Thursday 10 October 2013

कस्बाई परिवेश का प्रभावी उपन्यास

जितेन ठाकुर

सुप्रसिद्घ उपन्यासकार दयानंद पांडेय का उपन्यास ‘बांसगांव की मुनमुन’ कस्बाई परिवेश में एक मध्यवर्गीय परिवार का जीवंत पोट्रेट है। यह एक परिवार की खुशियों, हताशाओं और बंदिशों का प्रामाणिक दस्तावेज है। संयुक्त परिवार प्रथा की अच्छाइयों और बुराइयों का चित्रण करता हुआ यह उपन्यास परिवारों के विघटन के कारणों पर बारीक नज़र रखता है। रिश्तों की पल-पल बदलती अहमियत जीवन के राग-रंग और भविष्य के गर्भ में छुपे नियति के निर्णय कैसे किसी व्यक्ति और परिवार को अस्थिर या स्थिर करने में सक्षम हैं - इसकी बानगी इस उपन्यास में देखी जा सकती है।

दरअसल, किस्सागोई के अंदाज में लिखा गया परंपरागत भारतीय परिवेश का यह एक रोचक उपन्यास है। इंनी फितरत की बानगी हो, रीतिरिवाज़ों और परंपराओं की उघड़ती हुई सीवन हो या फिर रिश्तों की दरकती हुई दीवारें- इस उपन्यास में सब इतने सबल और चित्रात्मक रूप से अभिव्यक्ति हुए हैं कि पाठक स्वयं को उसी परिवेश का अंग समझने लगता है। कथानक पर लेखक की गहरी पकड़ का ही परिणाम है कि उपन्यास की कथा-धारा अविरल बहती हुई सी लगती है- बिना किसी व्यवधान के। लगभग आधा उपन्यास निकलने के बाद आरंभ होती है मुनमुन के बांस गांव की मुनमुन बनने की कथा। इससे पहले की कथा और अंतरकथाएं समय और समाज की उस अंर्तधारा से परिचय करवाती हैं जो मुनमुन को इस हालात में ले आती है कि वह कहती है, ‘सोचो अम्मा, जो मैं भइया लोगों की बहन नहीं, बेटी होती तो क्या तब भी ऐसे ही मेरी शादी ये लोग किए होते? ऐसे ही लापरवाही से पेश आए होते?’यह एक ऐसे परिवार की कहानी है जहां इक्कीसवीं सदी की रौशनी सिर्फ और सिर्फ परिवार के पुरुष सदस्यों के कब्जे में है। पर तौल कर उड़े हुए परिवार के अधिकारी बेटे-बहन की शादी के नाम पर सिर्फ पैसा खर्च करना ही अपना दायित्व समझते हैं और बहन जिबह हो जाती है। घर में निवाला जुटाने वाली लड़की के परों पर भी कंटीले तारों की लपेट है। जब जिबह कर दी गई मुनमुन अपने टुकड़े समेट कर खड़ी होती है और कहती है ‘टटपूंजिया ही सही है तो मेरी नौकरी़।.......... ऐसे पति के लिए मैं यह नौकरी नहीं छोड़ूंगी। पति छोड़ दूंगी पर नौकरी नहीं- हरगिज नहीं।...... आप लोग चाहते हैं कि मैं जियूं और अपने पंख काट लूं ताकि अपने खाने के लिए उड़ कर दाना भी नहीं ला सहूं। माफ कीजिए भइया ऐसा मैं नहीं कर पाऊंगी, जान दे दूंगी पर नौकरी नहीं छोड़ूंगी। यही तो अब मेरा स्वाभिमान है।’ होे सकता है इस संवाद में घर-गांव या समाज के लिए परंराएं टूट जाने का खतरा बन आया हो, या किसी मुंहजोर बिगड़ैल लड़की का अक्स उभर कर रीति-निति की दहलीज लांघने का दुस्साहस करता दिखलाई दे रहा हो, परंतु अपने पैरों पर खड़े होने का अनथक प्रयास कर रही एक स्त्री को रोकना ‘आॅनर किलिंग’ से किसी भी रूप में कम नहीं आंका जा सकता। तभी तो तस्वीर के दूसरे पहलू में जग की रीत
समझाते हुए मां जाया भाई कहता है, ‘देखों मुनमुन, जो औरत अपने पति के आगे नहीं झुकती उसे अंतत: सारी दुनिया के ‘आगे झुकना पड़ता है और बार-बार झुकना पड़ता है।’ पुरुष प्रधान समाज की मानसिकता का इस से, बेहतर उदाहरण और हो भी क्या सकता है? वास्तव में यह हमारे हिप्पोक्रेट समाज की एक ऐसी तदबीर है जिससे आज भी एक बड़ा वर्ग सहमत है। ‘माथा फोड़ लेने भर से तो ललाट चौड़ा नहीं हो जाता’ या फिर ‘अब क्या करें मुनक्का राय अगर लड़के वाले लड़की नहीं मांगते हैं, मैच मांगते हैं, जैसे साड़ी पर ब्लाउज या सूट पर टाई’ जैसे कसे हुए चुटीले वाक्य इस उपन्यास को और भी अधिक रोचक औरेर पठनीय बनाते हैं।

राम किशोर की कथा में जमीन जायदाद के लिए भाइयों में आंखों के सूखते पानी को देखा जा सकता है। कुटिल और संकीर्ण मानवीय सोच का लबादा ओढ़ कर बदलती दुनिया से आज भी मुंह मोड़ कर लोग कैसे जीते हें, यह मुनक्का राय के ससुराल की गाथा में बेहद तीखेपन से उभर कर सामने आया है। टूट चुके या फिर टूटन की दहलीज पर खड़े संयुक्त परिवारों की गाथा का यह उपन्यास एक महाकाव्य है। लोक में प्रचलित संयुक्त परिवारों की आदर्श अवधारणा की कलई खोलने वाला यह उपन्यास इतना सजग, सजीव और समर्थ है कि अनायास ही पाठक को अपने प्रवाह में बहा कर ले जाता है। परिवार का ही एक असफल, ईर्ष्यालू और कुंठित सदस्य कैसे पूरे संयुक्त परिवार के लिए नासूर बन जाता है- गिरधारी राय इसका एक सबल उदाहरण है। अत्यंत तटस्थता के साथ लिखा गया यह उपन्यास, आज लिखे जा रहे उपन्यासों से अपनी एक अलग पहचान रखता है इस के लिए लेखक बधाई के पात्र हैं।

समीक्ष्य पुस्तक:
बांसगांव की मुनमुन
पृष्ठ सं.176
मूल्य-300 रुपए

प्रकाशक
संस्कृति साहित्य
30/35-ए,शाप न.2, गली नंबर- 9, विश्वास नगर
दिल्ली- 110032

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