Sunday 29 January 2012

अमरीका की धरती पर भारतीयता की खुशबू में लिपटी कहानियां

दयानंद पांडेय



हिंदी कहानी में अमरीकी आकाश के अक्स में भारतीय स्त्री की छटपटाहट को, उस की तकलीफ, उस की संवेदना की नसों में निरंतर चुभ रही नागफनी के त्रास की आंच की खदबदाहट और उस की आहट का कोई मानचित्र पाना हो, उस का पता पाना हो तो इला प्रसाद का कहानी संग्रह 'उस स्त्री का नाम' ज़रूर पढिए। अमरीकी सफलता का नशा और उस के जादू का जो मोतियाबिंद तमाम तमाम लोगों की आंखों में बसा है, वह भी उतर जाएगा। इला प्रसाद की यह कहानियां लगातार अमरीका में भी एक भारतीय संसार रचती मिलती हैं। ऐसे जैसे वह अमरीकी समाज में भारतीयता का कोई थर्मामीटर लिए घूम रही हों। भारत और भारत की याद की खुशबू हमेशा ही उन के संवादों में, स्थितियों और संवेदनाओं में सहज ही उपस्थित मिलती है। भारत से अमरीका गए लोगों के त्रास और उस की खदबदाहट, उस का संघातिक तनाव भी यत्र-तत्र इला की कहानियों में ऐसे पसरा पडा है जैसे किसी लान मे घास। जैसे किसी देह मे सांस । अमरीका में बसा भारतीय समाज ऐसे मिलता है इला की कहानियों में गोया कोई नदी बह रही हो और अपने साथ हीरा, कचरा, शंख, सीपी, सुख-दुख सब को समाहित किए हुए ऐसे कल-कल कर बहती जा रही हो जैसे सब ही उस के संगी साथी हों। कौन अपना, कौन पराया का बोध इस नदी को नहीं है। सब ही उस के हिस्से हैं। यही इन कहानियों की ताकत है।
उस स्त्री का नाम कहानी की नायिका एक वृद्धा है। जो भारत से गई है। अपने बेटे के पास। पर बेटा उसे अपने साथ रखने के बजाय ओल्ड एज होम में रख देता है। खर्च देता है और फ़ोन से हालचाल लेता है। और स्त्री है कि भारत में रह रही अपनी अविवहित बेटी जो अब शादी की उम्र पार कर प्रौढ हो रही है, उस की शादी की चिंता में घुली जा रही है। उस स्त्री का सारा दुख एक दंपति से कार लिफ़्ट लेने के दौरान छन छन कर सामने आता जाता है। अनौपचारिक बातचीत में। वह स्त्री अपने गंतव्य पर उतर जाती है। तब पता चलता है कि वह तो ओल्ड एज होम में रहती है। फिर भी उसे कार में लिफ़्ट देने वाले दंपति उस वृद्धा का नाम पूछना भी भूल जाते हैं। इसी कहानी में अमरीकी जीवन की तमाम रोजमर्रा बातें भी सामने आती है। यह एक सच भी उभरता है कि अमरीका में मंदिरों की उपयोगिता अब बदल रही है। लोग पूजा पाठ करने वहां कम जाते हैं, एक दूसरे से मिलने ज़्यादा जाते हैं। यह सोच कर कि एक दूसरे के घर जाने या आने की ऊब या झंझट से फ़ुरसत मिले। तो यह समस्या क्या भारत में भी नहीं आ चली है? मंदिर नहीं, न सही, कोई आयोजन, कोई कैफ़टेरिया या फ़ेसबुक ही सही लोग मिलने लगे हैं। इसी अर्थ में यह कहानी वैश्विक बन जाती है। और कि जो कुछ आदमी के भीतर कहीं गहरे टूट रहा है, उस का एक नया आख्यान भी रचती है।
इला के यहां असल में टूट-फूट कुछ ज़्यादा ही है। इस संग्रह की पहली कहानी से ही यह टूट-फूट शुरु हो जाती है। एक अधूरी प्रेमकथा से ही। यह कहानी भारत की धरती पर घटती है। इस कहानी की नायिका निमिषा है जो अपने पिता द्वारा छली गई अपनी मां की यातना कहिए, भटकाव कहिए कि अपनी मां की यातना की आंच में निरंतर रीझ और सीझ रही है। दहक रही है, उबल रही है पानी की तरह कि उफन भी नहीं पाती। भीतर भीतर घायल होती रहती है। कि आत्मह्त्या की कोर तक पहुंच जाती है। मां को मिस करती हुई। रूममेट को वह दीदी कहती है और उसी में अपनी मां को भी ढूंढती है। बैसाखियां की सुषमा को भी देखिए एक वॄद्ध स्त्री मिल जाती है। जैसे उस स्त्री का नाम में शालिनी को एक वृद्धा मिली थी। पर वहां वह भारतीय थी। पर यहां आइरिश। हां एक विकलांग लडकी भी। पर मुश्किलें, यातनाएं और भावनाएं क्या हर जगह एक सी नहीं होतीं?
खास कर स्त्रियों की। इला की कहानियों में हमें यह एक सूत्र निरंतर मिलता चलता है। लगभग हर कहानी में। वह चाहे भारत की धरती की कहानी हो चाहे अमरीका की धरती की कहानी। एक टूट-फूट का अंतहीन सिलसिला है गोया धरती भले अलग-अलग हो पर दुख, हताशा और हैरानी का आकाश एक ही है। भावनाओं और यातनाओं का आकाश एक ही है। स्त्रियों की छटपटाहट और व्याकुलता का धागा जैसे एक ही सांस में, एक ही स्वर और एक ही लय में बुना गया हो। इला की कहानियों में स्त्रियों की छटपटाहट का यह बारीक व्यौरा अलग-अलग गंध लिए यत्र-तत्र उपस्थित है। दिलचस्प यह कि बावजूद इस सब के अमरीकी धरती पर भी वह अपने भारतीय होने के गर्व और गुमान में लिपटी खडी है। वह वहां अन्य लोगों की तरह अंगरेजियत की चाशनी में अपने को नहीं डुबोती। जैसे रिश्ते कहानी की संचिता एक जगह साफ कहती है, 'आई हैव नो प्राब्लम विद माई आइडेंटीटी।' रिश्ते की यह संचिता मंदिर जाती है, क्लब नहीं। हिंदी बोलती है। भारतीय भोजन पसंद करती है। और खुलेआम घोषणा करती फिरती है, 'आई हैव नो प्राब्लम विद माई आइडेंटिटी।' बाज़ारवाद के खिलाफ़ खडी यह कहानी एक भरपूर तमाचा तब और मारती है जब संचिता कहती है, 'बिलकुल ठीक हैं आप। रिश्ते विग्यापन की चीज़ नहीं होते।'
मुआवजा भी रिश्ते की इबारत को और चमकदार बनाने वाली कहानी है। जो बताती है कि नहीं बदलता न्यूयार्क का मिजाज भी। श्रुति जो एक लेखिका है पत्रकार नहीं। लेकिन जब तब लोग उस से इन उन विषयों पर लिखने की कभी चुनौती तो कभी फ़र्माइश, कभी इसरार करते फिरते हैं और वह असहाय होती जाती है। एक दुर्घटना के बाद मुआवजे के लिए संघर्ष का दौर दौरा चलता है, जो कि नहीं मिलना होता है, मिलता भी नहीं, वह तो उसे तोडता ही है। हालांकि वह तो मानसिक संताप का भी मुआवजा चाहती है। पर यह व्यवस्था तो मानसिक संताप क्या चीज़ होती है जानती ही नहीं। हां देती ज़रुर है। जब-तब। एक पूंजीवादी देश और उस की व्यवस्था कैसे तो सिर्फ़ बाज़ार के लिए ही होती है उसे किसी इंसानियत, किसी मानवता, किसी के दुख-सुख से कोई सरोकार नहीं होता, इस तत्थ्य की आंच में झुलसना हो तो इला की एक कहानी तूफ़ान की डायरी ज़रुर पढनी होगी।
चुनाव कहानी भी इसी सिक्के की दूसरी तसवीर है। चुनाव के नाम पर जो छल-कपट भारत में है वही अमरीका में भी। बस व्यौरे और बही बदल गई है। लेकिन प्रवंचना और मृगतृष्णा का जाल तो वही है। इला की कुछ कहानियों में गृहस्थी के छोटे-छोटे व्यौरे भी हैं। जो कभी-कभी जीवन में बहुत बड़े लगने लगते हैं। हीरो ऐसी ही एक कहानी है। पानी के एक पाइप टूट जाने से घर में कैसी आफ़त आ जाती है। और एक नालायक सा आदमी जिम जो प्लंबर भी है पर जिस के हर हाव भाव से चिढने वाली कला को लगता है है कि वह प्लंबर अगर उस का पाइप ठीक कर दे तो वह उस का हीरो है। उस का पति कहता भी है उस से फ़ोन पर कि, 'मेरी वाइफ़ कहती है अगर आज तुम आ गए तो यू आर अ हीरो!' वह ना ना करते हुए आता भी है और हीरो बन भी जाता है। वह कृतग्यता से भर कर रुंधे गले से, 'थैंक यू जिम।' कहती भी है।
होली भी ऐसे ही बारीक व्यौरे वाली मनोवैज्ञानिक कहानी है। हां कुछ स्मृतियों की होली कभी नहीं जलती जैसे सूत्र पर कहानी का अवसान स्मृतियों के गहरे वातायन में पहुंचा देता है। एक हाउस वाइफ़ का मनोविज्ञान भी इला की कहानी मेज़ में एक गहरे सरोकार के साथ उपस्थित है। सुधा के भीतर जैसे पक्षी पलते हैं । किसिम-किसिम के। गोया वह खुद एक पक्षी हो। पक्षी और मेज़ का जो औचक रुपक गढा है इला ने इस कहानी में और जो छोटे-छोटे व्यौरे रेशे-रेशे में गूंथे हैं वह अविरल है।
मिट्टी का दिया कहानी भी कुछ ऐसी ही है। भारत में लोग भले मिट्टी का दिया बिसरा चुके हों पर अमरीका में तन्वी की मिट्टी के दिए की हूक उसे बेचैन करती जाती है। दीपावली पर अमरीका में भी बालीवुड की गंध, बाज़ार की धमक और तन्वी का अपने मूल्यों, अपनी संस्कृति जुडने की जूझ, विरासत बच्चे को सौंपने की अथक बेचैनी एक नया ही दृष्य उपस्थित करती है। भारत से अमरीका जा कर घर के बुजुर्गों को क्या समस्या आती है, कि वह खुद भी समस्या बन जाते हैं, इस के तमाम व्यौरे और इस यातना की आंच साज़िश कहानी में बडे हौले हौले सामने आता है। यह स्थितियां हालां कि भारत में भी हूबहू है। मनमुताबिक बात न हो, डांस भी न हो पाए तो आदमी कैसे कुंठा के जाल में गिर जाता है, कुंठा कहानी के जाल में लिपट कर ही पता चल पाता है। बदलती पीढी का गैप, खाती पीती अघाई औरतों के चोचले भी बांच सकते हैं आप इस अर्थ में। और इन सब से उपजी जो खीझ है न वह बेहिसाब है। ज़रा गौर कीजिए: 'डांडिया नृत्य के बाद जब वे वापस हो रहे थे तब भी अन्विता बार-बार भीड में शामिल हो कर नृत्य करती-दो मिनट और फिर लोगों को अपनी ओर बुलाने की असफल कोशिश करती। टीम इंडिया बन ही नहीं रही थी। अकेली कप्तान सिर पीट रही थी।'
भारतीयता की यह हूक तो इला की लगभग हर कहानी में ऐसे मिलती रहती है जैसे कोई औरत स्वेटर बुन रही हो निश्चिंत भाव से और उसे इस बात की परवाह ही न हो कि कोई फ़ंदा गलत भी पड सकता है। ऐसे जैसे उसे अपनी बुनाई पर अटल विश्वास ही नहीं घरों की गिनती का ज्ञान भी हो सहज ही। और यह सब हम सब जानते हैं कि सहज अभ्यास से ही संभव बन पाता है। तो इला की इन कहानियों में भारतीयता का तत्व सहज अभ्यास से बिना कोई शोर किए, हंगामा किए सहज ही समाया रहता है। इला की इन कहानियों की एक खास ताकत और है कि जहां तमाम देसी परदेसी स्त्री कहानीकारों की कहानियों में पुरुष खलनायक और अत्याचारी रुप में उपस्थित मिलता है यत्र-तत्र, वहीं इला प्रसाद की कहानियों का पुरुष चरित्र हर कहीं सहयोगी, मददगार और पाज़िटिव चरित्र बन कर उपस्थित है। चाहे वह स्त्री का पति चरित्र हो या कोई और चरित्र वह अपने सहज स्वभाव में हर कहीं उपस्थित है, पानी की तरह। परिवारीजन बन कर। खलनायक बन कर नहीं। सहभागी बन कर।
हिंदी कहानी में यह बदलाव और इस की आहट दर्ज करने लायक है। जो कि आसान नहीं है।

समीक्ष्य पुस्तक:
उस स्त्री का नाम
कहानीकार-इला प्रसाद
प्रकाशक-भावना प्रकाशन
109-A, पटपडगंज, दिल्ली-110091
मूल्य 150 रुपए

1 comment:

  1. ila ji aur mahendra ji ki pustak ki bahut hi satik samiksha ki hai aapne .
    ila ji ne jo bhi likha hai usko mahsus kar sakti hoon me
    aapka bahut bahut abhar
    saader
    rachana

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