एक वह दिन थे कि कारंत के लिए अशोक वाजपेयी सारी अफ़सरी भूल कर रात भर थाने में बैठे रहे थे
मतलब कंवल भारती न हों, वामपंथी मित्रों की जागीर हों। गुलाम हों। कि वह जो भी कुछ करें इन से पूछ कर करें। नहीं यह उन्हें पानी भी नहीं देंगे। दिन-रात कोसेंगे मुफ़्त में। अदभुत है यह तो। गरज यह कि कंवल भारती पहले दलित थे, फिर वामपंथी हुए, अब कांग्रेसी हो गए हैं। गनीमत है कि वह भाजपाई नहीं हुए। कई वामपंथी बल्कि चरम वामपंथी तो मौका मिलते ही भाजपाई तक हो गए हैं। वैसे वामपंथी दोस्त उन के कांग्रेसी होने पर ऐसा स्यापा कर रहे हैं गोया वे सपाई या बसपाई हुए होते तो बेहतर होता। वह शायद इस तथ्य को भूल रहे हैं कि दो दशक पहले ही वह कांशीराम के दो चेहरे किताब लिख चुके हैं। तो बसपा में जा नहीं सकते थे। समाजवादी पार्टी की आग में वह जल ही रहे हैं। वामपंथियों की कोई हैसियत नहीं है रामपुर या उत्तर प्रदेश में। और फिर जो वह कांग्रेसी हो ही गए हैं तो खुशी-खुशी नहीं हुए होंगे।
रामपुर में सपा राज के जंगलराज से आज़िज़ हो कर हुए होंगे। ऐसा मुझे लगता है। नहीं वह तो अपने दलित चिंतन में ही खुश थे। लेकिन रामपुर अब ऐसी जगह है जहां कोई सरकारी कर्मचारी भी नहीं रहना चाहता। डाक्टरों तक ने सामूहिक स्थानांतरण मांग लिया है। और वामपंथी मित्रों की हकीकत यह है कि वह ड्राइंगरुमों मे, सेमिनारों में निंदा बयान की आग तो बरसा सकते हैं, एन.जी.ओ. बना कर आइस-पाइस तो खेल सकते हैं पर मौके पर जान देने और विरोध करने की तो छोड़िए, शव यात्रा में भी जाने से कतरा जाते हैं। बीते दिनों अदम गोंडवी की शव को फूल माला तो नसीब हो गई पर लाख कहने पर भी कोई उन के शव के साथ गोंडा नहीं गया। सिर्फ़ एक समाज सेविका गईं थीं। यकीन न हो तो अदम के बेटे या भतीजे से बात कर के देख लीजिए। सब बता देंगे। और फिर कंवल भारती के लिए भी रामपुर कौन गया ? कंवल भारती के लिए सिर्फ़ बयानबाज़ी भर हुई। सरकार को एक ज्ञापन तक देने कोई नहीं गया। सारे सरोकार अखबारी बयान और फ़ेस-बुक पर लफ़्फ़ाज़ी तक ही सीमित रहे। दिल्ली, लखनऊ या किसी राजधानी में रह कर बड़ी-बड़ी बातें कर लेना आसान है। रामपुर जैसी छोटी जगह में किसी जानवर या राक्षस के जबड़े में रहने जैसा हो जाता है अगर किसी सत्ताधारी से, किसी गुंडे से, माफ़िया से पंगा हो जाए। आज़म खां बहुत ईमानदार नेता हैं, इस में कोई शक नहीं लेकिन वह वामपंथियों से भी बड़े तानाशाह हैं। अपने आगे वह सब को चोर समझते हैं। बीमारी की हद तक। मुलायम और अखिलेश जैसों को झुका लेते हैं अपने आगे तो कंवल भारती क्या चीज़ हैं? वह तो आज़म से वैसे ही लड़ रहे हैं जैसे बाघ से कोई बिल्ली लड़ जाए। तो बचाव के लिए कहिए, ढाल कहिए वह कांग्रेस की झाड़ की आड़ में चले गए हैं। ऐसा मुझे लगता है। कंवल भारती से मेरी कोई मित्रता नहीं है, कोई परिचय नहीं है। कभी बातचीत नहीं है। तो भी जो परिदृष्य दिख रहा है, उस के मुताबिक मेरा अनुमान ही भर है यह। और लग रहा है कि कंवल भारती के आगे , पीछे दोनों तरफ़ खाई और कुएं का माहौल था। अब वह खाई में गए हैं कि कुंएं में यह तो वक्त बताएगा। पर यह तो तय हो गया है कि किसी भी एक स्वतंत्रचेता व्यक्ति का सीना तान कर अब जीना मुहाल है। उसे समझौता करना लाजमी हो गया है। कम से कम जीने के लिए।
यहां एक न्यायमूर्ति एस सी श्रीवास्तव की एक बात याद आ गई है। जिन्हें लोग बड़े आदर से एस.सी.एस. कहते थे किसी समय। तीन दशक पुरानी बात है। वह रिटायर हो चुके थे। लखनऊ के इंदिरा नगर में रहते थे। एक सेमिनार में उन से किसी ने पूछा था कि इज़्ज़त-पानी से सुरक्षित ढंग से कैसे रहा जाए? तो वह बिना लाग-लपेट के बोले थे। और कहा था कि भाई आप की बात तो नहीं जानता पर अपनी बात आप को बता सकता हूं। घर की बाऊंड्री ऊंची बनवाई है। बिजली के विकल्प के लिए जेनरेटर लगवा रखा है, पानी के लिए बोरिंग करवा कर मोटर लगा रखा है। इलाके के गुंडों से फ़ोन कर के रिक्वेस्ट कर लेता हूं कि रिटायर्ड जस्टिस हूं, हो सके तो मेरा खयाल रखना। जब कोई नया एस.एस.पी या थाने पर नया थानेदार. आता है तो उसे भी फ़ोन कर रिक्वेस्ट कर लेता हूं कि भाई रिटायर्ड जस्टिस हूं ज़रा हमारा खयाल रखना। मैं तो भाई इसी तरह इज़्ज़त-पानी से सुरक्षित रहता हूं। सोचिए कि यह तीन दशक पुरानी बात लखनऊ की है।और यह बात भी एस.सी.एस. कह रहे थे जो कानून की सख्ती के लिए अपने समय में मशहूर थे। एक बार तो उन्हों ने एक आदेश न मानने पर उन्नाव के चीफ़ ज़्यूडिशियल मजिस्ट्रेट तक को हथकड़ी लगवा कर हाईकोर्ट में बुलवाया था। और कहा था कि जब आप न्यायाीश हो कर कानून नहीं मानेंगे तो भला और कोई क्यों मानेगा? और वह जस्टिस रिटायर होने के बाद लखनऊ जैसे शहर में कैसे तो अपना रहना बता रहा था।
तो कंवल भारती भी रिटायर हो चुके हैं। रामपुर जैसे शहर में आज़म खां जैसे तानशाह से मोर्चा खोल कर रह रहे हैं। रामपुर के नवाब परिवार से तो ज़्यादा ताकतवर नहीं हैं कंवल भारती। मुलायम और अखिलेश से ज़्यादा ताकतवर तो नहीं हैं कंवल भारती। रामपुर के नवाब परिवार समेत मुलायम अखि्लेश, मुलायम तक जिस आज़म खां के आगे शरणागत हों, हां जयाप्रदा तक। वहां आप एक गरीब लेखक से उम्मीद करें कि वह सीना तन कर मर जाए, अपने बाल-बच्चों को आप की खोखली बयानबाज़ी के बूते। कंवल भारती, आज़म खां की तानाशा्ही से बचने के लिए अगर कांग्रेस की शरण चले ही गए हैं तो कोई अपराध नहीं कर दिया है। उन की यातना को समझें, अपने आप को कोसें और सोचें कि क्या प्रतिरोध ऐसे ही होता है? कि एक लेखक वैचारिक सरणी छोड कर राजनीति के जंगल में छुपने का विकल्प आखिर क्यों चुनता है?
देखिए कि यहीं भड़ास 4 मीडिया चलाने वाले यशवंत सिंह की याद आ गई। मीडिया घरानों की ईंट से ईंट बजाने के लिए वह जाने जाते हैं। पढ़े-लिखे पत्रकारों की लड़ाई अकेले दम पर लड़ते हैं। बिना किसी सुविधा के। कुछ बड़े मीडिया घरानों की साज़िश के चलते उन्हें, और उन के सहयोगी अनिल सिंह को इसी अखिलेश सरकार ने जेल भेज दिया। जिन सुविधाजीवी पत्रकारों की लड़ाई वह भड़ास के मार्फ़त लड़ते आ रहे हैं, सब के सब मूक दर्शक बन गए। यशवंत अपने दम पर और कुछ व्यक्तिगत मित्रों के भावनात्मक संबल पर लड़ कर लंबी जेल काट कर बाहर आए। और 68 दिन जेल में रह कर बाहर आए तो जानेमन जेल उपन्यास भी उन्हों ने लिखा। सारे घटनाक्रम को ले कर। पर तब इसी लखनऊ में मैं ने कई पत्रकारों से मुख्यमंत्री को एक ज्ञापन देने के लिए चलने को कहा, धरना देने को कहा तो सब ने हाथ जोड़ लिए। क्या तो उन्हें नौकरी करनी थी। बाल-बच्चे पालने थे। जैसे यशवंत सिंह और अनिल सिंह के बाल बच्चे नहीं थे। तो कंवल भारती के भी तो बाल-बच्चे होंगे ही। भवानी प्रसाद मिश्र की एक कविता याद आ रही है:
देखे हैं मैंने बाढ़ों से पड़े पेड़
एक साथ बहते पेड़ों पर सहारा लिए सांप और आदमी
और तब एकाएक चमका है
यह सत्य है कि बेशक सांप और आदमी आफत में एक है
मौत की गोद में सब बच्चे हैं।
तो मित्रो, कंवल भारती की यातना की पड़ताल भी ज़रुरी है, बहुत ज़रुरी। हो सकता है वह निरे अवसरवादी हों, हो सकता है वह निरे कायर हों, हो सकता है यह उन का विचलन भी हो, हो सकता है उन की राजनीति में जाना महत्वाकांक्षा भी रही हो, कुछ भी हो सकता है। लेकिन एक बार उन की स्थितियों पर गौर कर लेने में हर्ज़ क्या है? हो सकता है वह कि वह लोकसभा चुनाव लड़ने के लिए भी कांग्रेस में रणनीति के तहत गए हों, हो सकता है वह चुनाव भी जीत जाएं। पर वह लड़ किस से रहे हैं, महत्वपूर्ण यह है। सत्ता केंद्र और किसी तानाशाह से लड़ कर किसी छोटे शहर में देख लीजिए, सारा वामपंथ और बौद्धिकता, सारी क्रांति और सारी लफ़्फ़ाज़ी हिंद महासागर में समा जाएगी। यह समय कंवल भारती को नैतिक और भौतिक समर्थन देने का था, और है। जो हम नहीं दे पाए, नहीं दे पा रहे। सारा ज़ोर और क्षमता अटकलबाज़ी और सुरागरसी में खर्च किए जा रहे हैं। यह बंद होना चाहिए।
एक बहुत मशहूर रंगकर्मी थे ब.व. कारंत। बहुत भले और सरल आदमी। याद है उन की? तब के दिनों वह भारत भवन के रंगमंडल का काम देख रहे थे। लखनऊ की ही एक रंगकर्मी विभा मिश्रा से उन के भावनात्मक संबंध भी किसी से छुपे नहीं थे। किसी बात पर नाराज हो कर एक रात विभा ने अपने घर में खुद आग लगा ली। विभा को बचाने में कारंत खुद भी जल गए। पर पुलिस को उन्हों ने खुद सूचित भी किया। पुलिस ने विभा को अस्पताल भेजा और कारंत को थाने ले आई। यह खबर पाते ही अशोक वाजपेयी थाने आ गए। रात भर कारंत के साथ ही थाने में रहे यह सोच कर कि पुलिस कारंत के साथ कोई दुर्व्यवहार न कर बैठे। कारंत निर्दोष थे यह भी सब जानते थे। पर अशोक वाजपेयी की चिंता अपनी जगह थी। वह एक वरिष्ठ आई.ए.एस. अधिकारी का रुतबा भूल कर कारंत की सुरक्षा में रात भर थाने में बैठ सकते थे, क्यों कि वह कारंत के सच्चे दोस्त थे। दूसरे दिन मुंबई से गिरीश कर्नाड आदि दोस्त भी भोपाल पहुंचे। विभा मिश्रा ने जो खुद मौत से लड़ रही थी, आखिर तक कारंत के खिलाफ़ एक शब्द नहीं कहा न पुलिस से, न प्रेस से। जब कि कारंत जी का मीडिया ट्रायल चालू था। खैर कारंत जी के लिए तो अशोक वाजपेयी रात भर थाने में बैठ गए, अपनी अफ़सरी दांव पर लगा कर। गिरीश करनाड जैसे लोग मुंबई का ग्लैमर, बदनामी का खौफ़ भूल कर भोपाल पहुंचे। पर यहां मेरे लिए यह जानना भी दिलचस्प होगा कि कंवल भारती को उपदेश देने वाले या अन्य ही सही, कौन पहुंचा रामपुर कंवल भारती के लिए। यह ठीक है कि वह एक दिन में ही अदालत से छूट गए। तो भी वैचारिकी का, दोस्ती का कुछ तकाज़ा भी क्या नहीं बनता था?
बनता तो था।
लेकिन नहीं बना और कंवल भारती को कांग्रेस शरणं गच्छामि होना पड़ा। कि आज लोग कंवल भारती के कांग्रेस में जाने पर विधवा विलाप में लग गए गए हैं। कंवल भारती एक जालिम से, एक तानाशाह और ताकतवर से जो जालिम भी है, जो मुख्यमंत्री को भी मुर्गा बना देता है जब मन तब, उस से लड़ रहे हैं, अकेले दम पर लड़ रहे हैं और हम असहमतियों के सूत्र, सिद्धांतों के बीज खोज रहे हैं। कंवल भारती का मनोविज्ञान नापने लगे हैं थर्मामीटर ले कर कि वह कब क्या सोच रहे थे? क्या कर रहे थे, क्या कह रहे थे? भाई वाह ! लेकिन तब गाढ़े के दिनों में कोई रामपुर नहीं गया। कंवल भारती खुद ही लखनऊ-दिल्ली होते रहे। तो आखिर दिल्ली से, लखनऊ से या कहीं और से ही सही रामपुर क्या बहुत दूर था? कि दूरी दिलों में ही थी? वैचारिकी की ज़मीन , दोस्ती की ज़मीन क्या इतनी दलदल भरी हो गई है अब की तारीख में? नहीं, मैं ने पढ़े हैं हिटलर के यातना शिविरों के भी कई विवरण। बार-बार रोंगटे खड़े कर देने वाले। और जाना है कि वैचारिकी, दोस्ती और संबध लोग कैसे तो मौत पर खेल कर, यातना-दर-यातना सहते हुए भी बरसों निभाते रहे थे। निरंतर। जवानी से बुढापा आ गया लेकिन मुंह नहीं खोला। तो क्या आज आज़म खां की तानाशाही अब हिटलर को भी मात कर रही है कि हम सचमुच कायर समय में जी रहे हैं? लफ़्फ़ाज़ी का सर्कस देखते हुए। बशीर बद्र क्या ऐसे समय के लिए ही कहते हैं:
चाबुक देखते ही झुक कर सलाम करते हैं
शेर हम भी हैं सर्कस में काम करते हैं।
बहुत अच्छा लिखा है आपने Dayanand Pandey जी. रामपुर की राजनीति की जमीनी हकीकत बयान कर दी आपने. अब कंवल भारती पर यह लिखने का दौर थमना नहीं चाहिए . उनके पक्ष में जितना लिख सकें लिखिए और जितना समर्थन जुटा सकें - जुटाइये . बुद्धजीवियों को तो हर तरह के समर्थन की ज़रूरत पडती है इस नाते जो बन पड़े सो कीजिए और अगर उन्हें टिकिट मिल ही जाती है तो जिताइए भी.
ReplyDeleteनिष्पक्ष विवेचन !
ReplyDeleteसुंदर विवेचन. कंवल भारती जी की राजनीतिक विचारधारा उनका निजी सरोकार है. भारतीय वामपंथ हमेशा ही अंतद्वंदों का शिकार रहा है. उससे इतर कंवल जी ने सजग साहित्यकार के रूप में स्थानीय नेताओं और राजनीतिज्ञों की मनमानी के विरुद्ध आवाज उठाई थी. मामला अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का भी है. इसलिए बिना किसी हिचक के भारती जी को नैतिक समर्थन देना हर संवेदनशील नागरिक की जिम्मेदारी है.
ReplyDeletejabardast ....... sadhuvad
ReplyDeleteसही समय पर निष्पक्ष टिप्पणी की आपने. केवल कंवल भारती का मामला नहीं है बहुतेरे ऐसे मामले हैं जहां कलमकार अकेला पड़ जाता है और तमाम अदृश्य मंचों को न्याय की दुहाई देने वाले तथाकथित समर्थक तमाशा देखते हैं..
ReplyDeleteGuru , Likh to sahee rahe ho per ek bat Kanwal Bharti ji ke liye bhi likh Dete- Ek sand tha jo ek bade sand ko dekh kar khir se mitti ukhad raha tha, kintu sath men ponk bhi raha tha. kisi ne poochha ki khura kyo ker rahe ho? " Ladunga". Fir ponk kyon rahe ho? "Bhagunga" . Hujoor yadi ponk itni jabardat thi to khoora hi nahee karte, zindagi chain se kat he raheethi, kya jaroorat thi bina kasht wali krantikarita dhoondhne ki. Ap to beizzat hue baki chintakon ko bhi sndigdh bana gaye.
ReplyDeletegreat sir...
ReplyDeleteबहुत बहुत धन्यवाद पाण्डेय जी, मैंने आपकी टिप्पणी को अभी पढ़ा है. पढ़ कर मुझे संबल मिला. मैं समाजवादी आंदोलनों का आदमी हूँ, अपनी विचारधारा में मैं उससे इतर जा ही नहीं सकता. आपने सही विश्लेषण किया है
ReplyDelete