Tuesday 3 July 2012

समाज की सतायी औरतों की प्रेरणा

जहाँ लोकतत्र दम तोड़ देता है

- विभांशु दिव्याल

दयानंद पांडेय का नया उपन्यास ‘बांसगांव की मुनमुन’ दुनिया भर की उन औरतों को समर्पित है, जो परिवार और समाज में अपने अस्तित्व और सम्मान का संघर्ष कर रही हैं। बांसगांव पूर्वी उत्तर प्रदेश का एक कस्बा है, जहां के बाबू साहबों में सामंती संस्कार इतने गहरे हैं कि उन की जड़ों को खोदने में हमारे लोकतंत्र की 60 साला धार भी भोथरी पड़ गई है। दबंगई और दबंगई के जरिए बांसगांव से ले कर बनारस तक दबदबा कायम करने की ललक आज भी यहां शान और मान की बात मानी जाती है। पट्टीदारी के झगड़े यहां आम चलन का हिस्सा हैं और इनके चलते खून-खराबा होते रहना भी। किसी की सामंती या अर्द्ध सामंती समाज की रवायतों की तर्ज पर यहां भी औरत दोयम दर्जे की नागरिक है, जिस के ऊपर घर-परिवार की सारी नैतिकताओं और मर्यादाओं को ढोने का बोझ तो भरपूर लदा है, मगर उस की अपनी आज़ादी, इच्छाएं, कामनाएं सब घर की चारदीवारी की वर्जनाओं में कैद है। इसी परिवेश में पली-बढ़ी है बांसगांव की मुनमुन।

मुनमुन के पिता मुनक्का राय बांसगांव की तहसील में वकील हैं, जिन की वकालत नरम-गरम चलती रहती है। कभी खासा पैसा आ जाता है, तो कभी घर चलाना मुश्किल हो जाता है। तिस पर उन से और उन की चढ़ती-उतरती सफलता से खार खाते उन के चचेरे भाई गिरधारी राय अपनी क्षुद्रताओं और धूर्तताओं के बल पर कदम-कदम उन्हें झटके देते रहते हैं और उन्हें छोटा-नीचा दिखाने का कोई भी मौका हाथ से फिसलने नहीं देते। इस सब के बीच चार भाइयों और दो बहनों की सब से छोटी बहन मुनमुन बचपन से कैशौर्य और कैशोर से नवला होने के वय सोपान नापती जाती है। उधर, उस के होनहार भाई प्रादेशिक, बैंक और न्यायिक सेवाओं में चयनित हो कर अच्छे ओहदेदार बन जाते हैं। एक भाई प्रवासी भारतीय बन कर थाईलैंड पहुंच जाता है। चारो भाइयों और दोनों बड़ी बहनों की शादी हो जाती है। सब अपनी-अपनी ओहदेदारी और गृहस्थी में रह जाते हैं। इधर रह जाती है मुनमुन, उस की मां और अपनी वकालत के बल पर घर चला पाने में उम्रदराज होते उस के पिता मुनक्का राय।

अपनी-अपनी ज़िंदगियों में व्यस्त भाई लोग न तो नियमित पैसा भेजते हैं, न मां-बाप और अविवाहित छोटी बहन मुनमुन का ध्यान रख पाते हैं। अलमस्त ज़िंदगी जीने वाली, अपने भाई के एक दोस्त के साथ मोटरसाइकिल की सवारी करती और खेत-खलिहानों के एकांत में बैठ प्यार की पींग बढ़ाती मुनमुन एकाएक परिवार की ठोस कठिनाइयों से साक्षात्कार करती है। पिता के सहयोग से शिक्षामित्र की अदनी सी नौकरी पा लेती है और अपनी तथा अपने मां-बाप की ज़रूरतों को ढोने लगती है। अपने भाइयों के आगे हाथ फैलाने में उसे अपमान महसूस होता है और मर्द जाति की अपने आसपास फैली सत्ता में घुटन। उस का प्रेम-प्रसंग गांव-जवार में बदनामी नाम से विज्ञापित होता हुआ उस के भाइयों तक भी जा पहुंचता है। उन का पुरुष मान जाग उठता है। वे अपनी इज्जत बचाने का तरीका खोजते हैं कि मुनमुन की यथाशीघ्र शादी कर दी जाए। शादी का खर्चा उठाने को वे तैयार हैं, परंतु उस के लिए उचित वर तलाशने की फुर्सत किसी भी भाई के पास नहीं । गिरधारी राय को फिर एक मौका मिलता है और उस का कुचक्र मुनमुन के फेरे एक लुक्कड़, पियक्कड़, नाकारा, आवारा और मनुष्य के रूप में एक पशु के साथ पड़वा देता है और वह अपनी कुटिल समझ से मुनमुन और मुनक्का राय को एक साथ निपटा देता है। लेकिन मुनमुन विद्रोह करती है। अपने पति पशु को परमेश्वर मानने से इनकार कर देती है। उसे छोड़ कर अपने घर लौट आती है। जब उस का पति पशु, दारू पी कर आए दिन उस के घर आ कर गली-गलौज और मारपीट करने लगता है तो वह एक दिन लाठी निकाल कर अच्छी तरह से उस की धूल झाड़ देती है। उसे तब तक मारती रहती है, जब तक कि वह मिमिया नहीं उठता और उस के पिता मुनक्का राय आ कर उस के हाथ की लाठी नहीं पकड़ लेते। मुनमुन को गांव की प्रशंसा मिलती है, उस के शौर्य की गाथा हवा की तरह फैलती है। वह बांसगांव की लक्ष्मीबाई मान ली जाती है। मगर एक लड़की के ऐसे कृत्य पर मर्दों की नाक भी कटती है। नाक उस के भाइयों की भी कटने लगती है। जिस के लाख मनुहार करने पर जिन में से कोई भाई लड़के की जांच-पड़ताल करने नहीं गया था, उसी मुनमुन के भाई उसे जबरन वापस उसी पति पशु के पास भेजने को आमादा हो जाते हैं। इन भाइयों में एक जज भी है और एक उप-ज़िलाधिकारी। अब तक नारी अधिकार और सम्मान के प्रति पर्याप्त सजग हो चुकी मुनमुन न केवल अपने भाइयों और सगे-संबंधियों के मंसूबों को धता बता देती है, बल्कि अपनी बीमारी, अपने बाप की टूटन, अपने इर्द-गिर्द की मर्दवादी जमात से मुठभेड़ करती हुई अपनी ही जैसी सताई हुई लड़कियों और औरतों की मदद भी करने लगती है। भाइयों की उपेक्षा को चुनौती मानती हुई, प्रादेशिक प्रशासकीय परीक्षा उत्तीर्ण करती है और स्वयं एक अधिकारी बन जाती है।

उपन्यास की वस्तु मात्र इतनी ही नहीं है। यह उपन्यास तहसील, स्कूल, अदालत, पुलिस जैसी आधुनिक व्यवस्थाओं को नंगा करता है और इन में आकंठ व्याप्त भ्रष्टाचार की परतें खोलता है। अर्धसामंती ग्रामीण या कस्बाई समाज में लंपटता किस तरह एक व्यावहारिक मूल्य बन कर उभरी है और इसने चुनाव प्रशासन जैसी लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं को किस हद तक मनुष्य विरोधी, सरोकारविहीन और सिर्फ गुंडागर्दी में बदल दिया है, इस का उदघाटन भी यह उपन्यास बखूबी करता है। सामंती मूल्यों में लोकतांत्रिक मूल्यों का दखल न के बराबर हुआ है, मगर इन विकृत सामंती मूल्यों का संक्रमण हर तरफ हुआ है। वह चाहे प्रशासनिक व्यवस्था हो या फिर राजनीतिक व्यवस्था या फिर औरत के प्रति पुरुष दृष्टि। हां, आधुनिक विचार ने सामंती सोच में जो अतिक्रमण किया है, उस की उपज मुनमुन है तो परिपाटीगत सोच के आधुनिक व्यवस्थाओं में अतिक्रमण की पैदाइश है मुनमुन का पति पशु, उस के अफसर भाई और गिरधारी राय जैसे लोग। ऐसे असभ्य और बर्बर समाज का चरम वहां दिखाई देता है, जब जायदाद के लालच में एक मृत व्यक्ति के परिजन उस का अलग-अलग अंतिम संस्कार करने के लिए उस की लाश के दो टुकड़े करने पर आमादा हो जाते हैं।

दयानंद पांडेय ने न कहीं कोई भाषाई आडंबर रखा है, न कोई जबरिया शिल्प प्रयोग किया है। उन्हों ने सीधे-सीधे बेहद पठनीय अंदाज़ में कहानी को आगे बढ़ाया है। उन की खूबी यह है कि न उन्होंने अपने पात्रों को कहीं नकली होने दिया है और न कस्बाई-ग्रामीण समाज के जटिल यथार्थ को हाथ से फिसलने दिया। बांसगांव की मुनमुन इसी लिए उन की ऐसी कृति बन पड़ी है, जो बहुत सी हताश-निराश और समाज से त्रस्त औरतों को मुनमुन बनने की प्रेरणा देगी।
(राष्ट्रीय सहारा से साभार)
समीक्ष्य पुस्तक:





बांसगांव की मुनमुन
पृष्ठ सं.176
मूल्य-300 रुपए

प्रकाशक
संस्कृति साहित्य
30/35-ए,शाप न.2, गली नंबर- 9, विश्वास नगर
दिल्ली- 110032
प्रकाशन वर्ष-2012


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