दयानंद पांडेय
खलनायक जैसे हमारी समूची ज़िंदगी का हिस्सा हैं। गोया खलनायक न हों तो ज़िंदगी चलेगी ही नहीं। समाज जैसे खलनायकों के त्रास में ही सांस लेता है और एक अदद नायक की तलाश करता है। सोचिए कि अगर रावण न होता तो राम क्या करते? कंस न होता तो श्रीकृष्ण क्या करते? हिरण्यकश्यप न हो तो बालक प्रह्लाद क्या करता? ऐसे जाने कितने मिथक और पौराणिक आख्यान हमारी परंपराओं में रचे बसे हैं।
आज के समाज और आज की राजनीति में भी ऐसे जाने कितने लोग और रुप मिल जाएंगे, जो नायकत्व और खलनायकत्व को नए-नए रंग रुप और गंध में जीते भोगते और मरते मिल जाएंगे। तो हमारी फ़िल्में भला कैसे इस खलनायक नामक तत्व से महरुम हो जाएं भला? वह भी हिंदी फ़िल्में? जिन की नींव और नाव दोनों ही खलनायक की खाद पर तैयार होती है। जितना मज़बूत और ताकतवर खलनायक उतनी ही मज़बूत और सफल फ़िल्म। कोई माने या न माने यह एक प्रामाणिक सत्य है। कन्हैया लाल, जीवन से लगायत प्राण, प्रेमनाथ, प्रेम चोपड़ा, रंजीत, अजीत, विनोद खन्ना, शत्रुघ्न सिन्हा, अमजद खान, डैनी, अमरीश पुरी, उत्पल दत्त, कादर खान, शक्ति कपूर, गुलशन ग्रोवर, गोगा कपूर, सदाशिव अमरपुरकर, परेश रावल, मोहन आगाशे, अनुपम खेर, नाना पाटेकर, मनोज वाजपेयी और आशुतोष राणा तक यह सिलसिला बरकरार है और जारी भी। ललिता पवार, शशिकला, बिंदु और अरुणा इरानी आदि को भी जोड लें तो कोई हर्ज़ नहीं है।
मदर इंडिया में खलनायकत्व का जो ग्राफ़ कन्हैयालाल ने गढ़ा उस का रंग इतना चटक, इतना सुर्ख और इस कदर कांइयांपन में गुंथा था कि नर्गिस के हिस्से की तकलीफ और यातना भी उस में ऐसे छिप जाती थी जैसे बादलों में चांद। बाढ़ की विपदा में सब कुछ नष्ट हो गया है, दुधमुहा बच्चा भी चल बसा है लेकिन कन्हैया लाल को अपने सूद और वासना का ज्वार ही दिखता है, कुछ और नहीं। वह खेत में चने ले कर पहुंचता है और बच्चों को चने का चारा भी फेंकता है। लेकिन बात बनती नहीं। फिर भी वह हार नहीं मानता। तीन-तेरह करता ही रहता है। कन्हैयालाल का यही तेवर फिर व्ही शांताराम की फ़िल्म दुनिया ना माने में भी और तल्ख हुआ है, और सुर्खुरु हुआ है। हम त्वार मामा वाला संवाद जो उन के हिस्से है वह अलग अलग शेड में इस कदर गज़ब ढाता है कि पूछिए मत। जिस भांजी को वह एक वृद्ध से व्याहता है और फिर उस का वैभव देख और उस से मिले तिरस्कार से तिलमिलाया जब एक गधे के सामने पड़ते ही गधे से भी हड़बड़ा कर हम त्वार मामा कहने लग जाता है। ठीक उसी तर्ज़ में जो कहा जाता है कि मौका पड़ने पर गधे को भी बाप बनाना पड़ता है। तो इस में जो सहज ही कसैलापन उभर कर आता है उस में शांताराम का निर्देशन तो है ही कन्हैयालाल की अदायगी और उन का अभिनय भी सर चढ़ कर बोलता है। पर जल्दी ही कन्हैयालाल के कांइयांपन को भी सवा सेर मिल गया हिंदी फ़िल्म को जीवन के रुप में। इंतिहा यह थी कि परदे पर जब जीवन आते थे तो औरतें और बच्चे सहम जाते थे। मर्द बेसाख्ता चिल्ला पडते थे, 'हरमिया!' जीवन की पहचान कांइयां और हरामी दोनों के रुप में थी। चश्मा ज़रा नाक के नीचे तक ला कर जब वह आधा चश्मा और आधा बिना चश्मा के देखते हुए अपने कांइयांपन को बड़ी सरलता और सहजता से परोसते, जिस में धीरे से, मनुहार से बोले गए संवादों का छौंक लगा कर जब वह अपना हरामीपन दर्शकों से शेयर करते तो खलनायकी का एक नया आकाश रच डालते। पौराणिक फ़िल्मों में जब वह नारद के रुप में नारायण-नारायण कहते परदे पर अवतरित होते तो सुस्त पडी फ़िल्म में जैसे जान आ जाती। उन का मुनीम हो या नारद सब कहीं उन का कांइयांपन ऐसे छलकता जैसे आधी भरी गगरी में से पानी।
लगभग उसी समय एक और खलनायक हिंदी फ़िल्मों में आए के. एन. सिंह। पूरी नफ़ासत और पूरे शातिरपन के साथ शूटेड-बूटेड जब वह परदे पर आते तो लोग मारे दहशत में दांतों तले अंगुली दबा लेते। शराफ़त का मुखौटा पहन कर बहुत आहिस्ता से वह अपना कमीनापन परदे पर परोसते तो बिल्कुल किसी पिन की तरह चुभते। रहमान भी इसी नफ़ासत और शराफ़त के मुखौटे के सिलसिले को खलनायकी में आज़माते थे। कई बार वह के. एन. सिंह से इस मामले में बीस पड़ जाते थे। बिन बोले आंखों से ही कोई खलनायक अपना काम कर जाए यह आज के दौर के खलनायकों को देख कर सोचा भी नहीं जा सकता। पर के. एन. सिंह और रहमान दोनों ही इसे बखूबी करते थे। के. एन सिंह की हावडा ब्रिज़ हो अशोक कुमार वाली या फिर रहमान की गुरुदत्त वाली चौदवीं का चांद हो या साहब बीवी गुलाम, मल्टी स्टारर वक्त हो या कोई और फ़िल्म इन दोनों की शराफ़त और नफ़ासत में पगी खलनायकी का ज़हर साफ देखा जा सकता है। बहुत कम खलनायक हैं जिन पर गाना भी फ़िल्माया गया हो। रहमान उन्हीं में से हैं। दिल ने फिर याद किया जैसा गाना भी उन के नसीब में है। असल में असल ज़िंदगी के खलनायक भी इसी तरह के होते हैं, जिन्हें हम सफ़ेदपोश के विशेषण से नवाज़ते हैं।
प्राण ने इस सफ़ेदपोश खलनायक के सफ़र को और आगे बढ़ाया पर शराफ़त के मुखौटे को उन्हों ने खलनायक के लिबास से उतार फेंका। एक तरह से वह एक साथ कई खलनायकों के सम्मिश्रण बन कर उभरे। कन्हैयालाल और जीवन का कांइयांपन, के.एन.सिंह और रहमान का सफ़ेदपोश चेहरा और संवाद में कसैलापन, व्यवहार में हरामीपन सब कुछ एक साथ लेकर वह परदे पर उपस्थित हुए तो खलनायकी के वह एक बडे़ प्रतिमान बन गए। खलनायकी का जो शिखर छुआ और एक तरह से जो कहूं कि खलनायकी का स्टारडम जो प्राण ने रचा वह अप्रतिम था। कह सकते हैं कि खलनायकी के खल में उन्हों ने प्राण डाल दिया। इतना कि जीवन, के. एन. सिंह, रहमान वगैरह खलनायक प्राण के आगे बेप्राण तो नहीं पर बेमानी ज़रुर हो गए। उस ज़माने में तो अशोक कुमार हों, दिलीप कुमार हों, देवानंद या राजकपूर या फिर शम्मी कपूर, सुनील दत्त, मनोज कुमार या कोई और सब के बरक्स खलनायक तो बस प्राण ही प्राण थे। कोई और नहीं। खलनायकी की लंबी पारी खेली उन्हों ने। इतनी कि वह इस से ऊब गए। सार्वजनिक जीवन में भी उन से बच्चे, औरतें दूर भगते, देखते ही डर जाते। प्राण में उन्हें एक जालिम और जल्लाद दिखता। इस जल्लादी से उन्हें मुक्ति दिलाई मनोज कुमार ने उपकार में। अब वह जल्लाद और जालिम नहीं रह गए। एक चरित्र अभिनेता बन कर वह गाने लगे थे कस्मे वादे प्यार वफ़ा सब बाते हैं बातों का क्या! फिर तो वह ज़बरदस्त चरित्र अभिनेता बन कर उभरे। लगभग सभी चरित्र अभिनेताओं की जैसे छुट्टी करते हुए। उन के खलनायकी के समय में ही प्रेम चोपड़ा का बतौर खलनायक परदे पर आगमन हो चला था। उपकार में वह ही खलनायक हुए। पर प्राण को वह जो कहते हैं कि रिप्लेस नहीं कर पाए। अब खलनायकी में भी हीरो की ही तरह हैंडसम दिखने वाले लोग आने लगे।
विनोद खन्ना और शत्रुध्न सिन्हा ऐसे ही लोगों में शुमार थे। लेकिन अफ़सोस कि इन खलनायकों की दिलचस्पी खलनायकी में नहीं हीरो बनने में थी। सत्तर के दशक में इन दोनों ने ही खलनायकी को एक नया तेवर और नई तकनीक दी और छा से गए। यह खलनायक भी अपने हीरो की तरह ही सजते संवरते और हीरो की तरह ही दिखते थे। हीरोइन की तरफ प्यार की पेंग यह भी मारते। पर तरीका बस दुर्योधन वाला हो जाता। खलनायक जो ठहरे। अनोखी अदा में जीतेंद्र के पलट रेखा के लिए विनोद खन्ना भी उतने ही मोहित हैं और उसी तेवर में पर दुर्योधन वाली अप्रोच के साथ। ऐसे ही ब्लैकमेल में शत्रुध्न सिन्हा भी राखी के लिए उतने ही बेकरार हैं जितने कि धर्मेंद्र। पर बाद में शत्रु रेखा की उन्हें लिखी चिट्ठियों पर ही ब्लैकमेल करने लग जाते हैं तो खलनायक बन जाते हैं। विनोद खन्ना को तो फिर गुलज़ार मेरे अपने में हीरो बना देते हैं पर उसी मेरे अपने में शत्रु विनोद खन्ना के पलट खलनायक बने रह जाते हैं। दोनों ही योगिताबाली के बालों में गिरफ़्तार हैं। खैर शत्रुध्न सिन्हा भी ज़्यादा समय तक खलनायकी की खोल में नहीं रहे। जल्दी ही वह भी नायक बन कर छा गए। लेकिन दिलचस्प है यह याद करना भी कि विनोद खन्ना की चौड़ी छाती और उन की लंबाई पर औरतें उन की खलनायक के टाइम से ही थीं जब कि शत्रुध्न सिन्हा के घुंघराले बालों की स्टाइल भी उन के खलनायक टाइम पर ही लोकप्रिय हो गई थी। और देखिए न कि शत्रुध्न सिन्हा को फ़िल्मों में प्रमोट करने वाले खलनायक तिवारी और अनिल धवन शत्रुध्न सिन्हा के बतौर हीरो परदे पर छाते ही गुम से हो गए।
शत्रुध्न सिन्हा की बात हो और हम खलनायक अजीत को भूल जाएं भला कैसे मुमकिन है? जिस को पूरा शहर लायन के नाम से जानता था, कालीचरन में उन की याद हिंदी फ़िल्मों के दर्शक मोना डार्लिंग सोना कहां है, के संवाद से भी करते हैं। सोचिए कि कभी यही अजीत नायक होते थे हिंदी फ़िल्मों के। हिरोइन के साथ गाना भी गाते थे। फिर वह सहनायक भी हुए। याद कीजिए मुगल-ए-आज़म या नया दौर की। जिस में वह दिलीप कुमार के साथ होते हैं। यादों की बारात से खलनायकी की बादशाहत कमाई थी अजीत ने। जंज़ीर में अमिताभ बच्चन के बरक्स वह खलनायक हुए। अमिताभ फ़िल्म लूट ले गए। अजीत पीछे रह गए। ऐसे ही वह कालीचरन में शत्रुध्न सिन्हा के बरक्स हुए। फ़िल्म शत्रुध्न सिन्हा लूट ले गए, अजीत फिर पीछे रह गए। खलनायकों के साथ यह बार-बार हुआ। अकेले अजीत के ही साथ नहीं। नायक आगे होते गए, खलनायक पीछे, बहुत पीछे। प्रेम नाथ भी कभी नायक थे हिंदी फ़िल्मों के, पर समय ने उन्हें खलनायक बना दिया। जानी मेरा नाम जैसी फ़िल्मों में खलनायकी करते करते वह भी चरित्र अभिनेता बन बैठे। अब जब फ़िल्में नायकों के हवाले पूरी तरह हो गईं तो अब खलनायक रह गए अजीत, प्रेम चोपड़ा, रंजीत और मदनपुरी। हां इसी बीच डैनी डैंगजोप्पा भी बतौर हीरो असफल हो कर खलनायकी में हाथ आज़माने लगे। जीवन के बेटे किरन कुमार भी असफल नायक हो कर खलनायकी आज़माने लगे। कि तभी आई शोले! और यह देखिए कि इस फ़िल्म ने तो जो कीर्तिमान और प्रतिमान गढ़ने तोड़ने थे तोडे़ और गढे़ ही एक सुपर खलनायक भी ला कर परदे पर उपस्थित कर दिया। गब्बर सिंह के रुप में अमजद खान को। जिधर देखिए गब्बर सिंह की धूम। यह पहली बार हो रहा था कि किसी खलनायक के डायलाग जनता सुन रही थी। और कैसेट कंपनियां गाने के बजाय डायलाग की सी.डी. बाज़ार में उतार रही थीं। गब्बर के डायलाग। गब्बर सिंह जैसा सुपर खल चरित्र अभी तक फिर हिंदी फ़िल्म के परदे पर उपस्थित नहीं हुआ। गब्बर आज भी खलनायकी का बेजोड़ चरित्र है हमारी हिंदी फ़िल्म का। जैसे कि पौराणिक आख्यानों में कभी रावण या कंस थे।
इस गब्बर के जादू से खुद सिप्पी इतने प्रभावित हुए कि जल्दी ही उन्हों ने एक और फ़िल्म बनाई शान। और शान में शोले से भी ज़्यादा ताम-झाम से एक खलनायक परोसा शाकाल के रुप में कुलभूषण खरबंदा को। सारा ज़ोर पूरी फ़िल्म में खलनायक को ही पेश करने में खलनायक को ही प्रोजेक्ट करने में सिप्पी ने लगा दिया। पर यह सारा कुछ फ़िल्म में दाल में नमक की जगह नमक में दाल की तरह हो गया। मल्टी स्टारर फ़िल्म होने के बावजूद फ़िल्म धडाम हो गई और शाकाल भी अपने सारे स्पेशल इफ़ेक्ट सहित स्वाहा हो गया। बाद के दिनों में अमजद खान और कुलभूषण खरबंदा चरित्र अभिनेता की राह पर चल पडे़। अमजद खान तो कामेडी भी करने लग गए। लव स्टोरी और चमेली की शादी की याद ताज़ा कीजिए। खैर अब फ़िल्मों का ट्रेंड भी बदल रहा था। मल्टी स्टारर फ़िल्मों का दौर तो था ही, एंटी हीरो का भी ज़माना आ गया। अब खलनायक और कामेडियन दोनों ही खतरे में थे। यह अमिताभ बच्चन के स्टारडम का उदय और उन के शिखर पर आ जाने का समय था। वह स्मगलर, मवाली और जाने क्या क्या बन रहे थे। कालिया से लगायत....... तक। वह खलनायकों वाले काम भी कर रहे थे और कामेडियनों वाला भी। उन के आगे तो सच कहिए हीरोइनों के लिए भी कोई काम नहीं रह गया था। सिवाय उन के साथ चिपट कर गाने या सोने के। एक नया ही स्टारडम था यह। जिस में सिवाय नायक यानी अमिताभ बच्चन के लिए ही काम था। बाकी सब फ़िलर थे। मदन पुरी और रंजीत, कादर खान और शक्ति कपूर जैसे बिचारे खलनायक ऐसे परदे पर आते, इस बेचारगी से आते गोया वह अभिनय नहीं कर रहे हों किसी नदी में डूब रहे हों और डूबने से बचने के लिए उछल कूद या हाय-तौबा मचा रहे हों। कि अस्सी के दशक में आई अर्धसत्य। ओमपुरी के पलट बतौर खलनायक आए सदाशिव अमरापुरकर। ओमपुरी सरीखे अभिनेता पर भी भारी। पर बस याद ही रह गई उन के अर्धसत्य के अभिनय की। बाद में वह अमिताभ बच्चन के ही साथ आखिरी रास्ता और धर्मेंद्र के साथ भी एक फ़िल्म में आए पर जल्दी ही वह भी चरित्र अभिनेता की डगर थाम बैठे।
पर यह देखिए इसी अस्सी के दशक में एक फ़िल्म आई शेखर कपूर की मिस्टर इंडिया। और मिस्टर इंडिया में अवतरित हुए मुगैंबो! गब्बर की धमक के वज़न में ही यह मुगैंबो भी छा गया परदे पर। और सचमुच लगा कि जैसे हिंदी फ़िल्मों में खलनायकी की वापसी हो गई है। हुई भी। प्राण के बाद अगर खलनायकी की इतनी सफल इनिंग किसी ने हिंदी फ़िल्म में खेली है तो वह अमरीश पुरी ही हैं जो मदन पुरी के छोटे भाई हैं। अमरीश पुरी मिस्टर इंडिया में हिंदी फ़िल्मों के लिए कोई नए नहीं थे, वह पहले ही से हिंदी फ़िल्मों में थे। और श्याम बेनेगल की निशांत और भूमिका जैसी फ़िल्मों में खलनायक रह चुके थे। तमाम और फ़िल्मों में उन्हों ने छोटी बड़ी तमाम भूमिकाएं की थीं पर मिस्टर इंडिया में जो उन का खलनायक शेखर कपूर ने उपस्थित किया वह अविरल ही नहीं महत्वपूर्ण और नया मानक भी बन गया। इतना महंगा कास्ट्यूम हिंदी फ़िल्म के किसी खलनायक ने नहीं पहना था, न ही इतना स्पेस किसी खलनायक को हिंदी फ़िल्म में मिल पाया था। कहते हैं कि फ़िल्म बजट का एक बड़ा हिस्सा अमरीशपुरी के कास्ट्यूम पर खर्च किया गया था। उतना कि जितना अमरीशपुरी को पारिश्रमिक भी नहीं मिला था। इतना चीखने-चिल्लाने वाला खलनायक भी हिंदी सिनेमा पहली बार देख रहा था। फिर तो अमरीश पुरी ने पीछे मुड़ कर नहीं देखा। हां वह ज़रूर चरित्र भूमिकाओं में भी बार-बार दिखे। और सचमुच मेरे लिए यह कह पाना कठिन ही है कि वह खलनायक की भूमिका में ज़्यादा फ़बते थे कि चरित्र भूमिकाओं में। मुझे तो वह दोनों में ही बेजोड़ दीखते थे। पर बावजूद इस सब के उन का मोगैंबो उन पर भारी था यह भी एक सच है।
परेश रावल भी कभी बेजोड खलनायक बन कर उभरे। पर जल्दी ही वह भी चरित्र भूमिकाओं मे समा कर रह गए। उन्हों ने अभिनय के अजब गज़ब शेड हिंदी फ़िल्मों में परोसे हैं जिन का कोई सानी नहीं है। अमानुष जैसी कुछ फ़िल्मों में खलनायक की भूमिका में उत्त्पल दत्त की भी याद आती है। पर बाद में वह भी चरित्र भूमिकाओं में आने लगे। यही हाल कादर खान और शक्ति कपूर जैसे खलनायकों का भी हुआ। वह भी कामेडी से लगायत सब कुछ करने लगे। नाना पाटेकर की परिंदा और मनीषा कोइराला के साथ वाली फ़िल्मों में वह खलनायक के ज़बरदस्त शेड ले कर उपस्थित हुए। पर वह भी चरित्र अभिनेता ही बन गए। अनुपम खेर भी कर्मा में डा. डैंग की भूमिका में आए और वापस वह भी चरित्र अभिनेता हो गए। मोहन अगाशे, पुनीत इस्सर, अरबाज़ खान जैसे तमाम अभिनेता हैं, जिन्हें खलनायक के बजाय चरित्र अभिनेता की राह ज़्यादा मुफ़ीद लगी। आशुतोष राणा ने भी खलनायकी में नई इबारत दर्ज़ की है। तो मनोज वाजपेयी ने सत्या और रोड में रामगोपाल वर्मा के निर्देशन में खलनायकी की एक नई भाषा रची। पर मौका मिलते ही वह भी नायक बनने के शूल में बिंध गए। पर शूल ने भी हिंदी फ़िल्मों को एक नया और हैरतंगेज़ खलनायक दिया। रज़ा मुराद ने भी खलनायकी में अपनी आवाज़ बुलंद की है। डर्टी मैन फ़ेम गुलशन ग्रोवर और गोगा कपूर भी याद आते हैं। पर जाने क्या बात है कि ज़्यादातर खल चरित्र जीने वाले अभिनेता या तो नायक हो गए या चरित्र अभिनेता। कभी यह सोच कर हंसी भी आती है कि क्या अगर रावण या कंस सरीखे लोग भी इस हिंदी फ़िल्म के चौखटे में आते तो क्या वह भी चरित्र अभिनेता तो नहीं बन जाते बाद के दिनों में?
खैर यहां यह जानना भी खासा दिल्चस्प है कि कुछ चरित्र अभिनेताओं ने भी खलनायकी के पालने में पांव डाले हैं। और तो और सीधा-साधा और अकसर निरीह चरित्र जीने वाले अभिनेता ए.के. हंगल ने भी खलनायकी की भूमिका की है। एक दीवान के रुप में राजकाज पर कब्जा जमाने के लिए इस खूबसूरती से वह व्यूह रचते हैं कि कोई उन पर शक भी नहीं करता और वह कामयाब होते भी दीखते हैं, पर जैसी कि हिंदी फ़िल्मों की रवायत है आखिर में उन का भेद खुल जाता है। हंगल के खलनायक का इस फ़िल्म को फ़ायदा यह मिला कि सस्पेंस आखिर तक बना रहा। वह सस्पेंस जो कभी हमराज या वह कौन थी जैसी फ़िल्मों में क्रिएट किया जाता था। कुछ नायकों ने भी कभी कभार खलनायकी की भूमिका में अपने को सुपुर्द किया है और कामयाब भी खूब हुए हैं। जैसे कि ज्वेल थीफ़ में अशोक कुमार। दर्शक आखिर तक सस्पेंस की अनबूझ चादर में फंसा रहता है। फ़िल्म के आखिरी दृष्यों में राज़ फास होता है कि ज्वेल थीफ़ तो अपने अशोक कुमार हैं। अमिताभ बच्चन भी अक्स में खलनायकी को बखूबी निभाते हैं तो शाहरुख खान डर में खलनायक बन कर खूब डराते हैं। ऐसे ही अजय देवगन कंपनी में खलनायकी का रंग जमाते हैं। सनी देवल भी खलनायक बन जाते हैं तो संजय दत्त तो खलनायक फ़िल्म मे खलनायकी के लिए कई शेड्स बिछाते हैं। इतने कि हीरो लगने लगते हैं और गाने भी लगते हैं कि नायक नहीं खलनायक हूं मैं! वास्तव में भी उन की खलनायकी का सिक्का खूब खनखनाता है।
खलनायकी की बात हो और अपनी आधी दुनिया की बात न हो तो बात कुछ जमती नहीं है। ललिता पवार, बिंदु, शशिकला या अरुणा इरानी ने अपने खल चरित्रों को जिस तरह से जिया है और अपने चरित्रों के लिए जो नफ़रत दर्शकों में बोई है उस का भी कोई जवाब है नहीं। काजोल की खल भूमिका की भी याद ज़रूरी है। बात फिर वही कि बिना खलनायक के नायक नहीं बनता। तो फ़िल्म चाहे जैसी भी हो खलनायक के बिना न उस की नींव तैयार होगी न ही उस की नैया पार लगेगी। प्रतिनायक की यह भूमिका हमारी हिंदी फ़िल्मों की संजीवनी भी है, इस से भला कौन इंकार कर सकता है?
बिलकुल सही इलहा है.. कुछ ऐसी ही सोच अमरीशपुरी जी को लेकर मेरे मन में भी है.. हर प्रकार के रोल उन्होंने निभाए अपने करियर में.. वास्तव में बेहतर
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