दयानंद पांडेय
सावन सूखे पांव के गीत हिंदी गीतों
में एक नई हरियाली, एक नया टटकापन, एक नया गांव बसाते मिलते हैं। इन गीतों
की ज़मीन बहुत ही व्याकुल, बहुत ही चिहुंकी और बहुत ही खांटी अर्थ लिए हुए
हैं। बानगी देखिए, 'कंपनी की होड़ है/ या बड़ी साज़िश कोई,/ घास करती लड़कियां
भी/ बात करतीं फ़ोन से।' या फिर , 'संकेतों में / बातें करना/ अकसर बहुत
खला,/ व्याकुल जंगल/ की माटी में/ हल भी नहीं चला।' जैसे गीत सावन सूखे
पांव के पन्नों में यत्र-तत्र पैबस्त हैं।
ओम धीरज के गीतों में जो आश्वस्ति है, जो तेवर और तुर्शी है, जो खनक और
खुश्की है वह अब दुर्लभ होती जा रही है। ज़्यादातर गीतों से गांव, गांव के
बिंब , उस के मुहावरे और जीवन लय अनुपस्थित हैं। पर ओम धीरज के गीतों में
वह अपनी पूरी सघनता से न सिर्फ़ उपस्थित हैं बल्कि उन की रवानी, रंग और जादू
अपनी पूरे रंग और राग के साथ उपस्थित है। एक गीत देखें, 'भैया नहीं खेत
के डाड़े/ लगता कोई बात हुई है/ भरती के खेले नाटक में/ दुर्योधन के छल
त्राटक में/ आज युवा अभिमन्यु खड़ा है/ शस्त्रहीन पहले फाटक में,/ अर्जुन
कृष्ण सुभद्राओं की/ बेकाबू हर सांस हुई है।' आज का गांव और समाज सचमुच इसी
बेकाबू सांस में धड़क रहा है जो ओम धीरज के गीतों में भी सांस पा रहा है।
सावन सूखे पांव के गीतों की महक और खनक भी यही है।
ओम
धीरज का यह दूसरा गीत संग्रह है जिस की लंबी भूमिका नचिकेता ने लिखी है।
राका प्रकाशन, इलाहाबाद से प्रकाशित सावन सूखे पांव के गीतों में जगह-जगह
मुठभेड़ बहुत है। सवाल और सवालों की फ़ांक बहुत है। ' क्यों हवा को रुंधते/
कुछ खास कोने के लिए,/ है ज़रुरी यह सभी के सांस लेने के लिए/ आज तक है
द्रोण की-/ एकलव्य की प्रचलित कथा, / योग्यता अपमान की है/ एक दारुण व्यथा,
/ सिर्फ़ अंगूठे नहीं, इस/ 'वोट-तांत्रिक लोक' में/ श्रेष्ठता अब बाध्य
होती/ हाथ खोने के लिए। जैसे गीत ओम धीरज की दृष्टि को भी समझने में संकेत
देते हैं। 'हम तो नहीं बंटे थे, फिर भी वे ही बांट गए,/ कहते हैं अंगरेज
देश को/ बरबस फांट गए।' एक बिंब यह भी देखें, 'बूढ़ी मां कांपते होठों से/
खत लिखवाती है,/ फटे नहीं कैसे अब तक यह/ ' बज्जर' छाती है/ लक्षिमन जैसे
देवर काका,/ डाल रहे खेतों पर डांका,/ अपने नाम सभी 'गोंइड़' कर/ हम को
'उसरौटी' पर हांका,/ किस से कहें गरज उस के ही/ सब 'संहाती' हैं।' दरअसल ओम
धीरज के गीतों में गंवई बिंब और घर भीतर के दुख-सुख बार-बार लौट-लौट कर
आते हैं, जाते हैं। जैसे एक और गीत देखें, 'कांप गई अपनी परछाईं/ थर-थर
कांप गई,/ चकबंदी की टीम कभी जब/ मेरे गांव गई।' चकबंदी में बेईमानी और
अंधेरगर्दी की दहशत आज भी गांवों में तारी है। तभी तो ओम धीरज लिखते हैं,
'खोभ-खोभ कर ढूंढ लिए जब/ छान्हीं में जेवर,/ बीते साल कई तब भी ना/ बदले
ये तेवर,/ कब तक रोएं आंख किसानी/ होती लाल गई।'
किसानी के दुख का
यहीं
अंत नहीं है। वह तो लिखते हैं, 'सूखे सावन-पांव/ जेठ के दिन भी झूठ हुए/
लगता भाई घर आया/ बिना किसी पाहुर के/ और बहन की गुमसुम आंखों से ढुरके/
बिजली हंसे ननद सी तिरछे/ बादर रुष्ट हुए/ लगता कोई दूर देश से/ ना घर लौटा
है/ भरी कहतरी दूध देर तक/ घर में औटा है/ धरा मेघ के अधर जुड़े ना/ भाव
भभूत हुए।' ऐसे देशज बिंब अब गीतों से धूल-धुसरित हो चुके हैं। लेकिन ओम
धीरज के गीतों में यह और ऐसे तमाम-तमाम बिंब धरोहर बन कर अपने पूरे टटकेपन
के साथ जैसे
लौट आए हैं। गांव के बिब ही नहीं, दुख-सुख ही नहीं, गाव के कागजी विकास की
भी थाह लेते मिलते हैं ओम धीरज अपने गीतों में। वह लिखते हैं, 'साधो/ अदभुत
है यह रेल,/ कागज की पटरी पर दौड़े/ बन विकास की 'मेल'/दिल्ली से चली गांव
को/ लिए सुहानी भोर,/ ऊपर-ऊपर काजल पारे/ बंद आंख के कोर,/अंधे को अंधा ही
ठेले/ खेलें ठेलम ठेल।' गांव का जीवन और उस के विकास का कंट्रास्ट कैसे तो
उन के गीतों में खदबदाता मिलता
है। एक और बानगी का जायजा लें : ' जा कर देखें/ जीवन कैसा/ गांव-गांव में/
फटी बिवाई/ है क्या अब भी/ पांव-पांव में/ टायर की चप्पल के बूते/ पहिने
नार्थस्टारी जूते/ नीलगाय-सा रौंद रहे हैं/ सपनों की 'जैदाद' अकूते/
सुस्ताएं/ पगुराएं बैठे/ छांव-छांव में।' जीवन का संत्रास भी ओम धीरज के
यहां अपनी पूरी त्वरा में उपस्थित है, 'पंख कटे है, फिर भी कहते/ इस को लोग
परिंदा हैं/ पीठ बंधे हैं हाथ सभी के/
चुभे पैर में कीलें हैं/ चलने के आदेश बहुत ही/ सख्त और भड़कीले हैं/ राह
सनी लोहू से फिर भी/ घिसट-घिसट कर ज़िंदा हैं।' वह लिखते हैं, 'भूख किस की
और किस को भोगना !/ खूब इस को जानता अदना चना !' समय की क्रूरता और उस की
बर्बरता की शिनाख्त बहुत तीव्रतर है उन के यहां, 'छोड़ दो/ हम को/ हमारे हाल
पर/ अब नहीं/ जीना हमें है/ झुनझुने अहसान पर/ इस्तहारों में/ हमारी/ आरती
अब मत करो/ हम नहीं/ नाचेंगे तेरे/
क्रूर बर्बर ताल पर।' वह जैसे जोड़ते हैं एक दूसरे गीत में, ' तन की तकली/
नेह डोर बिन,/ कैसे कभी नचे/ रोज-रोज आंगन भी कुढ़ कर/ मेंहदी हाथ रचे/ अब
गुलाब की झरी पंखुरी/ सिर्फ़ बचे कांटे।' विकास के चूल्हे पर रीझते प्रकृति
और जीवन दोनों के खतरे ओम धीरज एक साथ बांचते मिलते हैं, 'गांव छोड़ कर/ अब
गौरैया/ जंगल भाग रही/ बहुत दिनों तक/ पली बढ़ी थी/ छिटके दानों पर/ पीती
पानी/ आंगन में या/ बने मचानों पर;/
'पौसारे' भी/ सरकारी हों/ जनता मांग रही।' ओम के गीत जैसे मुहावरा गढ़ते
हैं, ' जुते खेत में/ आज कबूतर/ दाना ढूंढ रहे/ मुफ़्तखोर के तंत्र जाल से/
निकल तनिक बाहर,/ अब अपना आकाश नया पैमाना ढूंढ रहे।' उन के यहां सब कुछ
रीत जाने के बावजूद उम्मीदों का उल्लास भी सपने गूंथता मचलता मिलता है,
'शेष हुए सपनों को फिर से जगाएं/ दुबके कपोतों को दाना चुगाएं।'
वह जैसे
आगाह भी करते मिलते हैं इस दुनियावी
चकाचौंध से, 'आंख का पानी कहीं यदि मर गया/ रोशनी के इस किले का क्या
करेंगे !' वह यह भी बांचते चलते हैं, 'भैंस पाल कर घी की बिक्री/ टेढ़ी
खीर हुई/ चर्बी से तो कई पीढ़ियां/ तुरत अमीर हुईं/ मस्ती है मिल बांट-बूट
कर/ खाने वालों की/ बिना आंच के दाल गलाने/ गलने वालों की।' वह जैसे जानते
ही नहीं बताते भी हैं, 'दूध बेच कर जीवन जीना/ इतना सरल नहीं/ सिकुड़े घर
दालान/ सहन तो/ और गई सिकुड़ी/ गोरुआरे में
झिंगही खटिया/ देह बहुत अकड़ी/ कांटों से/ कथरी का सीना / इतना सरल नहीं।'
ओम धीरज के यहां सिर्फ़ गांव-घर और उस के कांटे और फूल ही नहीं हैं, कई बार
वह
व्यवस्था पर कस कर तंज करते हैं, उस से मुठभेड़ भी करते मिलते हैं, ' तुम
कहो
या मैं कहूं/ यह बात तो कहने की है/ दिन में चमगादड़ों ने कर लिया कब्ज़ा
यहां/ उल्लुओं का रात दिन/ होता कड़ा पहरा यहां/ धूप में जुगनू परीक्षा/
शर्त अब रहने की है/ जेल के असली
उपासक/ डाक बंगलों में रहें/ अर्घ्य दे कानून को भी/ मंत्र कुछ उन के कहे/
तुम सहो या हम सहें/ क्या बात यह सहने की है।' इतना ही नहीं एक और गीत में
वह इस बात की पड़ताल को और तराशते हैं, 'धूल चेहरे पर जमी है/ पोछते हैं
आइने/ रोज खुश दिल हो पढ़ाते/ पाठ सुंदर आप को/ पीटते हैं रस्सियां वे/ छोड़
देते सांप को;/ खेल विकसित कर लिया अब/ एक नए अंदाज़ का/ फेंक कर बांएं
किनारे/ ढूंढते हैं दाहिने।' वह जैसे
जोड़ते चलते हैं, ' आस्था विश्वास के जल-/ स्रोत ऐसे खुल गए/ कोयले के भग्न
टुकड़े/ चाक जैसे घुल गए;/ 'दूध-धोए' स्वयंभुओं के/ साथ मिल भव सिंधु को/
दंभ की पतवार ले कर/ चल पड़े हैं थाहने।' ओम धीरज चोट चाहे व्यवस्था पर ही
करें पर गांव उन के गीतों का आधार-बिंदु है। वह उन से छूटता नहीं है, 'दिन
दहाड़े गांव में/ आने लगे हैं भेड़िए/. गांव के खूंखार श्वानों/ का नहीं है
डर उन्हें/ चूसने को चार हड्डी/ फेंक
देते है जिन्हें/ भूंकना तो दूर अब ये/ दुम हिलाते शौक से,/
गिद्ध-कौए-चील-से/ मदमस्त हैं नशेड़िए।' वह बताते भी चलते हैं, 'असली नकली
चेहरे मिल कर/ अब तो एक हुए/ बद थे जो बदनाम बहुत थे/ वे भी नेक हुए।' और
कि, ''ज़ेड प्लस' सुरक्षा/ ले हवा में/ शब्द के तलवार भांजें;/ अनुदान
पोषित/ काजलों से/ घायलों की आंख आंजें।' या फिर यह आंच भी देखिए, '
आस्तीनी सांपों की/ चिंता अब नहीं,/ अब कमीजें ही/ हमें खुद डस
रहीं;/ बीन पर हैं नाचते/ खुद ही सपेरे/ अब सियासत ने नया/ स्वर गढ़ लिया
है।' वह बताते हैं, 'है मगरमच्छ भी बड़े/ अब यहां पानी में/ हाथियां भी
कतराएं/ आज की रवानी में/ जान कर नरम हम को/ कब तलक चबाएंगे।' ओम धीरज का
एक और तेवर देखिए, ' कड़ी धूप में चलना मुश्किल/ फिर भी चलते हैं/ कामगार
मज़दूर दिहाड़ी/ यूं ही पलते हैं/ तेल कड़ाही-सा दिन खौले/ सूरज भट्ठी-सा,/ लू
का थप्पड़ चोट मारता/ पत्थर गिट्टी -सा,/ देखो अमलतास, सा गुलमोहर/ फिर भी
खिलते हैं।'
सावन सूखे पांव के गीतों
में जो गूंज है वह बहुत दिनों तक अपने टटकापन, अपना तेवर और अपने मुहावरे
के विन्यास के लिए बार-बार याद किया जाएगा। इन गीतों को आसानी से भूल जाना
सचमुच सरल नहीं होगा। ठीक वैसे ही जैसे, 'कांटों से/ कथरी का सीना / इतना
सरल नहीं।' ओम धीरज लिख गए हैं।
समीक्ष्य-पुस्तक:
सावन सूखे पांव
कवि-ओम धीरज
प्रकाशक- राका प्रकाशन
40-ए, मोतीलाल नेहरु रोड, इलाहाबाद-२
पृष्ठ-106
मूल्य-150 रुपए
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