अमृतलाल नागर से यह इंटरव्यू मैं ने जून,१९७८ में लिया था। दूरदर्शन केंद्र लखनऊ में
वह मिले। गोरखपुर से आ कर पहले घर पर फ़ोन किया तो वह बोले कि दूरदर्शन आ जाओ। वहीं
से साथ घर चले चलेंगे। फिर बतियाएंगे। उन के बताए टाइम पर मैं वहां पहुंच गया।
जब वहां से चलने लगे दूरदर्शन की कार से तो साथ में शिवानी जी भी थीं। शिवानी जी
चाहती थीं कि पहले नागर जी को वह घर छोड़ें। दोनों में लखनऊवा नफ़ासत भी हुई पहले आप
वाली। पर नागर जी ने इंकार कर दिया। रास्ते में शिवानी जी के बेटे के बारे में वह
पूछते रहे जो उन दिनों मद्रास में था। शिवानी जी को गुलिस्तां कालोनी में उन के घर
छोड़ कर निकले तो मैं ने उन से पूछा कि, ‘नागर जी मुझे गांव का बचपन याद है। इस पर आप कुछ रोचक संस्मरण सुनाएंगे?’ वह हंसने लगे। बोले, ‘नहीं भाई। मैं नागर हूं। नगर का रहने वाला हूं। भला
गांव की बात कहां से बता सकता हूं।‘ और हम दोनों हंसने लगे। लेकिन नागर जी एकाएक हंसी का माहौल तोड़ कर दूर कहीं अतीत
में खो गए।
कहने लगे, ‘फिर भला मैं क्या बचपन की
बात सुना सकता हूं। १०-१५ साल की उमर तक कभी
अकेले नहीं छोड़ा गया, हमेशा एक नौकर या फिर घर का कोई साथ ज़रूर रहता था।‘ इसी तरह की और बातचीत होते-हवाते कार, चौक में नागर जी के घर
वाली गली के सामने रुक गई। घर आने पर नागर जी ने कपड़ा बदला। फिर बातचीत शुरु हुई। बीस साल की मेरी उम्र थी तब। विद्यार्थी था। अध्ययन और समझ
की जगह सिर्फ़ उत्साह और ललक थी। सवाल भी बहुत मेहनत से जोड़़-बटोर कर लिख कर लाया
था। तोता रटंत टाईप। दूसरा कोई लेखक होता तो इंटरव्यू देने ही से मना कर देता। पर
यह अमृतलाल नागर थे। सचमुच उन के स्नेह में अमृत ही छलकता रहता था। और उन का
बड़प्पन देखिए कि जब उन का इंटरव्यू कर के जाने लगा तो वह इस इंटरव्यू के कच्चेपन
को समझ गए, कच्चे सवालों को समझ गए। लेकिन इस बात को उन्हों ने एक बार भी अपनी
जुबान से कहा नहीं। न ही अपने चेहरे पर ऐसा कोई भाव आने दिया। बस इतना सा कहा कि, ‘बेटा
ऐसा करना कि यह इंटरव्यू कहीं छपने भेजने के पहले एक बार मुझे भेज देना। अगर मुझ
से कहीं कुछ कहने में गलती हो गई होगी तो उसे शुद्ध कर दूंगा।‘ मैं ने ऐसा किया
भी। और उन का बड़प्पन देखिए कि मैं ने यह इंटरव्यू लिख कर गोरखपुर से उन्हें 23
जून, 1978 को लखनऊ पोस्ट किया डाक से। और 28 जून, 1978 को उन्हों ने इस इंटरव्यू
को शुद्ध कर के मुझे वापस पोस्ट कर दिया- गोरखपुर। गरज यह कि इंटरव्यू मिलते ही उन्हों ने उसे शुद्ध कर दिया। बिना किसी आलस या नखरे के। यह उन का मुझ पर स्नेह ही था कुछ और नहीं। इतना ही नहीं मेरी इच्छानुसार उन्हों ने अपनी एक फ़ोटो भी साथ भेजी। चिट्ठी लिख कर। वह उन का शुद्ध किया इंटरव्यू आज भी मेरे पास धरोहर के रुप में सुरक्षित
है। वह सचमुच बहुत बड़े लोग थे। उन की याद में मन गमक उठता है जब-तब। पेश है वह
इंटरव्यू।
आप की दृष्टि में लेखक की स्वतंत्रता की
कौन सी सीमाएं हो सकती हैं?
- स्वतंत्रता शब्द का अर्थ
मेरे मन में स्वच्छंदता के रूप में वो है जो कभी
प्रवेश नहीं पा सका। स्वतंत्र वो है जो अपनीव्यवस्था में, अपने तंत्र में रहना है। लेखक स्वतंत्र
व्यक्ति भी है- दोनों तरह से स्व-तंत्रबद्ध है। जो मनुष्य जिस व्यवस्था को मानता
है वो उस को सहसा भंग नहीं करता क्यों कि व्यवस्था आवश्यक है। जहां तक साधारण
नागरिक की तरह एक दूसरे से संबंध स्थापित करना या भाईचारे की व्यवस्था कायम रखने
की बात है, वहां तक तो मैं समाज की व्यवस्था में मर्यादित हूं। किंतु जहां शासन व्यवस्था में या
सामाजिक व्यवस्था में व्यक्ति को सुगति न मिलती हो, वहां शासन या समाज की रूढ़
व्यवस्था को भंग करने में मुझे कोई हिचकिचाहट नहीं। आज का शासन तंत्र जो है- वो
अभी सही तरीके से चेतना के साथ ढल कर हमारे सामने नहीं आया, और हमारे समाज की यह
हालत है कि जैसे लंबी चौड़ी भूमि में एक पुराना खंडहर महल हो, उस के
स्वात्वाधिकारी गण बहुत हों। खंडहर महल की मरम्मत की योजना पूरी तौर से न हो पाने
के कारण व्यक्तियों ने अलग-अलग ढंग से, अपनी आवश्यकता, मनमौज सामर्थ्य के कारण उस के
अलग अलग भागों को तोड़ कर नए सिरे से बनवा लिया हो। महल
के निर्माण में जो पुराना तारतम्य था वह भंग हो गया, नए में तारतम्यता नहीं है। यह बिखरी लय वाले समाज की स्थिति स्वच्छंद है स्वतंत्र नहीं। लेखक, व्यक्ति या समाज की इसी बेतुकी
स्वच्छंदता से विद्रोह कर के स्वतंत्रता
को प्रतिष्ठित करता है।
असंतोष को आप किस सीमा तक
सृजन की शक्ति मानते हैं?
- असंतोष नए चिंतन को बढ़ावा देता है। हमारी नई-नई जिज्ञासाएं जगाता है। बुद्धि के नए-नए आयाम खोजता है। और इस हद तक मैं उस का हामी हूं। पर
असंतोषों की ढईयां छू कर निकम्मे या निठल्ले बैठ जाना मुझे पसंद नहीं। ‘मैं बौरी
ढूंढन चली रही किनारे बैठ !’ यह नहीं पसंद है। असंतोष सृजन का भी एक कारण हो सकता
है। जैसे कि- मेरे साथ कुछ यूं होता है कि मैं ने एक किताब या कृति पूरी की, उस में
जहां तक हो सका मैं तृप्त भी हुआ। लेकिन पूरी तृप्ति तो नहीं ही हो पाती। इस नाते
उस असंतोष को महसूस करता हुआ दूसरी किताब के लिखने में लग जाता हूं।
असंतोष के सामाजिक अथवा
सामूहिक अर्थ को ही लीजिए। इन अर्थों में क्या आप के साथ भी ऐसा हुआ है, या अब भी
है?
- हां, अब भी है। और वो तब
तक रहेगा-जब तक कि समाज ऐसी व्यवस्था नहीं पा लेता जिस में व्यक्ति और समाज दोनों
एक दूसरे से सुरक्षित महसूस करें। और जब तक ऐसा नहीं होता, तब तक असंतोष कायम
रहेगा।
लोग कहते हैं कि आप हर
दृष्टि से सफल आदमी हैं। लेखक की दृष्टि से भी और दुनियादार आदमी की दृष्टि से भी?
- लेखक की दृष्टि से अपनी
सफलता आंकने के लिए मैं पाठक की राय को ही पहला महत्व दूंगा। जहां तक कि व्यक्तिगत
जीवन का संबंध है। मुझे अच्छा नागरिक बनने के लिए अपने परिवार से ही अच्छे संस्कार
मिले हैं। और इस से अधिक मैं अपने बारे में क्या कह सकता हूं।
कहा जाता है सफलता के लिए
समझौता ज़रूरी है और एक रचनाकार से
समझौता जल्दी मुमकिन नहीं होता, फिर आप की सफलता का रहस्य ?
- समझौता बुरा शब्द नहीं
है। समझौता जीवन में बड़े से बड़ा विद्रोही भी करता है। लेकिन समझौता गलत नहीं
होना चाहिए। और ऐसा समझौता तो कतई नहीं होना चाहिए जो हमारे मन में किसी प्रकार की
अपराध या हीन भावना अथवा कुंठा को जगाए। नागरिक जीवन में मैं
बाल-बच्चेदार आदमी हूं, और उन के कारण उत्तरदायित्व की भावना भी बढ़ी। जब मेरे
पिता मरे थे तब दोनों भाई भी छोटे थे। उन का भविष्य सोचा करता था। लेकिन नौकरी
करना स्वीकार नहीं था। स्वतंत्र रहना चाहता था। ज़िम्मेदारी के साथ स्वतंत्र रहने की कला मैं ने इसी संघर्ष से
पाई। पहले साप्ताहिक पत्र निकाला। उस में आर्थिक दृष्टि से असफल हुआ। फिर फ़िल्मी लेखक बना, सफल भी हुआ पर लेखन कार्य की वह तंग सीमा
मुझे खलने लगी। उसे छोड़ा। तब मैं परिवार को चलाने के लिए पेट पालने के तहत, महीने
में तीन हफ़्ते का समय पत्रकारिता या कोई
और ऐसा लेखन कार्य किया जिस में पैसा तुरंत मिल जाया किया करता था। और एक हफ़्ते साहित्य लेखन कार्य किया करता
था। क्यों कि, अब कोई ये कहे कि लेखन के लिए अपने बच्चों तथा परिवार को भूखे रखूं,
ये मुझ से कत्तई संभव नहीं था। या फिर किसी के
आगे हाथ पसारूं, खुशामद करता डोलूं, यह भी मेरे लिए असंभव था।
फिर भी कभी किसी कारणवश
किसी अफसर या सत्ताधीश...
- हां, हां, अफसरों या
सत्ताधीशों से भी किसी व्यक्तिगत कारण से मैं ने कभी समझौता नहीं किया। किंतु सामाजिक उद्देश्य के किए गए कार्यों में मैं ने अकसर उन का सहयोग लिया और दिया है।
अच्छा, कभी कभी ऐसा भी
होता है कि अपनी जिस कृति को लेखक अधिक श्रेष्ठ मानता है, पाठकों को वह अधिक प्रिय
नहीं लगती है। और पाठकों को जो कृति अधिक प्रिय लगती है वह लेखक को नहीं। क्या आप के
साथ भी ऐसा हुआ है?
- फ़िलहाल मेरे साथ अभी तक कोई ऐसी बात नहीं हुई। मेरी हर कृति
को भारी संख्या में पाठक मिले हैं। किसी को उन्नीस, किसी को बीस, यह अलग बात है। जहां
तक हम से कोई पूछे तो मैं यही कहूंगा कि मेरी आने वाली कृति सब से अच्छी है। जिस
पर कि मैं काम कर रहा होता हूं।
रोमांस के बगैर लेखन
कार्य फीका प्रतीत होता है। क्या यह सही है?
- रोमांस से अगर खाली अर्थ
आप का स्त्री-पुरुष प्रेम संबंध से है, तब तो दूसरी बात है। वैसे रोमांस फूलों से,
पहाड़ों से तथा अन्य प्राकृतिक उपादानों से भी होता है। यों मेरी दृष्टि से तो
रोमांस बल्कि कहें प्रेम जहर भी है और अमृत भी।
तो ऐसा क्या आप भी मानते
हैं?
- भई, औरत मर्द का रिश्ता
दुनिया बनाता है, कहानियां, कवितायें रचता है, दार्शनिक स्थिति तक पहुंचाता है। इसे
नकारने का सवाल ही नहीं उठता।
रोमांस और सौदर्य को यथार्थ रूप में
प्रकट करने वाला साहित्य अश्लील कहां पर हो जाता है?
- पहली बात तो-सौंदर्य कभी भी अश्लील नहीं होता। हां, जहां तक लेखन में
अश्लीलता की बात है, वहां लेखन अश्लील सिर्फ वहीं होता है जहां लेखक के व्यक्तिगत
मन की अतृप्त इच्छाएं यथार्थ के नाम पर कलम से अपनी लिप्साएं पूरी करती हैं।
क्या नई पीढ़ी अश्लीलता के अर्थ
में सामयिक दृष्टि से कुछ परिवर्तन ला रही है?
- हां, हां, थोड़ा बहुत
परिवर्तन तो ला ही रही है। क्यों कि हर पीढ़ी का हर हिस्सा तो बीमार नहीं होता।
नई पीढ़ी के लेखन के बारे में
आप क्या सोचते हैं?
- नयी पीढ़ी से ज़्यादा शिकायत मुझे पुराने पीढ़ी
के लोगों से है। जिन्हों ने नई पीढ़ी की चेतना को भूल
भूलैया में, व्यक्तिगत स्वार्थ के कारण बंद कर रखा है। वस्तुतः मैं यह मानता हूं
कि नई पीढ़ी का यह अंधा विद्रोह केवल अपनी सही राह न पाने के कारण ही है। इसे राह
मिलेगी तो वह निश्चय ही आगे बढ़ेगी।
क्या रचना प्रक्रिया के
तहत आप को किसी खास व्यक्ति से प्रेरणा मिली है?
- रचना प्रक्रिया...बल्कि
रचना- चाहे वो कोई भी रचना हो, मनुष्य स्वयं अपने अनुभवों से रचता है। हां, कभी
कभी कोई व्यक्ति भी उस में सहारा दे जाता है। वैसे मैं किसी एक खास व्यक्ति के लिए
ही नहीं कह सकता कि अमुक से मुझे रचना प्रक्रिया में प्रेरणा मिली है।
[1978 में लिया गया इंटरव्यू]
[1978 में लिया गया इंटरव्यू]
बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
ReplyDeleteसाझा करने के लिए आभार...!
बहुत ही सुन्दर संस्मरण और साक्षात्कार
ReplyDeleteशानदार धरोहर है सम्भाल कर रखियेगा आदरणीय
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर, साधुवाद।
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