इंडिया इंटरनेशनल सेंटर , नई दिल्ली में अरविंद जी पर बनी फ़िल्म के एक पोस्टर के साथ |
इंडिया इंटरनेशनल सेंटर , नई दिल्ली में अरविंद जी पर बनी फ़िल्म के एक पोस्टर के साथ। साथ में अरविंद जी की बेटी मीता लाल। |
20 नवंबर , 2017 को एक मेल से यह लेख अरविंद कुमार ने मुझे भेजा था। हालां कि मेरे कुछ उपन्यासों की समीक्षा इंडिया टुडे में लिख चुके थे। पर वह एक बड़ा लेख लिखना चाहते थे। अलग बात है कि वह इतने सारे काम में व्यस्त थे सो बड़ा लेख लिख नहीं पाए। लेख मुझ पर ही लिखा था सो मैं चुप ही रहा। वह बहुत दिनों से मेरी रचनाओं पर लिखना चाहते थे। इस की चर्चा फ़ोन पर भी करते थे। मेल में भी। यह लेख ‘अक्षर पर्व’ या कहीं और छपा या नहीं , मैं नहीं जानता। फ़िलहाल सरोकारनामा में आज इसे प्रकाशित कर रहा हूं। अरविंद जी अब इस दुनिया में भले नहीं हैं , पर हमारे दिल में सर्वदा उपस्थित रहेंगे। हिंदी की हर धड़कन में हैं।
प्रिय दयानंद, रोज़ तुम्हेँ ले कर बैठता हूँ, आगे न बढ़ पाने पर कुछ और करने बैठ जाता हूँ. आज सुबह यह नई शुरूआत हुई है. प्रण कर के बैठा हूँ कि इसे आगे बढ़ाता ही रहूँगा.
इसे पहला ड्राफ़्ट समझ कर पढ़ना, जहाँ कहीँ भूल हो सुधार देना. मैँ ने रिवाइज़ भी नहीँ किया है. ग़लतियाँ होँगी. सुझावोँ का भी स्वागत है. मैँ यह ‘अक्षर पर्व’ पत्रिका मेँ भेजना चाहता हूँ. देखते हैँ उस की नई संपादक क्या कहती हैँ. उन से नई जानपहचान हुई है. कहीँ और भिजवाना चाहो तो वह भी लिखना.
अरविंद
“जब एक दल के बहुमत की सरकारें बहुत ताक़तवर हो जाती हैं तो उन के निरंकुश होने के ख़तरे भी बहुत बढ़ जाते हैं.” --दयानंद के उपन्यास अपने अपने युद्ध से.
दयानंद पांडेय मेरे प्रिय लेखकोँ मेँ से हैँ. इसलिए नहीँ कि ‘सर्वोत्तम रीडर्स डाइजेस्ट’ मेँ वह मेरे साथ थे. तब तक वे इधर उधर छिटपुट रचनाएँ लिखते थे. चर्चित कथाकार और उपन्यासकार दयानंद भविष्य के गर्भ मेँ था. रवानीदार गद्य तब भी उन की पहचान था जो कभी काटता धारदार व्यंग्य तो कभी प्रेमरस से सराबोर काव्य हो जाता है. क़िस्सागोई उनका forte हिंदी मेँ कहेँ तो गढ़, या strong point या विशिष्ट गुण है. वह इंग्लिश कम जानते हैं. इस का लाभ यह है कि साहित्य और कलाओँ के उन विदेशी आंदोलनोँ से उनका लिखा कोसोँ दूर होना जिन से बीसवीँ सदी का तीन चौथाई खंड आक्रांत या प्रभावित रहा है और धीरे लोकमानस से कटता गया है.
वह किसी राजनीतिक पक्ष विपक्ष के हामी नहीँ हैँ. जब जो अच्छा या सही लगता है वही लिखते हैँ और उन की रचनाओँ प्रकट होता रहता है. फ़ील्ड पत्रकार यानी रिपोर्टर के रूप मेँ बड़े से बड़े नेताओँ से उन का साबक़ा पड़ा, उन्हेँ नज़दीक़ से देखा परखा, सराहा या ठुकराया, लेकिन न किसी से कुछ माँगा, न किसी से कुछ लिया. हाँ, उन की परतेँ उघाड़ने मेँ कोताही नहीँ बरती.
जो कुछ भी दयानंद का लिखा है, विशुद्ध उसका अपना और निपट देसी है. किसी भी तरह के विलायती प्रभाव या वाद से अछूतापन. उस के लिखे मेँ कुछ अनोखा है, कुछ अप्रत्याशित. विलायती ही नहीं, वह किसी भी तरह के हिंदी साहित्य के किसी वाद से भी असंपृक्त है. न प्रगतिशील है, न कला कला के लिए वादी. न माडर्न न पोस्टमाडर्न. जो जैसा उस के मन को लगा, वैसा उस ने रवानीदार भाषा मेँ उतार दिया. इस उतार देने को सशक्त बनाती है उस की क़िस्से कहानियाँ बुनने की कला. और उन क़िस्सोँ मेँ कल्पित पात्रों के साथ साथ सच्चे जीवित पात्रों का समावेश.
रामायण महाभारत के चर्वित चर्वण से बने तथाकथित दिग्गज लेखकोँ से कई गुना पाठक उन की झोली मेँ हैँ जो उन्हेँ किताबोँ मेँ तो पढ़ते ही हैँ, उन की वैबसाइट ‘सरोकारनामा’ पर भी, जिस की फ़ालोअरशिप सात लाख पार कर गई है. हर जगह जो अनाचार है, जो भ्रष्टता है, चाहे नेताओँ की, या पत्रकारोँ की, या चिकित्सा की, उस की बखिया उधेड़ना उन के निजी युद्ध का प्रमुख अंग है.
‘अपने अपने युद्ध’ नामक उपन्यास से वह चर्चा में आए, और उन के युद्ध अभी समाप्त नहीं हुए हैं. ‘अपने अपने युद्ध’ की कथा का आधार है नेशनल स्कूल आफ़ ड्रामा जैसे किसी संस्थान मेँ कुछ छात्रोँ की आत्महत्या पर तहक़ीक़ात की रपट. कल्पित पात्रों के बीच हम मिलते हैँ देवेंद्र राज अंकुर, हेमा, वागीश सिंह, अजय, अलका, बी.एम. शाह, वानी शरद, कारंत, अल्काज़ी आदि एन.एस.डी. (राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय, नई दिल्ली) से जुड़े और कई लोग. परिणाम यह होता है कि पाठक को लगता है कि वह घटित सत्य पढ़ रहा है. यूँ दयानंद की हर रचना जीवन का घटित सत्य ही है.
‘अपने अपने युद्ध’ का मुख्य केंद्र है प्रिंट मीडिया, प्रसंगवश थिएटर, दहेज, मनुवाद, गांधी, लोहिया और रजनीश, तथा पुरुष-स्त्री सैक्स और न्यायपालिका जैसे विषय उस मेँ आना स्वाभाविक ही था. हर विषय पर दोटूक साफ़गोई दयानंद को अकसर संकट मेँ डाल देती है. भारतीय अदालतोँ की विभीषिका के मुझ जैसे गवाह कम नहीँ हैँ. पिछले दिनोँ कन्हैया कुमार जैसे मामलोँ मेँ हाई कोर्टों की काररवाई टीवी पर देखने को मिलती रही है. दयानंद पर इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ बेंच में ‘अपने अपने युद्ध’ को ले कर अदालत की अवमानना का निराधार मामला भी दर्ज़ किया गया जो साबित नहीँ किया जा सका.
उपन्यास मेँ कोई भी पुरुष-स्त्री सैक्स प्रसंग अश्लील नहीँ था. संदर्भवश मैँ सच्ची अश्लीलता का एक उदाहरण बयान करना चाहता हूँ इंग्लिश मेँ लिखने वाले तथाकथित महान लेखक अमिताव घोष के अनेक पुरस्कार विजेता उपन्यास ‘द सी आफ़ पौपीज़’ से. ग़ाज़ीपुर. सन 1839 से कुछ पहले. गाँव के बिगड़ैल और अत्याचारी ज़मीँदार. उन के ग़ुलाम जैसा लहीमशहीम कलुआ. बहुत लंबा है. ज़मीँदार के लौंडे उसे मज़बूर करते हैँ ठिंगनी घोड़ी का बलात्कार करने को. इस क्रिया का ग्राफ़िक वर्णन. इस के कुछ पहले उसी उपन्यास मेँ नायिका दिति का विवाह सीँकिया पहलवान नपुंसक व्यक्ति से करा दिया जाता है. उस की सास को उस से बच्चा चाहिए ही. एक रिश्तेदार से उस पर बलात्कार कराने की कोशिशेँ और अंत मेँ वह दुष्कर्म भी पूरे ब्योरे से लिखा गया है. ऐसी अनेक घटनाएँ तब दिखाई जाती हैँ जब महान लेखक को लगता है कि कुछ रोचक मसाला डालना चाहिए. सच तो यह है कि पिछले पचास साठ सालोँ से बिकाऊ इंग्लिश उपन्यासोँ का बनेबनाए फ़ारमूला का अंग बन गए हैँ इस तरह के कभी अप्राकृतिक कभी अवैध यौन व्यापारोँ के उत्तेजक वर्णन.
दयानंद की बस एक दो कृतियोँ की बात करके मैँ अपने प्रिय उपन्यास ‘लोक कवि अब गाते नहीँ’ की बात कर के यह लेख ख़त्म करूँगा.
-
‘वे जो हारे हुए’ समाज और राजनीति की सड़ाँध के विरोध की महागाथा है. इस मेँ प्रदर्शित हैँ - अस्पतालोँ मेँ फैला भ्रष्टाचार, मंदिरोँ मेँ कुत्सित महंत, गाँव गाँव विष घोलती हिंदु युवा वाहिनी, पतनशील राजनीति, नेताओँ को ख़रीदते उद्योगपति, उन का साथ देने को उत्सुक बिकाऊ मीडिया. इस के साथ ही, इस के बरक्स, है नए समाज के उदय की आकांक्षा. पढ़ कर मन कहता है ‘वह सुबह कभी तो आएगी जब दुख के बादल पिघलेंगे जब सुख का सागर झलकेगा’.
दयानंद ने पत्रकारिता को भीतर से देखा है, परखा है और भोगा है. बारबार वह इस ढोल की पोल खोलता है. अजीब से और विषय से पूरी तरह असंबद्ध लगने वाले नाम ‘हारमोनियम के हज़ार टुकड़े’ दयानंद ने लिखा है “‘हारमोनियम के हज़ार टुकड़े’ मतलब थके हारे मीडियाजनों के पराजित मन के असंख्य टुकड़े.” कथानक है ऐतिहासिक महत्व के दो अख़बारोँ का व्यावसायीकरण के भयानक दौर मेँ जब चौहान जैसे थके हारे कर्मी गाना चाहते हैं, ‘हम होंगे कामयाब!’ तो उन का हारमोनियम तोड़ दिया जाता है. उपन्यास पराजित मीडिया मेँ काम करने वाले पत्रकारोँ का संत्रास उभार कर दिखाता है. मकड़जाल मेँ फँसे बेबस से सूर्य प्रताप सिंह जैसे ईमानदार और ऊर्जावान पत्रकार को धीरे धीरे दलाल बनते हमेँ झकझोरता है. मनमोहन कमल, सरोज और भैया जैसे दलाल और भडुवे पत्रकारोँ की शानशौकत जुगुप्सा और नफ़रत पैदा करती है. अजबगजब चरित्र हैँ - लड़कियों से लाइनबाजी करने वाले वृद्ध सुरेंद्र मोहन तल्ख हैं तो उन के साथ हैँ वेश्यावृत्ति के शौकीन ग़लीज़ सुजान पुरिया भी.
दयानंद पांडेय का जन्म 30 जनवरी, 1958 को गोरखपुर ज़िले के एक गांव बैदौली में हुआ. हिंदी में एम.ए. करने के पहले ही से वह पत्रकारिता में आ गए. वर्ष 1978 से पत्रकारिता. उन के उपन्यास और कहानियों आदि की कोई 36 पुस्तकें प्रकाशित हैं. लोककवि अब गाते नहीं पर उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान का प्रेमचंद सम्मान, कहानी संग्रह ‘एक जीनियस की विवादास्पद मौत’ पर यशपाल सम्मान तथा फ़ेसबुक में फंसे चेहरे पर सर्जना सम्मान.
-
दयानंद की तमाम रचनाओँ मेँ मुझे सब से ज़्यादा पसंद है ‘लोक कवि अब गाते नहीं’ – स्वतःस्फूर्त भोलेभाले भोजपुरिया कवि-गायक की सच्ची और आँखोँ-देखी जीवन गाथा. जैसे वाल्मीकि रामायण मेँ उपस्थित हैँ उसी तरह पत्रकार-लेखक अपने मित्र की कथा मेँ वर्तमान है. जहाँ रामायण बुराई पर अच्छाई की जीत की कहानी है, लोककवि अच्छाई पर बुराई की कथा है. लेखक मोहना की रग़ रग़ पहचानता है, लगता है कि वह उस की सखी धाना को भी जानता रहा है. दोनोँ के उभरते प्रेम का जो काव्यात्मक कोमलकांत वर्णन उस ने किया है, वह दुर्लभ है. वह उस परिवेश को भी अच्छी तरह जानता समझता और बयान करता है जिस मेँ मोहना और धाना मिल नहीँ सकते. किस तरह मोहना की पिटाई होनी ही है यह भी उसे पता है और किस तरह धाना पराई हो गई यह भी मानोँ उस ने अपनी आँखोँ देखा है. वह यह बताने मेँ समर्थ है कि किस तरह एक नेता उसे शहर ले आता है और गाँव से बिछड़े मोहना को चुनाव के मंचोँ पर जो लोकप्रियता मिलती है, उसी मेँ उस के पतन का बीज गहरे जमा है. उस के गीतोँ मेँ जो खांटी भोजपुर था, धीरे धीरे वह बिलाता चला गया. क्योँ? गीतोँ की अपील अखिल भारतीय करने के लिए! बढ़ती लोकप्रियता ने अहंकार को जन्म दिया, कई तरह के लालच दिए – और अधिक प्रशंसा का, मंच पर जाने के लिए और अधिक पारिश्रमिक का, लोकप्रियता भुनाने के लिए मंडली बनाने का, मंडली मेँ गायिकाओँ के समावेश का, लिप्सा ने जन्म दिया पुरस्कारोँ का, सम्मानोँ का, उन के लिए तरह तरह की जुगत भिड़ाने का. महिलाओँ के समावेश ने यौन लिप्सा को बढ़ाया, शराबख़ोरी को बढ़ाया. और फिर जब एक बार फिर धाना से मुलाक़ात हो गई तो उस का, उस के पति का साथ ही उस के परिवार बोझ सँभालने का दायित्व, अपने निजी परिवार से निपटने का झमेला... देर रात तक महफ़िलेँ, देर दिन चढ़े तक सोने का.
यह सब दयानंद ने बड़ी आसानी से सँभाला है. वह लिखते हैँ, “एक समय ऐसा आया जब मंडली की लड़कियाँ जब सुस्तातीँ तो लोक कवि को गा लेने का मौका मिलता.” तभी लोक कवि समझ पाए कि वह क्या से क्या हुए और क्या रह गए हैँ.
अंत मेँ –
यूँ तो दयानंद पांडे की सभी रचनाएँ उन्हीँ से प्रेरित हैँ जिन्हेँ वह जानते रहे हैँ या जिन जैसोँ से उन का साबक़ा पड़ा है. लोक कवि उपन्यास उन के निजी मित्र बालेश्वर के जीवन से प्रेरित है, जिस मेँ उन्होँ ने भोजपुरिया ग्रामांचल मेँ अपने देखे लोगोँ की अनेक उपकथाएँ जोड़ कर चौथा आयाम जोड़ दिया है.
अरविंद कुमार...
[ अरविंद कुमार माधुरी और सर्वोत्तम रीडर्स डाइजेस्ट के संस्थापक संपादक रहे
अरविंद कुमार थिसारस के लिए जाने जाते हैं। ]
दिल्ली में सहज समांतर कोश के विमोचन के समय अरविंद जी के साथ |
अरविंद जी को जब हिंदी अकादमी , दिल्ली ने शलाका सम्मान दिया , तब उन के साथ |
शानदार।
ReplyDeleteविस्तृत विश्लेषण!
ReplyDelete