पहले किसी फ़िल्म को सेंसर बोर्ड अगर 'ए' सर्टिफ़ेकेट देता था तो निर्माता-निर्देशक दुखी हो जाते थे कि फ़िल्म कम चलेगी। लोग परिवार सहित नहीं देखेंगे। पर अब उल्टा हो गया है। फ़िल्म को अगर 'ए' सर्टिफ़िकेट मिल जाता है तो निर्माता-निर्देशक उछल जाते हैं कि लोग खूब देखेंगे। असल में आर्थिक उदारीकरण का व्याकरण अब सिर्फ़ रोटी पर ही नहीं फ़िल्मों के व्याकरण पर भी तारी है। खास कर हिंदी फ़िल्मों के व्याकरण पर। हिंसा और सेक्स अब एक बिकाऊ मैटिरियल है। गैंग्स आफ़ वासेपुर इस की ताज़ी मिसाल है। तिस पर तुर्रा यह कि तेरी कह के लूंगा। नहीं, आप मुझ पर भड़कें नहीं एक गाना है यह इस फ़िल्म का - तेरी कह के लूंगा।
अब आप क्या बनाएंगे, क्या बताएंगे और क्या दिखाएंगे यह भी हम पूछ नहीं सकते। अदभुत घालमेल है। पहले भी फ़िल्में बाज़ार के रथ पर ही सवार थीं। पर अब बाज़ार के सिर पर सवार ही नहीं हैं जैसे दर्शक के सिर पर आग मूत रही हैं। और कोई कुछ कहने या पूछने वाला नहीं है। एक माध्यम मिल गया है इलेक्ट्रानिक मीडिया का। जो पैसा खा कर किसी भी कचरे को फ़िल्म बता देता है, किसी भी ऐरी-गैरी फ़िल्म को महान ही नहीं महानतम बना-बता देता है। और हम बे-बस फ़िल्म का दीदार कर आते हैं। पब्लिसिटी का बुखार देखते समय भी तारी रहता है। देखने के बाद भी उतरता नहीं है। अच्छा जो कोई सवाल फूटता भी है फ़िल्म देख कर तो हम पूछें भी किस से? अगला तो जैसे चल चुका होता है, बाज़ार समेट कर। ठीक वैसे ही जैसे कोई किसी मंदिर के आस-पास अचानक किसी बुढ़िया को मिल जाए और बुढ़िया के सारे ज़ेवर उतार कर उसे दोगुना बनाने का झांसा दे कर ले उड़े।
फ़िल्में पहले भी बनती थीं पर लगभग सभी फ़िल्मों का जैसे एक अनिवार्य पाठ होता था प्रेम और अहिंसा का। कोई न कोई संदेश भी होता ही था। फ़िल्म भी एक रचना ही है। सो फ़िल्मों की फ़ैंटेसी में लाख हिंसा हो, फ़रेब और अत्याचार हो पर संदेश यही आता था कि सत्यमेव जयते। पर अब जो समाज हमारा बन रहा है, फ़िल्में हमारी बता रही है - असत्यमेव जयते का पाठ पढ़ा रही हैं वह। धड़ल्ले से। हिंसा हमारे जीवन और समाज में अभी अनिवार्य हिस्सा नहीं हैं पर अब ज़्यादातर फ़िल्मों की सांस है - हिंसा और सेक्स। फ़िल्म का नया व्याकरण अब कहानी या संदेश नहीं सिर्फ़ हिंसा और सेक्स परोसता है और कमा कर निकल लेता है। गैंग्स आफ़ वासेपुर की फ़िल्मोग्राफ़ी में भी यही तत्व सिर पर आग मूत रहा है। समूची फ़िल्म हिंसा और व्यभिचार के कोलाज का कंट्रास्ट रच कर दर्शक को एक चक्रव्यूह में छोड़ जाती है। और साथ ही बता जाती है कि इस की दूसरी् किस्त में भी हम आप को कुछ 'नया' और नए रंग में दिखाएंगे। क्यों कि सरदार खान का बदला अभी पहली किस्त में पूरा नहीं हुआ है। वह अनगिनत गोलियां खा कर अभी घायल है और ठेलिया पर चढ़ा चला जा रहा है। अर्धमूर्छित है। नीम बेहोश। और जाहिर है जब दूसरी किस्त में आएगा सरदार खान तब उस की मूर्छा टूटेगी और वह फिर कह कर ही सही लेगा ज़रुर।
जो कथ्य उठाया है अनुराग कश्यप ने गैंग्स आफ़ वासेपुर में उस में संभावनाएं असीमित थीं अच्छी फ़िल्म बनने की। मनोज वाजपेयी जैसा असीमित संभावनाओं वाला अभिनेता था उन के पास। उन के पास अच्छे गाने भी थे एक से बढ़ कर एक। संगीत और लोकेशन भी। पैना कैमरा भी और चुटीले-धारदार संवाद भी। पर बस जो एक बात नहीं है अनुराग कश्यप के पास तो बस एक दृष्टि नहीं है। बस फ़िल्म यहीं मार खा कर रह गई। एक बड़ी फ़िल्म बनने की बजाय चालू फ़िल्म बन कर रह गई। एक बगल में चांद था, एक बगल में रोटियां जैसा गाना फ़िल्म को एक नई ऊंचाई पर ले जा सकता था, अगर इस फ़िल्म को एक दृष्टि के तहत बनाया गया होता। पर एक बगल में चांद था, एक बगल में रोटियां की जगह फ़िल्म तेरी कह के लूंगा में निपट गई। पैसा कमाने का शार्टकट एक अच्छी फ़िल्म से महरूम कर गया। सारी संभावनाओं पर जैसे पानी पड़ गया। गैंग जैसी कोई कहानी पूरी फ़िल्म में दिखती नहीं। गैंग्स तो छोडिए एक गैंग भी कायदे से नहीं है। बदला भी नहीं, बदले की बात भर है। वह भी तेरी कह के लूंगा के तर्ज़ पर। एक दृष्य देखिए। एक पात्र सरदार खान के बेटे से बात कर रहा है। और बता रहा है कि बदला ऐसे नहीं लिया जाता। अब देखो कि अमिताभ बच्चन जंज़ीर फ़िल्म में इंस्पेक्टर बनता है, ठीक से बदला नहीं ले पाता पर जब दीवार में गुंडा माफ़िया बनता हैं तो बदला ठीक से ले लेता है। गरज यह कि इस समाज और इस देश में बदला लेना अनिवार्य है और कि उस के लिए तरीका भी नाज़ायज़ ही होना चाहिए। इस फ़िल्म का संदेश यही तो है? चलिए यहां नहीं बात करते मदर इंडिया, मुगले-आज़म, पाकीज़ा या कागज़ के फूल आदि फ़िल्मों या उन के मिजाज की। पर सोचिए कि एक समय हिंदी फ़िल्मों में दो आंखें बारह हाथ का भी था। कि हिंसक और खतरनाक डाकू भी अहिंसा का पाठ पढ़ते थे और मार खा लेते थे पर हाथ नहीं उठाते थे। एक अहिंसक समाज का सपना रचते थे दो आंखें बारह हाथ के मार्फ़त ह्वी शांता राम जैसे फ़िल्मकार। पर अब आज के अनुराग कश्यप जैसे फ़िल्मकार हिंसा और व्यभिचार का अनिवार्य पाठ पढ़ा रहे हैं। और कान महोत्सव में जा कर चर्चा भी बटोर रहे हैं। हिंसा में सनी, फ़ैंटेसी में पगी फ़िल्में पहले भी बनती रही हैं। पर उन फ़िल्मों में भी कुछ तो पाज़िटिव होता ही था। हम याद कर सकते हैं गुलज़ार की फ़िल्म मेरे अपने की। खूब डट कर हिंसा है, पर बेरोजगारी से उपजी हिंसा है। एन चंद्रा की अंकुश या फ़िर महेश भट्ट की तमाम फ़िल्में हैं जिन में हिंसा और सेक्स भरपेट है पर कहीं कुछ तो और भी है। प्रतिघात की भी याद आती है। शोले को भी जोड़ लेते हैं। पर बहुतेरी ऐसी फ़िल्में हैं सेक्स और हिंसा से भरी-पुरी। पर कुछ तो फ़िल्म भी है। कुछ तो सपना भी है। कुछ तो विज़न भी है। और यहीं गैंग्स आफ़ वासेपुर चूक जाती है। कोयला माफ़िया और कोयला मज़दूरों पर पहले भी फ़िल्में बनी हैं। उस में भी हिंसा है, प्यार है पर मज़दूरों का दुख दर्द और उन का अंतरसंघर्ष भी सामने आता है। काला पत्थर एक ऐसी ही फ़िल्म है। मल्टी स्टारर फ़िल्म है।
पर अनुराग कश्यप की इस फ़िल्म में यह अनबूझ ही है कि वह किस बात पर फ़ोकस करना चाहते हैं। किसी माफ़िया पर या मज़दूर पर? किसी समय-काल पर या किसी व्यवस्था पर? या कि सिर्फ़ कोयला तो एक बहाना है, बिहार या झारखंड तो एक बहाना है। इस बहाने सिर्फ़ व्यर्थ की हिंसा की एक नदी भी बहानी थी, सो बहा दी। पर हिंसा की भी एक तार्किकता होती है, यह भी वह भूल गए। कम से कम प्रकाश झा से वह अगर प्रेरित थे तो उन से ही सही हिंसा की तार्किकता का भी फ़न सीख लिए होते। प्रकाश झा के यहां भी हिंसा की चाशनी खूब मिलती है जो बिहार की ज़मीन और उस के समयकाल कहिए या अंतरसंघर्ष से ही उपजती है। और अपनी समूची तार्किकता के साथ एक 'काज़' भी, एक मकसद भी उस का होता ही है। जिस का अंतत: एक सकारात्मक पक्ष भी दिखता है। जो अनुराग कश्यप के यहां अनुपस्थित है। क्यों अनुपस्थित है? यह एक बड़ा सवाल है।
फ़िल्म में कई जगह नैरेशन का इस्तेमाल है, ब्रिटिश पीरियड का ज़िक्र है, वह दौर भी है, सुल्ताना डाकू का दौर है, लूट है, आज़ादी है, नेहरु का भाषण है, जगजीवन राम का ज़िक्र और विज़ुवल है तो एकाध बार भ्रम हो जाता है कि टाइम या पीरियड फ़िल्म तो नहीं है कहीं? पर जल्दी ही भ्रम टूटता है और पता लग जाता है कि यह बे सिर पांव की एक बेहूदा और मसाला फ़िल्म है। जिस ने गलती से कहिए या जान-बूझ कर शेर की खाल ओढ़ ली है। रंगा सियार है, शेर नहीं। फ़िल्म का जो लास्ट हाफ़ है वह तो धीरे-धीरे सी ग्रेड की फ़िल्मों का रुख कर लेती है। अपने अच्छे संवादों और सुंदर गीतों की भी परवाह नहीं करती यह फ़िल्म। कुछ दृष्य भी इतने अच्छे बुने गए थे कि उन की महक भी जाती रहती है। और कई बार गीतों का दृष्य और माहौल से भी कोई सरोकार नहीं रह जाता। आधे-अधूरे गीत भी जब-तब क्यों बज रहे हैं, किस के लिए बज रहे हैं यह सिर्फ़ और सिर्फ़ अनुराग कश्यप ही जान सकते हैं मेरे जैसे सामान्य दर्शक तो हरगिज़ नहीं। अब बताइए कि आप का सो काल्ड नायक गोली खा कर नीम बेहोश, मूर्छित है और गाना बज रहा है जिय हो बिहार क लाला ! यह भी नहीं कि पहले बज चुका हो आप अब दुहरा रहे हों। क्या मतलब है भाई? तिस पर वासेपुर को आप झारखंड में बता चुके हैं नैरेशन में पहले। बाकी तमाम गानों की भी फ़ज़ीहत यही या और तरीकों से हुई है। और जब ऐसा ही था तो गानों की ज़रुरत क्या डाक्टर ने बताई थी? एक बगल में चांद है, एक बगल में रोटियां जैसा मारक गीत भी ऐसी ही धुंध में खो जाता है। कई बार कुछ मोहक संवाद भी इसी तरह पैच-अप के मूड में चस्पा दिखते हैं। और बताइए कि यहां कोयला माफ़िया जो कि मंत्री भी है, कितना ताकतवर है? कि एस. पी. के आफ़िस में, एस पी के सामने ही उस के बेटे को जो कि विधायक भी है, एक मामूली सा गुंडा लपड़िया देता है। और उस का साथी भी हंसते हुए एस पी से पूछता है कि इन को लाफ़ा मारने का कितना सज़ा होता है एस पी साहब? कह कर वह लपड़िया भी देता है। और गिरफ़्तार हो जाता है। अब यह माफ़िया है कि कार्टून? बताइए कि मंत्री भी है और एस पी के आगे मामूली अपराधियों सा खड़ा भी रहता है। एस. पी. के सामने कुर्सी पर बैठ भी नहीं पाता। ऐसे ही माफ़िया मंत्री होते हैं क्या कहीं? हां अनुराग कश्यप के यहां ज़रुर हो गए हैं। और तो और अपने देश में कोयला स्कैम अब सब से बड़ा स्कैम बन कर उभरने को तैयार खड़ा है और इस फ़िल्म में बताया जा रहा है कि व्यवसाय में कोयले के दिन अब विदा हो गए। वह भी अस्सी के दशक के काल में। हद है। सूरजदेव सिंह जैसे माफ़िया राजनीतिज्ञ भी छाया रुप में ही सही कहीं नहीं दिखते।
कुछ भड़कीले, चमकदार और गाली गलौज भरे संवादों और हिंसात्मक दृष्यों का प्रोमो चैनलों पर दिखा कर, सिने समीक्षकों को प्रायोजित कर, अपने इंटरव्यू आदि दिखा कर आप दर्शकों को सिनेमाघरों तक बेवकूफ़ बना कर बुला तो सकते है, पैसा कमा तो सकते हैं पर क्लासिक बनाने का भ्रम भी अगर पाल लेते हैं अनुराग कश्यप तो समझिए कि हिंदी सिनेमा और उस के दर्शक आप को माफ़ करने वाले हैं नहीं। यह शॉर्टकट आप को पैसा, ग्लैमर आदि तात्कालिक रुप से दे क्या सकता है, दे ही दिया है पर आप को ज़रा राजकपूर की याद दिलाता चलता हूं अनुराग कश्यप। राज कपूर बहुत बदनाम थे एक समय अपनी नायिकाओं को एक्स्पोज़ करने के लिए। हालां कि आवारा से लगायत जागते रहो और संगम, सत्यम शिवम सुंदरम या राम तेरी गंगा मैली हो गई तक वह सिर्फ़ नायिकाओं का वक्ष दर्शन ही करवा कर धन्य होते रहे। मेरा नाम जोकर जैसी अपनी सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म में भी वह इस नुस्खे कहिए या उन की कमज़ोरी से बाज़ नहीं आए। पर इसी मेरा नाम जोकर के पिट जाने पर जब वह लगभग खुद भी पिट गए थे, दीवालिया हो गए थे और कोई फ़िल्म नहीं बना पा रहे थे तो कुछ लोग उन के पास यह बताने गए कि सोवियत संघ यानी रुस में उन का बड़ा नाम है, वहां आलू का निर्यात हो रहा है। रुस से वह आलू निर्यात करने का लाइसेंस ले लें तो सारा घाटा पूरा हो जाएगा। राजकपूर ने साफ मना कर दिया और कह दिया कि अभी यह दिन नहीं आए हैं कि राज कपूर आलू बेचने लग जाए। राज कपूर फ़िल्म ही बनाएगा, आलू नहीं बेचेगा। कुछ दिन बाद हाजी मस्तान ने राज कपूर को अपने घर खाने पर बुलाया। चार-छ पेग पी-पिला लेने के बाद हाजी मस्तान ने राज कपूर से बड़े आदर से कहा कि राज साहब आप फ़िल्म बनाइए, पैसा मैं देता हूं। फ़िल्म चल जाए तो लौटा दीजिएगा, नहीं भूल जाइएगा। राज कपूर चुप रहे। पर जब हाजी मस्तान ने यही बात दुबारा कही तो राज कपूर ने हाजी मस्तान से साफ कह दिया कि फ़िल्म तो मैं बनाऊंगा पर माफ़ कीजिए आप के पैसे से नहीं। और उठ कर चल दिए। अब सुनता हूं कि राजकपूर के पोते रणवीर कपूर ने विज्ञापनों से ही इतना पैसा कमा लिया है कि राज कपूर उतना अपने जीवन भर में नहीं कमा पाए। पर मैं पूछना चाहता हूं कि जो फ़िल्मोग्राफ़ी राज कपूर की है, रणवीर कपूर क्या उस का नाखून भी छू पाएंगे? तो अनुराग कश्यप और उन के जैसे तमाम फ़िल्मकारों को चाहिए कि पैसा ही जो कमाना है तो दुनिया में बहुतेरे धंधे हैं, एक फ़िल्म ही नहीं। फ़िल्म को रचना ही रहने दें, रंडी न बनाएं।
अब आप क्या बनाएंगे, क्या बताएंगे और क्या दिखाएंगे यह भी हम पूछ नहीं सकते। अदभुत घालमेल है। पहले भी फ़िल्में बाज़ार के रथ पर ही सवार थीं। पर अब बाज़ार के सिर पर सवार ही नहीं हैं जैसे दर्शक के सिर पर आग मूत रही हैं। और कोई कुछ कहने या पूछने वाला नहीं है। एक माध्यम मिल गया है इलेक्ट्रानिक मीडिया का। जो पैसा खा कर किसी भी कचरे को फ़िल्म बता देता है, किसी भी ऐरी-गैरी फ़िल्म को महान ही नहीं महानतम बना-बता देता है। और हम बे-बस फ़िल्म का दीदार कर आते हैं। पब्लिसिटी का बुखार देखते समय भी तारी रहता है। देखने के बाद भी उतरता नहीं है। अच्छा जो कोई सवाल फूटता भी है फ़िल्म देख कर तो हम पूछें भी किस से? अगला तो जैसे चल चुका होता है, बाज़ार समेट कर। ठीक वैसे ही जैसे कोई किसी मंदिर के आस-पास अचानक किसी बुढ़िया को मिल जाए और बुढ़िया के सारे ज़ेवर उतार कर उसे दोगुना बनाने का झांसा दे कर ले उड़े।
फ़िल्में पहले भी बनती थीं पर लगभग सभी फ़िल्मों का जैसे एक अनिवार्य पाठ होता था प्रेम और अहिंसा का। कोई न कोई संदेश भी होता ही था। फ़िल्म भी एक रचना ही है। सो फ़िल्मों की फ़ैंटेसी में लाख हिंसा हो, फ़रेब और अत्याचार हो पर संदेश यही आता था कि सत्यमेव जयते। पर अब जो समाज हमारा बन रहा है, फ़िल्में हमारी बता रही है - असत्यमेव जयते का पाठ पढ़ा रही हैं वह। धड़ल्ले से। हिंसा हमारे जीवन और समाज में अभी अनिवार्य हिस्सा नहीं हैं पर अब ज़्यादातर फ़िल्मों की सांस है - हिंसा और सेक्स। फ़िल्म का नया व्याकरण अब कहानी या संदेश नहीं सिर्फ़ हिंसा और सेक्स परोसता है और कमा कर निकल लेता है। गैंग्स आफ़ वासेपुर की फ़िल्मोग्राफ़ी में भी यही तत्व सिर पर आग मूत रहा है। समूची फ़िल्म हिंसा और व्यभिचार के कोलाज का कंट्रास्ट रच कर दर्शक को एक चक्रव्यूह में छोड़ जाती है। और साथ ही बता जाती है कि इस की दूसरी् किस्त में भी हम आप को कुछ 'नया' और नए रंग में दिखाएंगे। क्यों कि सरदार खान का बदला अभी पहली किस्त में पूरा नहीं हुआ है। वह अनगिनत गोलियां खा कर अभी घायल है और ठेलिया पर चढ़ा चला जा रहा है। अर्धमूर्छित है। नीम बेहोश। और जाहिर है जब दूसरी किस्त में आएगा सरदार खान तब उस की मूर्छा टूटेगी और वह फिर कह कर ही सही लेगा ज़रुर।
जो कथ्य उठाया है अनुराग कश्यप ने गैंग्स आफ़ वासेपुर में उस में संभावनाएं असीमित थीं अच्छी फ़िल्म बनने की। मनोज वाजपेयी जैसा असीमित संभावनाओं वाला अभिनेता था उन के पास। उन के पास अच्छे गाने भी थे एक से बढ़ कर एक। संगीत और लोकेशन भी। पैना कैमरा भी और चुटीले-धारदार संवाद भी। पर बस जो एक बात नहीं है अनुराग कश्यप के पास तो बस एक दृष्टि नहीं है। बस फ़िल्म यहीं मार खा कर रह गई। एक बड़ी फ़िल्म बनने की बजाय चालू फ़िल्म बन कर रह गई। एक बगल में चांद था, एक बगल में रोटियां जैसा गाना फ़िल्म को एक नई ऊंचाई पर ले जा सकता था, अगर इस फ़िल्म को एक दृष्टि के तहत बनाया गया होता। पर एक बगल में चांद था, एक बगल में रोटियां की जगह फ़िल्म तेरी कह के लूंगा में निपट गई। पैसा कमाने का शार्टकट एक अच्छी फ़िल्म से महरूम कर गया। सारी संभावनाओं पर जैसे पानी पड़ गया। गैंग जैसी कोई कहानी पूरी फ़िल्म में दिखती नहीं। गैंग्स तो छोडिए एक गैंग भी कायदे से नहीं है। बदला भी नहीं, बदले की बात भर है। वह भी तेरी कह के लूंगा के तर्ज़ पर। एक दृष्य देखिए। एक पात्र सरदार खान के बेटे से बात कर रहा है। और बता रहा है कि बदला ऐसे नहीं लिया जाता। अब देखो कि अमिताभ बच्चन जंज़ीर फ़िल्म में इंस्पेक्टर बनता है, ठीक से बदला नहीं ले पाता पर जब दीवार में गुंडा माफ़िया बनता हैं तो बदला ठीक से ले लेता है। गरज यह कि इस समाज और इस देश में बदला लेना अनिवार्य है और कि उस के लिए तरीका भी नाज़ायज़ ही होना चाहिए। इस फ़िल्म का संदेश यही तो है? चलिए यहां नहीं बात करते मदर इंडिया, मुगले-आज़म, पाकीज़ा या कागज़ के फूल आदि फ़िल्मों या उन के मिजाज की। पर सोचिए कि एक समय हिंदी फ़िल्मों में दो आंखें बारह हाथ का भी था। कि हिंसक और खतरनाक डाकू भी अहिंसा का पाठ पढ़ते थे और मार खा लेते थे पर हाथ नहीं उठाते थे। एक अहिंसक समाज का सपना रचते थे दो आंखें बारह हाथ के मार्फ़त ह्वी शांता राम जैसे फ़िल्मकार। पर अब आज के अनुराग कश्यप जैसे फ़िल्मकार हिंसा और व्यभिचार का अनिवार्य पाठ पढ़ा रहे हैं। और कान महोत्सव में जा कर चर्चा भी बटोर रहे हैं। हिंसा में सनी, फ़ैंटेसी में पगी फ़िल्में पहले भी बनती रही हैं। पर उन फ़िल्मों में भी कुछ तो पाज़िटिव होता ही था। हम याद कर सकते हैं गुलज़ार की फ़िल्म मेरे अपने की। खूब डट कर हिंसा है, पर बेरोजगारी से उपजी हिंसा है। एन चंद्रा की अंकुश या फ़िर महेश भट्ट की तमाम फ़िल्में हैं जिन में हिंसा और सेक्स भरपेट है पर कहीं कुछ तो और भी है। प्रतिघात की भी याद आती है। शोले को भी जोड़ लेते हैं। पर बहुतेरी ऐसी फ़िल्में हैं सेक्स और हिंसा से भरी-पुरी। पर कुछ तो फ़िल्म भी है। कुछ तो सपना भी है। कुछ तो विज़न भी है। और यहीं गैंग्स आफ़ वासेपुर चूक जाती है। कोयला माफ़िया और कोयला मज़दूरों पर पहले भी फ़िल्में बनी हैं। उस में भी हिंसा है, प्यार है पर मज़दूरों का दुख दर्द और उन का अंतरसंघर्ष भी सामने आता है। काला पत्थर एक ऐसी ही फ़िल्म है। मल्टी स्टारर फ़िल्म है।
पर अनुराग कश्यप की इस फ़िल्म में यह अनबूझ ही है कि वह किस बात पर फ़ोकस करना चाहते हैं। किसी माफ़िया पर या मज़दूर पर? किसी समय-काल पर या किसी व्यवस्था पर? या कि सिर्फ़ कोयला तो एक बहाना है, बिहार या झारखंड तो एक बहाना है। इस बहाने सिर्फ़ व्यर्थ की हिंसा की एक नदी भी बहानी थी, सो बहा दी। पर हिंसा की भी एक तार्किकता होती है, यह भी वह भूल गए। कम से कम प्रकाश झा से वह अगर प्रेरित थे तो उन से ही सही हिंसा की तार्किकता का भी फ़न सीख लिए होते। प्रकाश झा के यहां भी हिंसा की चाशनी खूब मिलती है जो बिहार की ज़मीन और उस के समयकाल कहिए या अंतरसंघर्ष से ही उपजती है। और अपनी समूची तार्किकता के साथ एक 'काज़' भी, एक मकसद भी उस का होता ही है। जिस का अंतत: एक सकारात्मक पक्ष भी दिखता है। जो अनुराग कश्यप के यहां अनुपस्थित है। क्यों अनुपस्थित है? यह एक बड़ा सवाल है।
फ़िल्म में कई जगह नैरेशन का इस्तेमाल है, ब्रिटिश पीरियड का ज़िक्र है, वह दौर भी है, सुल्ताना डाकू का दौर है, लूट है, आज़ादी है, नेहरु का भाषण है, जगजीवन राम का ज़िक्र और विज़ुवल है तो एकाध बार भ्रम हो जाता है कि टाइम या पीरियड फ़िल्म तो नहीं है कहीं? पर जल्दी ही भ्रम टूटता है और पता लग जाता है कि यह बे सिर पांव की एक बेहूदा और मसाला फ़िल्म है। जिस ने गलती से कहिए या जान-बूझ कर शेर की खाल ओढ़ ली है। रंगा सियार है, शेर नहीं। फ़िल्म का जो लास्ट हाफ़ है वह तो धीरे-धीरे सी ग्रेड की फ़िल्मों का रुख कर लेती है। अपने अच्छे संवादों और सुंदर गीतों की भी परवाह नहीं करती यह फ़िल्म। कुछ दृष्य भी इतने अच्छे बुने गए थे कि उन की महक भी जाती रहती है। और कई बार गीतों का दृष्य और माहौल से भी कोई सरोकार नहीं रह जाता। आधे-अधूरे गीत भी जब-तब क्यों बज रहे हैं, किस के लिए बज रहे हैं यह सिर्फ़ और सिर्फ़ अनुराग कश्यप ही जान सकते हैं मेरे जैसे सामान्य दर्शक तो हरगिज़ नहीं। अब बताइए कि आप का सो काल्ड नायक गोली खा कर नीम बेहोश, मूर्छित है और गाना बज रहा है जिय हो बिहार क लाला ! यह भी नहीं कि पहले बज चुका हो आप अब दुहरा रहे हों। क्या मतलब है भाई? तिस पर वासेपुर को आप झारखंड में बता चुके हैं नैरेशन में पहले। बाकी तमाम गानों की भी फ़ज़ीहत यही या और तरीकों से हुई है। और जब ऐसा ही था तो गानों की ज़रुरत क्या डाक्टर ने बताई थी? एक बगल में चांद है, एक बगल में रोटियां जैसा मारक गीत भी ऐसी ही धुंध में खो जाता है। कई बार कुछ मोहक संवाद भी इसी तरह पैच-अप के मूड में चस्पा दिखते हैं। और बताइए कि यहां कोयला माफ़िया जो कि मंत्री भी है, कितना ताकतवर है? कि एस. पी. के आफ़िस में, एस पी के सामने ही उस के बेटे को जो कि विधायक भी है, एक मामूली सा गुंडा लपड़िया देता है। और उस का साथी भी हंसते हुए एस पी से पूछता है कि इन को लाफ़ा मारने का कितना सज़ा होता है एस पी साहब? कह कर वह लपड़िया भी देता है। और गिरफ़्तार हो जाता है। अब यह माफ़िया है कि कार्टून? बताइए कि मंत्री भी है और एस पी के आगे मामूली अपराधियों सा खड़ा भी रहता है। एस. पी. के सामने कुर्सी पर बैठ भी नहीं पाता। ऐसे ही माफ़िया मंत्री होते हैं क्या कहीं? हां अनुराग कश्यप के यहां ज़रुर हो गए हैं। और तो और अपने देश में कोयला स्कैम अब सब से बड़ा स्कैम बन कर उभरने को तैयार खड़ा है और इस फ़िल्म में बताया जा रहा है कि व्यवसाय में कोयले के दिन अब विदा हो गए। वह भी अस्सी के दशक के काल में। हद है। सूरजदेव सिंह जैसे माफ़िया राजनीतिज्ञ भी छाया रुप में ही सही कहीं नहीं दिखते।
कुछ भड़कीले, चमकदार और गाली गलौज भरे संवादों और हिंसात्मक दृष्यों का प्रोमो चैनलों पर दिखा कर, सिने समीक्षकों को प्रायोजित कर, अपने इंटरव्यू आदि दिखा कर आप दर्शकों को सिनेमाघरों तक बेवकूफ़ बना कर बुला तो सकते है, पैसा कमा तो सकते हैं पर क्लासिक बनाने का भ्रम भी अगर पाल लेते हैं अनुराग कश्यप तो समझिए कि हिंदी सिनेमा और उस के दर्शक आप को माफ़ करने वाले हैं नहीं। यह शॉर्टकट आप को पैसा, ग्लैमर आदि तात्कालिक रुप से दे क्या सकता है, दे ही दिया है पर आप को ज़रा राजकपूर की याद दिलाता चलता हूं अनुराग कश्यप। राज कपूर बहुत बदनाम थे एक समय अपनी नायिकाओं को एक्स्पोज़ करने के लिए। हालां कि आवारा से लगायत जागते रहो और संगम, सत्यम शिवम सुंदरम या राम तेरी गंगा मैली हो गई तक वह सिर्फ़ नायिकाओं का वक्ष दर्शन ही करवा कर धन्य होते रहे। मेरा नाम जोकर जैसी अपनी सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म में भी वह इस नुस्खे कहिए या उन की कमज़ोरी से बाज़ नहीं आए। पर इसी मेरा नाम जोकर के पिट जाने पर जब वह लगभग खुद भी पिट गए थे, दीवालिया हो गए थे और कोई फ़िल्म नहीं बना पा रहे थे तो कुछ लोग उन के पास यह बताने गए कि सोवियत संघ यानी रुस में उन का बड़ा नाम है, वहां आलू का निर्यात हो रहा है। रुस से वह आलू निर्यात करने का लाइसेंस ले लें तो सारा घाटा पूरा हो जाएगा। राजकपूर ने साफ मना कर दिया और कह दिया कि अभी यह दिन नहीं आए हैं कि राज कपूर आलू बेचने लग जाए। राज कपूर फ़िल्म ही बनाएगा, आलू नहीं बेचेगा। कुछ दिन बाद हाजी मस्तान ने राज कपूर को अपने घर खाने पर बुलाया। चार-छ पेग पी-पिला लेने के बाद हाजी मस्तान ने राज कपूर से बड़े आदर से कहा कि राज साहब आप फ़िल्म बनाइए, पैसा मैं देता हूं। फ़िल्म चल जाए तो लौटा दीजिएगा, नहीं भूल जाइएगा। राज कपूर चुप रहे। पर जब हाजी मस्तान ने यही बात दुबारा कही तो राज कपूर ने हाजी मस्तान से साफ कह दिया कि फ़िल्म तो मैं बनाऊंगा पर माफ़ कीजिए आप के पैसे से नहीं। और उठ कर चल दिए। अब सुनता हूं कि राजकपूर के पोते रणवीर कपूर ने विज्ञापनों से ही इतना पैसा कमा लिया है कि राज कपूर उतना अपने जीवन भर में नहीं कमा पाए। पर मैं पूछना चाहता हूं कि जो फ़िल्मोग्राफ़ी राज कपूर की है, रणवीर कपूर क्या उस का नाखून भी छू पाएंगे? तो अनुराग कश्यप और उन के जैसे तमाम फ़िल्मकारों को चाहिए कि पैसा ही जो कमाना है तो दुनिया में बहुतेरे धंधे हैं, एक फ़िल्म ही नहीं। फ़िल्म को रचना ही रहने दें, रंडी न बनाएं।
Achxcha to likha , thoda atirek vaise hi ho gaya hai, jaise aapki nazar men Anurag ki yeh Film. Shabdon ka dohrav akharta hai. Rah gayi " Bihar k lala " waale geet ki Taareef na krke uski SITUATION pr sawal khada karte hain, aakheer taareef karenge bhi kyon... Aakhir aap Manoj tiwari k param aalochak jo thahre ! Khair filmo pr theek-thaak likh rahe hain ... yehi kya kam hai !
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