'अपने नीचे आने
वालियों' को अपने नीचे लिटाने की
भी है। निश्चित रूप से होमोसेक्सुअल नहीं है अन्यथा यह चर्चा भी उपन्यास में उसी
रूप में दर्ज होती। कला,संगीत, साहित्य, पत्रकारिता और
राजनीति के अलावा खेल ही नहीं, सामाजिक जीवन के
हर क्षेत्र में 'कास्टिंग कॉउच’ का 'काकस’ आज बाज़ारवाद के फैशन में अनिवार्य 'सिस्टम’ बन गया है। उसे इस उपन्यास के माध्यम से बखूबी देखा जा सकता
है। लड़की हो या औरत, बिस्तर पर मर्द के साथ
लेटे बिना उस का अस्तिव ही नहीं है। कई मर्दों के साथ उस का लेटना या कई औरतों के
साथ किसी एक मर्द के साथ लेटना उस की नियति बन गई है। अनादिकाल से लड़की या औरत
मर्द के साथ मर्जी या बिना मर्जी लेटने के लिए मजबूर है। उस की व्याकुलता तो नए
बाज़ारवाद की पैदाइश है। उस का यह तय करना कि वह किसे अपने साथ सुलाएगी। ...उसे अपने
साथ किस को लिटाना है, ये नौबत तो बहुत बाद में
आती है। वो भी तब जब कोई मुकाम हासिल कर लेती है वरना सोना ऐरू-गैरू और नत्थू
खैरूओं के ही साथ है। लेकिन तब तक इतनी देर हो जाती है कि जवानी ढल चुकी होती है
और 'टाइट’ चाहे जाने वाले अंगो के गुब्बारे पिचकने शुरू हो जाते हैं।
उन की जगह कृत्रिम उपादान लगा कर स्वयं को जवान बनाए रखने का भरम भी तो चल ही निकला
है। आज की राजनीति में किस केंद्रीय मंत्री या मुख्यमंत्री के 'किचन कैबिनेट’ में कौन महिला
किस तरह शामिल है ये बात किस से छिपी है? लेकिन केवल नेताओं को ही नामजद करना या मुजरिम ठहराना बेइंसाफी होगी। जीवन का
कोई क्षेत्र नहीं बचा जिस के मुखिया लौंडे-लौंडिया या औरतबाज़ न हों। नित नई कली का
स्वाद किसे नहीं चाहिए? विधायक हों...चेयरमैन हों....मंत्री हों...मुख्यमंत्री हो या फिर केंद्रीय
मंत्री....प्रभुता संपन्न आदमी प्रेम करे या रखैल बनाए। वो सब उस के शौक हैं। माइकेल
जैक्शन किसी लड़के या कई बच्चों को अपने बिस्तर पर सुलाए तो यह उस का शौक है। कोई
अदना आदमी लौंडेबाजी में पकड़ में आ जाए जो उसकी मां....जाए। एक शेर न जाने किस
शायर का मगर बहुत मकबूल-सा याद आ रहा है....
जिनके आंगन में अमीरी का शजर लगता है।
उन का हर ऐब भी जमाने को हुनर लगता है।
ऐसे में तो 'पात्र’ को ही तय करना है कि उस की ज़रूरत या कि उस का स्टेटस क्या है!
भारतीय समाज या गरीब मुल्कों में जो आर्थिक मजबूरियां या सीढिय़ां चढ़ कर ऊंचाई तय
करने की जल्दबाजी आधुनिक लड़कियों को है उस में 'जिस्म’ को उद्योग बनानेे
से किसी को परहेज कहां है? शार्टकट का
रास्ता आज सब को चाहिए। धन हो या यश हो। मान-सम्मान या कोई पुरस्कार हो। सब को पता
है कि इन की वास्तविकता क्या है और ये मिलते किन को हैं! यह व्याकुलता भी उपन्यास
में दस्तावेजी हकीकत बन कर उभरी है। गायक पुरस्कार पाने के लिए कितना उतावला है और
उसे पुरस्कार दिलाने वाले कितना श्रेय चाहते हैं, यह इस उपन्यास को पढ़ कर ही जाना जा सकता है। भाई को भाई ही
साहित्य में भी दिखता है। अंधा बांटे रेवड़ी फिर फिर अपनों को दे। मीडिया को
रात-दिन कोसने वाले भी पत्रकारों के पीछे किस तरह रिरियातें हैं और पत्रकार भी किस
तरह दलाल से औरतखोर होते जाते हैं,ये सब अपनी नंगी
सच्चाइयों के साथ उपन्यास में उजागर हुआ है। दयानंद पाण्डेय के पास अनुभव ही नहीं
वह भाषा भी है जिसे उन्हों ने सांस-दर-सांस जिया हैं। या कहें कि मां के दूध के साथ
पिया है। बिना उस के यह उपन्यास लिखा ही नहीं जा सकता था। भाषा की रवानी और भोजपुरी
जीवन के मुहावरे मन मोहतें हैं। ये मुहावरे रोजमर्रा की ज़िंदगी को वह अर्थ देते
हैं जिसे भाषा की व्यंजना शक्ति लक्षणा बना देती है।
भोजपुरी भाषा का वह गायक
शायद आज भी जिंदा है जिसे कभी समाज ने तो कभी उस की जाति से उपजे भरम ने तो कभी
राजनीति ने उस का भरपूर इस्तेमाल किया लेकिन बदले में उसने भी कुछ कम नहीं लिया।
जिस से भी जो लाभ मिल सकता था,वह उस ने उठाया।
लड़कियां और औरतें उचांई पर उठे हुए लोगों के जीवन में आती ही हैं। वे होंगी तो
सेक्स भी होगा। हालां कि,उस की चाशनी
उपन्यास में कुछ नियंत्रित और कम होती तो भी बात दूर तलक जाती। खैर,नायक ने अपनी सीमांओं में सब के साथ 'ईमानदार न्याय’ किया। किंतु उस के साथ तो प्राय: अन्याय ही होता रहा। यहां
तक कि उस का मोबाइल ही नहीं,रूपए-पैसे और
अंडरवियर भी चोरी होते रहे। जिस औरत के साथ जब भी वह रहा उस ने उस की ही कीमत नहीं
चुकाई वरन उस से पैदा हुई उन संतानों को भी भुगता जो पता नही उस की थी भी या नहीं।
क्यों कि कहानी तो केवल उस गायक या कवि की है। उन सब की नहीं जो उस के जीवन में आए।
उन की अपनी कहानियां भी तो होंगी। धाना या मिसराइन 'सती’ और 'सावित्रियां’ नहीं हैं। प्रेमिकाएं हैं और प्रेमिकाओं को प्राय: दूसरे
मर्दों के साथ सोना पड़ता है जिन्हे वे कभी तो बाखुशी और कभी मजबूरी में झेलती
हैं। उपन्यास में अनेक अंतर्कथाएं हैं जो इसे पठनीय और रोचक बनाती हैं। बहरहाल,
जो भी हो अपनी उपस्थिति में उपन्यास महत्वपूर्ण
है।
[हंस , अक्टूबर , 2006 में प्रकाशित ]
संपर्क: पो.बॉ. 52088, अबूधाबी, यूएई
समीक्ष्य पुस्तक :
लोक कवि अब गाते नहीं पृष्ठ सं.184 मूल्य-200 रुपए प्रकाशक जनवाणी प्रकाशन प्रा. लि. 30/35-36, गली नंबर- 9, विश्वास नगर दिल्ली- 110032 प्रकाशन वर्ष-2003 |
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