Tuesday 15 July 2014

शिवमूर्ति के कंधे पर बैठ कर एक अपठनीय रचना का बचकाना बचाव

फेसबुकिया नोट्स की एक लड़ी 

  • मनो शिवमूर्ति ही शिवमूर्ति ! बाकी वक्ता हवा , उपन्यास हवा , और तो और आलोचक-प्रवर हवा, बचे तो सिर्फ और सिर्फ शिवमूर्ति ! अहा! प्रायोजित चर्चा का क्या यही जीवन है ! शिवमूर्ति जी की जय हो ! कि आप भी कहां-कहां और किन-किन के काम आ जाते हैं। तिस पर तुर्रा यह भी कि फेसबुक में मारक क्षमता नहीं हैं । तो हैं किस में ? प्रायोजित चर्चा में कि प्रायोजित समीक्षा में ? तो मैं ने क्या गलत लिखा था , ' रचना नहीं, लोग बोलते हैं, समीक्षा बोलती है । बात बोलेगी/ हम नहीं/ भेद खोलेगी आप ही ! वाली शमशेर की बात लोग भूल से गए हैं ।' दिलचस्प यह कि फेसबुक पर भी और यत्र-तत्र भी उद्धृत शिवमूर्ति का भाषण भी फेसबुक पर हैं , रचना पर नहीं । यह अपठनीयता का निर्वासन हैं । हे शिवमूर्ति !
अब यह चमत्कार ही हैं कि जो लोग शिवमूर्ति का नाम नहीं लेते थे, नाम सुनते ही बिदकते थे, आज वही लोग शिवमूर्ति को अपना ताज बनाए हुए , उन्हें सर पर बिठाए हुए घूम रहे हैं। अपठनीयता का पाठ जो न करवाए । शिवमूर्ति अब उन का नया सहारा हैं ! हे शिवमूर्ति !



निर्वासन परिचर्चा में बोलते शिवमूर्ति 

  • शशि जी, सच तो यह है कि शिवमूर्ति जी ने बिना नाम लिए इस या उस का ज़िक्र किया। कोई सवाल और जवाब नहीं। ऐसा अन्य मित्रों ने बताया है । और कई मित्रों से बहुत कुछ मनोरंजक भी सुना है। मुझे तो इस कार्यक्रम में न बुलाया गया था और न मैं गया था । शिवमूर्ति की वाल पर आलोक पराड़कर का लिखा भी पढ़ा है । उस में भी यही बात सामने आती है कि बस ज़िक्र। आलोक की यह रिपोर्ट अपने आप में सब कुछ कह देने के लिए काफी है । कि किस तरह एक अपठनीय रचना के बचाव  में यह एकपक्षीय रिपोर्ट ढाल बन कर शिवमूर्ति के कंधे पर बैठ कर चीख रही है , अपनी बात किस तरह शिवमूर्ति के मुंह में डाल कर कही जा रही है इस बारे में मुझे या किसी और को कुछ कहने सुनने की ज़रुरत है नहीं। बाकी आप शिवमूर्ति के मित्र हैं, उन के जनपद के हैं, उन से बतिया लीजिए, कुछ आनंद भी मिलेगा और ज्ञानवर्धन तो होगा ही ।

  •  श्रीलाल शुक्ल बड़े लेखक थे । विद्वान आदमी । लेकिन लखनऊ में लेखकीय राजनीति के चलते उन्हों ने अपने तीन-चार टट्टू भी बनाए । ख़ास कर दो बड़े लेखकों को अपमानित करने और उन्हें अकेला करने की गरज से । उन का यह काम एक हद तक पूरा भी हो गया । अब श्रीलाल जी स्मृति-शेष हैं । पर दिलचस्प यह है कि उन के इन टट्टुओं ने अब अपने को घोड़ा समझना शुरू कर दिया है । कोई बता सकता है कि ये टट्टू कौन हैं?

  •  अब तो ऐसे-ऐसे आलोचक प्रवर हैं कि गुरु ने उधर लिखना शुरू भी नहीं किया सिर्फ कलम उठाई कि आलोचक प्रवर ने समीक्षा स्तुति लिखनी शुरू कर दी । तो प्रभात जी यह आलोचक लठैत नहीं तो और क्या होंगे?
  •  साज़िश , गोलबंदी , गिरोहबाजी , फासिज़्म, ठेकेदारी, एन जी ओ और हेन-तेन आदि-आदि कर के राजनीति में सफल होने की तात्कालिकता के औजार अब साहित्य में भी खुले-आम चलन में आ कर धूम मचा रहे हैं !

  • सरोकारनामा नहीं हकीकतनामा
    फ़ेसबुक पर मेरे एक मित्र हैं हरेश कुमार। वह सरोकारनामा के नियमित पाठक हैं। सो उन्हों ने एक तजवीज आज मेरे ब्लाग सरोकारनामा के बाबत दी है। उन की तजवीज पर आप मित्र भी गौर कर सकते हैं : ' सरोकारनामा का नाम बदल कर हकीकतनामा रख लें सर।'

  •  अब फेसबुक भी समाज का दर्पण है !





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